डेढ़ साल की थीं भाषा सुंबली जब अपनी माँ की गोद में रहते हुए उन्हें कश्मीर घाटी छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा। 19 जनवरी 1990 की उस भयावह रात को अब 31 साल बीत गए हैं। भाषा दोबारा अपने घर कभी नहीं लौटीं। उजाड़े गए आशियाने का भटकता परिंदा कैसा होता है, उन्हें अपने लोगों को देख कर इसका एहसास है।
अभिनय क्षेत्र में लगातार नई सीढ़ी चढ़ने वाली यह कश्मीरी हिंदू महिला आज चाहे तो उस दर्द पर चुप्पी साध सकती है और अपने माता-पिता व अपने लोगों पर हुए अत्याचार को भुलाकर आगे बढ़ सकती है। आखिर देखा जाए तो जिस समय कश्मीरी पंडितों का नरसंहार हुआ उस समय वह थी भी कितने साल की? महज डेढ़ साल की तो थी! इस उम्र में तो शायद कोई बच्चा ठीक से बोलना भी नहीं सीखता। लेकिन, भाषा अगर 31 साल बाद भी ये सब नहीं भूल पा रहीं तो शायद इसके पीछे वजह है, जो इतनी सामान्य नहीं है कि मानवता के नाम पर उसे क्षमादान देकर आगे बढ़ चला जाए।
19 जनवरी 1990 की याद में अग्निशेखर जी की कविता और उनकी बेटी भाषा सुंबली का वीडियो। इसे सुनकर शायद विस्थापन की तकलीफ़ का कतरा हमें भी छू जाए! 31वर्षों की तकलीफ़!#KashmiriPanditGenocide #KashmiriHinduExodus #KashmiriHinduExodus_31yrs #KashmiriHinduExodusDay pic.twitter.com/uqCmjhqMy7
— Dhara Pandey (@dharapandey84) January 20, 2021
आज देशभर में निर्वासित उन्हें उनके अपने लोग याद दिलाते हैं कि कैसे घर से निकाल फेंके जाने के बाद उन्हें और उनकी माँ को शरणार्थी शिविरों में लंबा समय गुजारना पड़ा। उन्हें याद है शायद कि कश्मीर के पॉश इलाके से कैसे वह रातोंरात दिल्ली की धूल चाटने को मजबूर हुईं। उन्हें याद है अपनों का वह भयभीत चेहरा, जो उस रात इस्लामी आतताइयों की बर्बरता का शिकार हुआ और घाटी की वादी खून से रंग गई।
19 जनवरी 2021! कल अचानक भाषा सुंबली की एक कविता सोशल मीडिया पर नजर आई। अपनी रचनात्मकता के साथ उन्होंने जिस तरह लाखों कश्मीरी हिंदुओं की भावना को प्रस्तुत किया वह वाकई विस्थापन की उस तकलीफ को बताता है, जो शायद आप या हम अनेकों किस्से पढ़ने के बाद भी महसूस न कर पाएँ।
भाषा लिखती हैं:
“जनवरी के बर्फीले महीने की उन्नीसवीं तारीख
आती है हर बार
और कहती हूँ मैं मेरे गाँव को,
तू करना मेरा इंतज़ार
आऊँगी मैं…
डाकिए से पूछती हूँ अक्सर
खोल अपनी जादुई पोटली
देख, क्या मेरे घर ने भेजा है कोई तार…?
आऊँगी मैं… मेरे मोहल्ले गनपतयार..!
जानती हूँ,
मोटी जमीं बर्फ को चीरकर
उग आए केसर के नन्हें फूल की तरह
होंगे हम एक दिन
निष्कासन की इस लंबी अंधेरी सुरंग के उस पार
और तब, आऊँगी मैं…
मेरे आँगन के बूढ़े चिनार ने
पिछले 31 पतझड़ों में हर बार
बिछाए हैं पलकों की तरह
मेरे लिए अपने ज़र्द पत्ते…
आऊँगी मैं.. ओ मेरे बून्य शहजार!
