अजित पवार की चाल ने लोगों को 41 साल पुरानी एक सियासी कहानी याद दिला दी है। यह कहानी भी महाराष्ट्र की है। उस कहानी के केंद्र में शरद पवार थे। ठीक वैसे ही जैसे आज उनके भतीजे अजित हैं। तब पवार कॉन्ग्रेस को तोड़ मुख्यमंत्री बने थे। उस समय अंगूर की खेती करने वाले पवार केवल 37 साल के थे। अपने दॉंव से वे राज्य के सबसे युवा सीएम बन गए। लेकिन, पवार ने कल्पना नहीं की होगी कि एक वक्त ऐसा भी आएगा जब यही दॉंव उन पर आजमाया जाएगा। उन्हें इस दॉंव से पटखनी देने वाला खुद उनका ही भतीजा होगा। वो भतीजा जिसे राजनीति के तमाम दॉंव-पेंच उन्होंने खुद सिखाए हैं।
फर्क केवल यह है कि इस दॉंव का इस्तेमाल करना वे 37 साल में सीख गए थे। बदले में मुख्यमंत्री का पद हासिल किया। भतीजे ने इस दॉंव को 60 साल की उम्र में आजमाया और डिप्टी सीएम का पद पाया। दरअसल, आपातकाल हटने के बाद 1977 में हुए लोकसभा चुनावों के बाद कॉन्ग्रेस टूट गई थी। एक धड़े को कॉन्ग्रेस (यू) और दूसरे को कॉन्ग्रेस (आई) के नाम से जाना गया। लोकसभा चुनाव के दौरान कई राज्यों में पार्टी की हार हई थी। महाराष्ट्र भी अपवाद नहीं रहा। हार के बाद तब मुख्यमंत्री रहे शंकर राव चव्हाण ने नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा दे दिया।
शरद पवार के गुरु यशवंत राव चव्हाण कॉन्ग्रेस (यू) का हिस्सा बने। पवार भी गुरु के धड़े में गए। इसके बाद 1978 में कॉन्ग्रेस के दोनों धड़ों ने अलग-अलग चुनाव लड़ा। बाद में जनता पार्टी को सत्ता से दूर रखने के लिए कॉन्ग्रेस के दोनों गुट मिल गए और उन्होंने वसंतदादा के नेतृत्व में सरकार बनाई। शरद पवार को वसंतदादा की सरकार में श्रम एवं उद्योग मंत्री बनाया गया। कहा जाता है कि अपने गुरु यशवंत राव के इशारे पर शरद पवार ने ‘दादा’ की कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया। उन्होंने 12 जुलाई 1978 को कैबिनेट से अचानक इस्तीफा दिया और महाराष्ट्र की राजनीति में भूचाल मच गया।
उस समय वाईबी चव्हाण कॉन्ग्रेस वर्किंग कमिटी के अध्यक्ष की जिम्मेदारी निभा रहे थे। अध्यक्ष स्वर्ण सिंह विदेश दौरे पर थे। वो उस समय धर्मसंकट में फँस गए कि पवार वाले मुद्दे को कैसे हैंडल करना है। चव्हाण ने पवार के इस क़दम को धोखा बताते हुए इसका विरोध तो किया, लेकिन पवार के ख़िलाफ़ कोई एक्शन नहीं लिया। जब कॉन्ग्रेस में कई बड़े नेता पवार के विरोधी हो उठे थे, चव्हाण ने नरम रुख अपनाया। कहा जाता है कि चव्हाण ने ही अपने चेले शरद पवार को ऐसा करने के लिए उकसाया था। दोनों के बीच एक बैठक भी हुई थी। कॉन्ग्रेस कार्यकारिणी की बातों को न मानने वाले पवार के रुख से चव्हाण ख़ुश थे।
In 1978, Sharad Pawar ditched & broke the Govt of Vasantdada Patil, to become youngest Chief Minister of Maharashtra.
— Anshul Saxena (@AskAnshul) November 23, 2019
After 41 years, Karma reached to the door of Sharad Pawar.
In 2019, Sharad’s nephew Ajit Pawar ditched him, to become Deputy Chief Minister of Maharashtra.
