बसंत पंचमी हर वर्ष हिन्दू पंचांग के अनुसार माघ महीने में शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को मनाया जाता है। इसे माघ पंचमी भी कहते हैं। इस वर्ष आज शनिवार (5 फरवरी, 2022) को बसंत पंचमी का त्योहार पूरी श्रद्धा और हर्षोल्लास के साथ मनाया जा रहा है। विश्व में बेशक ऋतुओं का कोई स्पष्ट वर्गीकरण न हो पर भारत में वर्ष को जिन छह ऋतुओं में बाँटा जाता है, उनमें वसंत अर्थात जब फूलों पर बहार आ जाती, खेतों में सोने सी चमकने वाली सरसों के पीले फूलों की चादर सी बिछ जाती है, नाना प्रकार के मनमोहक फूलों से प्रकृति धरती का शृंगार करती है। जौ और गेहूँ की बालियाँ खिलने लगतीं, आमों के पेड़ों पर बौर आ जाता और हर तरफ़ रंग-बिरंगी तितलियाँ मँडराने लगतीं है, कोयल की कूक से दिशाएँ गूँजने लगती हैं।
आमतौर पर बसंत के बारे में अब की पीढ़ी ये सब किताबों में पढ़ती है क्योंकि प्रकृति आज की पीढ़ी के लिए या तो टीवी में मौजूद है या फिर किताबों में। अब की पीढ़ी की कल्पनाएँ भी इतनी उर्वर नहीं कि उनकी कल्पनाओं में भी ऐसा बसंत हो! कहाँ है आपका बसंत? अपने फ़्लैट में मत खोजिए, ना ही शहरों की अट्टालिकाओं में, प्रकृति की गोद में ही बसंत से मुलाक़ात होगी।
चलिए आज की उन पीढ़ियों को ऋतुराज बसंत से मुलाकात कराता हूँ। बसंत, बसंत पंचमी, मदनोत्सव, सरस्वती पूजा, होली की प्रारम्भिक शुरुआत, श्मशान में मौत के तांडव पर भारी जीवन का उत्सव – बसंत यह सब कुछ है। यह लेख आज की उस व्यस्त पीढ़ी के लिए भी है, जो एक बार फिर जीवन के उत्सव में खो जाने को तैयार हैं।
ऋतु बसंत से जुड़ी पौराणिक मान्यता
आपको पता ही होगा कि बसंत ऋतु का सम्बन्ध प्रेम भाव से है, प्रेम को जिन्होंने हर रूप में अंगीकार किया ऐसे देव भगवान विष्णु और कामदेव की पूजा का शास्वत पाठ भी सनातन की ही देन है। शास्त्रों में बसंत पंचमी को ऋषि पंचमी के नाम से भी जाना जाता है।
कहते हैं कि सृष्टि के प्रारंभिक काल में भगवान विष्णु की आज्ञा से ब्रह्मा ने जीवों में प्रमुख मनुष्यों की रचना की। पर ब्रह्मा अपनी सर्जना से संतुष्ट नहीं थे। उन्हें लगता था कि कहीं न कहीं कुछ कमी रह गई है जिसके कारण चारों ओर मौन छाया रहता है। विष्णु से अनुमति लेकर ब्रह्मा ने अपने कमण्डल से जल छिड़का, पृथ्वी पर जलकण बिखरते ही उसमें कंपन होने लगा। इसके बाद वृक्षों के बीच से एक अद्भुत शक्ति का प्राकट्य हुआ।
यह प्राकट्य एक चतुर्भुजी सुंदर स्त्री का था जिसके एक हाथ में वीणा तथा दूसरा हाथ वर मुद्रा में था। अन्य दोनों हाथों में पुस्तक एवं माला थी। ब्रह्मा ने देवी से वीणा बजाने का अनुरोध किया। जैसे ही देवी ने वीणा का मधुरनाद किया, संसार के समस्त जीव-जन्तुओं को वाणी प्राप्त हो गई। जलधारा में कोलाहल व्याप्त हो गया। पवन चलने से सरसराहट होने लगी। तब ब्रह्मा ने उस देवी को वाणी की देवी सरस्वती कहा। वह दिन बसंत पंचमी का था। इसी वजह से हर साल बसंत पंचमी के दिन देवी सरस्वती का प्राकट्य उत्सव मनाया जाने लगा और उनकी पूजा की जाने लगी।