वितस्ता बहती है वहाँ
पर कहती हैं यहाँ
सपनों में मुझसे,
फिर से सजा मेरे घाट पर
अखरोट के दियों की लंबी कतार
ओ मेरी नदी, आऊँगी मैं..
कसम शिव की,
ओ कश्मीर,
आएँगे हम,
और अंगद के पाँव की तरह
अब उखड़ न पाएँगे हम
सदा सदा के लिए
बस जाएँगे हम
आएँगे हम!
आएँगे हम…
ओ कश्मीर
आएँगे हम!“
भाषा सुंबली की यह कविता कई लोगों के लिए बेहद सामान्य हो सकती है। लेकिन इसमें निहित भावुकता, संवेदनशीलता और ठहराव उनसे पूछिए जो वाकई उस इंतजार में हैं कि एक बार दोबारा वह अपने घर लौटेंगे.. हक से लौटेंगे… हमेशा के लिए लौटेंगे…।
कश्मीर से दूर, उसकी संस्कृति से अनभिज्ञ, हम सिर्फ़ ये जानते हैं कि सदियों के इतिहास के बावजूद 90 के उस नरसंहार के बाद शेष हिंदुओं ने घाटी से उजड़कर अलग-अलग राज्यों में अपनी दुनिया बसाई। लेकिन हमें नहीं मालूम कि उस नई जगह पर अपनी संस्कृति, अपनी सभ्यता, अपनी भाषा के विलुप्त होने की घबराहट क्या होती है? सुंबली उसी घबराहट से आज जूझ रही हैं। उनके मन में सवाल है कि आने वाली अपनी पीढ़ी को सभ्यता के नाम पर क्या सौंपेगी? वह इस कारण निरंतर प्रयास कर रही हैं कि अपनी युक्तियों से उस संस्कृति, खान-पान को जीवित रख सकें जिसे धीरे-धीरे भावी पीढ़ी ‘कूल’ या ‘सेकुलर’ होने के कारण भुलाती जा रही है।
ऑपइंडिया से बात करते हुए सुंबली बताती हैं कि वह भारतीय फिल्म निर्देशक/निर्माता विवेक अग्निहोत्री द्वारा निर्देशित फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ में जल्द ही बतौर अभिनेत्री नजर आने वाली हैं। मसूरी में फिल्म की अधिकतर शूटिंग पूरी करने के बाद ‘कश्मीर शेड्यूल’ पर भाषा यह कहकर नहीं गईं कि वे कश्मीर जाना बर्दाश्त ही नहीं कर पाएँगी। उन्होंने कहा-
“क्योंकि मैं बर्दाश्त नहीं कर पाऊँगी वहाँ टूरिस्ट बनकर जाना। ये बहुत बड़ी बात होती है अपने ही घर में जाकर होटल में रुक कर आना। नहीं गई, क्योंकि मेरे लिए मुश्किल है अपने घर जाने के बावजूद वहाँ न हो पाना। घर न होता तो शायद दिक्कत नहीं थी लेकिन कश्मीर में मेरा घर है।”
वह अपनी बातचीत में उस कश्मीर को लेकर सवाल करती हैं जिस जगह को बॉलीवुड में उसके गानों में सिर्फ़ वादियों के लिए दिखाया जाता रहा, आखिर वह हकीकत में उस घाटी की बाशिंदा होने के बावजूद उस खूबसूरती को क्यों नहीं देख पाईं?