शरद पवार के नेतृत्व में ‘प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक फ्रंट’ बना और जनता पार्टी के समर्थन से सरकार बनी। उनके फ्रंट के अलावा उस गठबंधन में जनता पार्टी, रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया और सीपीएम के विधायक शामिल थे। पवार कॉन्ग्रेस के 40 विधायकों को लेकर निकले थे और बाकी अन्य पार्टियों के थे। रिपब्लिकन पार्टी रामदास आठवले की पार्टी है। पवार ने 288 सदस्यीय विधानसभा में 180 विधायकों का समर्थन जुटाया था। शरद पवार वसंतदादा कैबिनेट में इंदिरा गाँधी गुट के बढ़ते प्रभाव से नाराज़ थे और उनके व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा तो थी ही। शरद पवार काफ़ी दिनों से जनता पार्टी से संपर्क में थे।
इस बार भी अजित पवार ने किसी को भी इस बात की भनक नहीं लगने दी कि वो क्या करने वाले हैं। अजित शुक्रवार रात तक अपनी पार्टी की तरफ़ से शिवसेना और कॉन्ग्रेस की बैठकों में शामिल हो रहे थे। उसी बैठक में मुख्यमंत्री के रूप में उद्धव ठाकरे के नाम पर सहमति बन गई थी। शाम को उस बैठक में शामिल रहे अजित ने रात के 12 बजे राज्यपाल से मुलाक़ात कर भाजपा को समर्थन वला पत्र सौंप दिया। लगभग 6 घंटे के अंतराल में अजित पवार शिवसेना, एनसीपी और कॉन्ग्रेस की बैठक से निकल कर फडणवीस को समर्थन दे आए। शरद पवार को उनके ही दाँव से भतीजे ने उन्हें चित कर दिया।
वैसे, एनसीपी में ताज़ा फूट की पटकथा सितम्बर 2019 से ही लिखी जानी शुरू हो गई थी। सितम्बर के आखिरी हफ्ते में अजित पवार ने अचानक से राजनीति से संन्यास का ऐलान कर दिया था। शरद पवार ने कहा था कि 25,000 करोड़ रुपए के को-ऑपरेटिव बैंक घोटाले में उनका नाम आने से वो दुखी थे। ख़ुद शरद पवार ने स्वीकारा था कि भतीजे ने उनकी राय लिए बिना इस्तीफा दिया है। यहाँ तक कि इस्तीफा देने के बाद भी उन्होंने अपने चाचा से बात नहीं की थी। अजित के बेटे पार्थ ने उस समय कहा था कि अजित मानते हैं कि राजनीति से
संन्यास लेने का ये सही वक़्त है। कहा तो ये भी गया था कि शरद पवार द्वारा अपनी बेटी सुप्रिया सुले को आगे करने के फ़ैसले से अजित पवार नाराज़ थे।
Ajit Pawar’s decision to support the BJP to form the Maharashtra Government is his personal decision and not that of the Nationalist Congress Party (NCP).
— Sharad Pawar (@PawarSpeaks) November 23, 2019
We place on record that we do not support or endorse this decision of his.
1978 में जो हुआ था, वो पारिवारिक लड़ाई तो नहीं थी लेकिन वो भी चौंकाने वाली घटना ज़रूर थी। पूरे देश में यह चर्चा चल निकली थी कि चव्हाण के नेतृत्व वाली कॉन्ग्रेस का जनता पार्टी के साथ गठबंधन हो सकता है। महाराष्ट्र को उदाहरण मान कर राजनीतिक विश्लेषक इन संभावनाओं पर चर्चा करने लगे थे कि इंदिरा गाँधी के ख़िलाफ़ कॉन्ग्रेस का एक धड़ा जनता पार्टी के साथ जाकर महाराष्ट्र की तर्ज पर काम कर सकता है। जनता पार्टी में कई ऐसे लोग थे, जो कॉन्ग्रेस से आए थे। कई सोशलिस्ट थे। ऐसे में, उनका चव्हाण के नेतृत्व में एक नई पार्टी के गठन की सम्भावना जताई गई थी।
उस दौरान शरद पवार के शपथग्रहण के दौरान चंद्रशेखर और मधु लिमये सहित जनता पार्टी के कई बड़े नेता शामिल हुए थे। जनता पार्टी ने पवार से ज्यादा संख्याबल होने के बावजूद उन्हें समर्थन दिया था, क्योंकि वो चाहते थे कि बाद में पवार को हटा कर वो ख़ुद के सीएम को बिठा सकते हैं। ताज़ा घटना में अजित पवार अगर एनसीपी के 36 विधायकों को तोड़ लेते हैं तो भाजपा और एनसीपी के अजित गुट की सरकार पूरे 5 साल चल सकती है। अब देखना यह है कि विधानसभा में फडणवीस और अजित बहुमत कैसे साबित करते हैं। अब तो एनसीपी द्वारा अजित को मनाने की कोशिशें भी असफल हो चुकी हैं।
कहा जाता है कि पवार ने 41 साल पहले जो कुछ किया था वो अपने राजनीतिक गुरु यशवंत राव चव्हाण के इशारे पर किया था। अजित ने अपने राजनीतिक गुरु शरद पवार की मिलीभगत से ही कदम उठाया है, ऐसा दावा करने वाले भी बहुत हैं। हालॉंकि अब तक शरद पवार के रुख से ऐसा प्रतीत नहीं हो रहा। लेकिन, यह नहीं भूलना चाहिए कि पवार और उनकी बेटी को मोदी कैबिनेट में मंत्री बनाने की संभावना उसी रामदास आठवले ने जताई है जिन्होंने कुछ दिन पहले दावा किया था कि उनसे अमित शाह ने कहा है कि जल्दी ही सब कुछ ठीक हो जाएगा और महाराष्ट्र में भाजपा की ही सरकार बनेगी।