उन्होंने देखा भी क्या; निर्वासित हुए अपने लोग। वह बताती हैं कि किस तरह वह दिल्ली के शरणार्थी शिविरों में सड़क पर रहने वाले लोगों की तरह रहने को मजबूर हुईं। डेढ़ साल की उम्र में उन्हें नहीं याद है कि उन्होंने क्या किया। मगर उनकी माँ उन्हें बताती हैं कि कैसे वह एक ही रात में सड़क पर रह रहे भिखारी की भाँति हो गए थे, जिनकी बच्ची को न खुली सड़क पर खेलने से डर था और न मिट्टी खाने से परहेज।
शिकारा फिल्म पर अपना गुस्सा जाहिर करते हुए वह कहती हैं कि उस फिल्म में संदेश दिया गया कि कश्मीरी हिंदू अपने साथ हुए अत्याचार को भुलाकर एक दूसरे से माफी माँगें और आगे बढ़ें। वह पूछती हैं, “हमें किस बात की माफी माँगनी है कि हम वहाँ से भाग निकले और वो लोग हमारी नस्ल को खत्म नहीं कर पाए? या इस इस बात का माफी माँगें कि हम शून्य से एक बार फिर खड़े हो रहे हैं? या इस बात की माफी माँगे कि अलग अलग क्षेत्रों में भारत के प्रतिनिधि बनकर हम देश का नाम ऊँचा कर रहे हैं,?”
अपनी कविता को सुंबली अपनी चेतना का हिस्सा कहती हैं। उसे वह अपनी हर साँस के साथ महसूस करती हैं। वह बताती हैं कि वो पीड़ा, उसका भाव सिर्फ़ केवल 19 जनवरी को जागृत नहीं होता। उनकी भाषा में बताएँ तो एक पेड़ जब अपनी मिट्टी से उखड़ गया तो वो अपनी मिट्टी को हमेशा याद करता है।
विस्थापित कश्मीरी हिंदुओं को सुंबली उखड़ी हुई जड़ मानती हैं, और उनके जल्द से जल्द कश्मीर लौटने की कामना करती हैं। वह कहती हैं कि कश्मीर जाना उनका ध्येय है और सिर्फ़ अकेले जाना नहीं, सामूहिक तौर पर पूरे सम्मान के साथ अपने घर लौटना ही उनकी इच्छा है। कोरोना महामारी में भी लॉकडाउन के समय सुंबली इसी प्रयास में जुटी थीं कि कश्मीरी हिंदू ऐसे समय का उपयोग करें और अपने बच्चों को उस संस्कृति से, वहाँ की भाषा से, स्थानीय खान-पान के स्वाद से रूबरू करवाएँ जो विस्थापन के बाद खत्म होने की कगार पर है।
इस संस्कृति जीर्णोंद्धार की प्रक्रिया में वह अपना सबसे बड़ा हथियार अपनी रचनात्मकता को मानती हैं। उन्होंने तमाम शॉर्टफिल्म को युक्तियों की तरह प्रयोग किया है। उनका मकसद बस यही है कि कुछ भी करके उन लोगों की घरवापसी हो ताकि ये संस्कृति विलुप्त न हो और आने वाली पीढ़ी भी समृद्ध तहजीब के साक्षी रहे। उसके वाहक रहे।
बता दें कि ‘द कश्मीर फाइल्स’ में जल्द ही नजर आने जा रहीं भाषा सुंबली ‘छपाक’ फिल्म में भी एक छोटा अभिनय कर चुकी हैं। इसके अतिरिक्त, ‘द कश्मीर फाइल्स’ में उनकी भूमिका बतौर अभिनेत्री के अतिरिक्त कश्मीरी सभ्यता से जुड़ी जानकार के तौर पर भी रही है। उनका दावा है यह फिल्म पंडितों पर हुए नरसंहार को जस के तस परोसने वाली है।
अपने बारे में सुंबली कहती हैं कि जम्मू से शुरुआती शिक्षा और संस्कृति के बारे में जानने के बाद उन्होंने दिल्ली के मशहूर NSD इंस्टिट्यूट में आगे खुद को निखारा। अब वह कश्मीर एक्टिविस्ट के तौर पर अपने लोगों के अधिकार के लिए आवाज उठा रही हैं। अपनी कलाओं को जिंदा रखने की कोशिश कर रही हैं। वह बोलती हैं कि भारत के किसी भी क्षेत्र में रहने वाले व्यक्ति के पास (चाहे वो कहीं भी रह रहा है) कभी भी जाने को उसकी मातृभूमि है।
भाषा ने कहा, “उदाहरण के तौर पर, एक पंजाबी के पास वापस जाने को पंजाब है हमारे पास हमारी मातृभूमि नहीं है, इसलिए हमारे पास कम से कम हमारी मातृभाषा हमारी संस्कृति तो है इसी चेतना को ज़िंदा रखते हुए मैं अपनी संस्कृति से बहुत ज़्यादा जुड़ी हुई हूँ!”
हिंदुओं के नरसंहार के बाद उन्होंने हमारी संस्कृति का दमन किया: कश्मीरी एक्टिविस्ट अग्निशेखर
भाषा से संपर्क करने के दौरान हमारी बात उनके पिता डॉ अग्निशेखर से हुई। जो स्वयं एक लेखक हैं। एक कवि हैं और सक्रिय कश्मीरी एक्टिविस्ट के तौर पर सालों से अपने लोगों की घर वापसी के लिए प्रयासरत हैं। कश्मीरी लोगों के लिए आवाज बुलंद करने में उनकी क्या भूमिका है इसका अंदाजा हम इस बात से लगा सकते हैं कि घाटी में कई आतंकियों की लिस्ट में उनका नाम शामिल है।
वह बातचीत में 1990 की भयावह सच्चाई से जुड़े अपने कई अनुभव ऑपइंडिया से साझा करते हैं। वह कहते हैं कि वह सब आकस्मिक नहीं था। 1986 में राजनीतिक हितों के चलते इसकी पृष्ठभूमि तैयार हुई थी। एक पूरा रिहर्सल हुआ था एक ऐसे नाटक का जिसका भयानक व विस्तृत रूप 1990 में कश्मीरी हिंदुओं ने झेला।
उस समय को याद करते हुए वो बोलते हैं कि जिस दौरान घाटी में हिंदू समुदाय का नरसंहार हुआ उस समय उनकी बेटी डेढ़ साल की थी और बेटा साढ़े तीन साल का। उनके अनुसार, उस समय माहौल ऐसा था कि जिनके पास भी बेटी-बहन-माँ-पत्नी थीं, वह सब आशंकित थे। छोटी-छोटी बच्चियों को छिपा-छिपा कर हाथ में चाकू दे दिया गया था कि कोई आए तो अपनी आत्मरक्षा में उसे चला सकें। मिट्टी के तेल दिए गए थे कि आएँ तो उन्हें जला सकें।
डॉ अग्निशेखर को कश्मीर छोड़े 31 साल हो गए हैं। वह उस रात के बाद जम्मू आ बसे थे। आज भी उनका निवास जम्मू ही है। हाँ, उनकी पत्नी और बच्चे दिल्ली, प्रयागराज जैसी जगहों पर जाकर जरुर रहे, लेकिन काम के कारण उन्हें जम्मू रहना पड़ा। अभी हाल में जब वह कश्मीर गए तो स्थिति ये थी कि उन्हें बीएसएफ के जवानों को साथ लेना पड़ा था।
भयावह रात की स्मृतियों को जेहन से निकाल पाना अग्निशेखर, उनके परिवार और उनके जैसे तमाम लोगों के लिए आज भी असंभव है। पड़ोसी इमारतों समेत मस्जिदों से किस तरह इलाके के बहुसंख्यक आतताइयों ने हिन्दू अल्पसंख्कों को निशाना बनाया था, उसे याद कर आज भी उनकी आत्मा सिहर उठती है। तमाम किस्से ऐसे हैं, जिसकी कल्पना करना भी आपके और हमारे लिए मुश्किल है। निर्वासन की पीड़ा झेल चुके अग्निशेखर बताते हैं कि हर हिंदू के मन में उस समय बस यही था कि कभी भी दरवाजें, दिवारें तोड़ कर उन्हें मार दिया जाएगा।
बतौर एक चश्मदीद, अग्निशेखर उस समय की कल्पना करवाते हैं कि सोचिए कैसा माहौल होगा उस जगह का जहाँ भारत पाकिस्तान के हर मैच के बाद हमेशा आपके घर में पत्थरबाजी हो। पाकिस्तान जीते तो खुशी में की जाए, हारे तो गुस्से में आपको निशाना बनाया जाए। हिंदुओं की हालात वह उस कसाईबाड़े में भरे गए भेड़ों से करते हैं जिन्हें मालूम है कि कसाई कभी भी गेट खोलकर उन्हें काट देगा।
पाकिस्तान समर्थित नारे, हिंदुओं से हर समय गालीगलौच उस दौर में कश्मीर घाटी की हकीकत हो चली थी जो 90 के बाद एक बर्बर सच बनकर इतिहास में हमेशा के लिए दर्ज हो गई। कश्मीरी पंडितों ने अपनी जान और अपने परिवार को बचाने के लिए अपना बचपन, अपनी आस्था, अपने धार्मिक स्थल, अपनी परंपरा, अपनी जमीन, अपनी संपत्ति सबकुछ त्याग कर दिया।
हम अनुमान लगा सकते हैं कि उस रात हिंदुओं के मन पर क्या गुजरी होगी जब तमाम बहुसंख्यकों ने कश्मीरी में ये कहा कि उन सबको वहाँ कश्मीरी हिंदू महिलाओं के साथ पाकिस्तान बनाना है और हिंदू पुरूष उन्हें एक भी नहीं चाहिए।
एक कश्मीरी हिंदू होने के नाते अग्रिनशेखर बताते हैं कि वह लोग नई शुरुआत इसलिए कर पाए क्योंकि कश्मीरी हिंदू हमेशा से पढ़े लिखे थे। उन्होंने शिक्षा को महत्ता दी और खुद का हर मायनों में विस्तार किया। उनकी मानें तो स्थानीय हिंदू व्यवसाय में अधिक योगदान नहीं देते थे लेकिन अन्य विधाओं में वह बहुत आगे थे।
कश्मीर को ज्ञान का स्रोत कहते हुए वह दुख जताते हैं कि इस सरजमीं से ऐसे लोगों को विस्थापित किया गया जो उस ज्ञान और संस्कृति के वंशधर थे। ऐसे संस्थानों के नाम बदले गए (इस्लामीकरण) जिनका ऐतिहासिक रूप से बहुत महत्तव था। उनके मुताबिक, घाटी से हिंदुओं के नरसंहार के बाद सीधे सीधे सम्पूर्ण विनाश के लिए उनकी संस्कृति का दमन किया गया।
अग्निशेखर अपने तमाम अनुभवों को बताते हैं कि 31 साल में वह 4-5 बार कश्मीर गए हैं और इस बीच उन्हें ऐसी परिस्थिति भी देखी कि उन्हें भेष बदलकर अपने घर जाना पड़ा। वहीं उनकी बेटी भाषा और उनकी पत्नी, बहन तो अकेले कश्मीर जाने से इंकार करते हैं। कारण कोई डर नहीं है। एक गुस्सा है कि आखिर उन्हें, उनके लोगों, उनके घरों से कैसे अपमानित करके बाहर किया गया? वह सब चाहते हैं कि कश्मीर लौटें लेकिन अपनी शर्तों पर, अपने अपनों के शाथ, मान सम्मान और सुरक्षा के साथ। अपनी बिटिया की कविता को डॉ अग्निशेखर लाखों कश्मीरी हिंदुओं का संकल्प बताते हैं। उनका कहना है कि जिस दिन भी ऐसा हुआ उस दिन भाषा सबसे वहाँ पहुँचेंगी।