सरस्वती को बागेश्वरी, भगवती, शारदा, वीणावादनी और वाग्देवी सहित अनेक नामों से पूजा जाता है। ये विद्या और बुद्धि प्रदाता हैं। मधुर संगीत और सुरों की सृजनकर्ता होने के कारण ये संगीत की देवी भी हैं। ऋग्वेद में भगवती सरस्वती का वर्णन करते हुए कहा गया है-
प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवतु।
अर्थात ये परम चेतना हैं। सरस्वती के रूप में ये हमारी बुद्धि, प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका हैं। हममें जो आचार और मेधा है उसका आधार भगवती सरस्वती ही हैं। इनकी समृद्धि और स्वरूप का वैभव अद्भुत है।
बसंत: काम मानवता का हिस्सा है
बसंत को ऋतुओं का राजा यूँ ही नहीं कहा गया है। पौराणिक मान्यता के अनुसार बसंत कामदेव के मित्र हैं, कामदेव ही इस मौसम को बेहद रूमानी कर देते हैं। आमतौर पर कामदेव को प्रेम का देवता माना गया है। इन्हें रागवृंत, अनंग, कंदर्प, मनमथ, मनसिजा, मदन, रतिकांत, पुष्पवान और पुष्पधंव नामों से भी जाना जाता है।
सनातन परम्परा में काम कभी वर्जित नहीं रहा, कामुकता हमेशा से मानवता का एक अभिन्न हिस्सा रही है। इसी वजह से आज मानवता का अस्तित्व है। अगर गुफा में रहने वाले मानव ने इसे त्याग दिया होता तो क्या आज हम होते। यह हमेशा से है और रहेगी, लेकिन ऐसा नहीं होना चाहिए कि काम आपकी चेतना पर हावी हो जाए। कहा गया है कि अगर काम आपकी चेतना पर शासन करने लगे, तो आप एक विवश इंसान हो जाएँगे। फिर आपके और किसी जानवर के बीच कोई फर्क ही नहीं रह जाएगा।
भारतीय संस्कृति ही है जहाँ खजुराहों और कोणार्क जैसे मंदिर हैं जो काम पर विजय के प्रेरक हैं। मंदिर के बाहर यौनरत मुद्राएँ हैं लेकिन कहीं भी मंदिर के भीतर इस तरह की कामोत्तेजक सामग्री नहीं है। यह प्रतीकात्मक रूप से हमेशा बाहरी दीवारों पर ही मिलेगी।
इसके पीछे जो सनातन सोच है वह यह है कि अगर आप यह महसूस करना चाहते हैं कि भीतर क्या है तो आपको अपनी भौतिकता या शारीरिक पहलू को यहीं बाहर छोड़ देना होगा। शारीरिक पहलू आसान होते हैं, ये बाहर ही हैं। लेकिन जो भी उसके परे है, वह तब तक उतना वास्तविक महसूस नहीं होता जब तक कि वह आपके अनुभव में न आ जाए। भारतीय परम्परा में ऐसे हर संभव साधनों का निर्माण किया गया, जिनका भौतिकता को कम करने में प्रयोग किया जा सके और जीवन की उच्चतर संभावनाओं के प्रति लोगों को ज्यादा संवेदनशील बनाया जा सके। सनातन परम्परा में बिना प्रयोग किए किसी भी चीज को अस्वीकार नहीं किया गया। पूरा जीवन ही उत्सव है यहाँ और जिसने भी जीवन को पूरी उत्सवधर्मिता से जिया, वो ईश्वर के रूप में पूजनीय है।
वासुदेव श्रीकृष्ण ने दिया था वर
पुराणों के अनुसार श्रीकृष्ण ने सरस्वती से ख़ुश होकर उन्हें वरदान दिया था कि वसंत पंचमी के दिन तुम्हारी भी आराधना की जाएगी और यूँ भारत के कई हिस्सों में वसंत पंचमी के दिन विद्या की देवी सरस्वती की भी पूजा होने लगी जो कि आज तक जारी है।
पारंपरिक रूप से बसंत पंचमी बच्चों के विद्यारम्भ के लिए शुभ है। इसलिए देश के अनेक भागों में इस दिन बच्चों की पढाई-लिखाई का श्रीगणेश किया जाता है। बच्चे को प्रथमाक्षर यानी पहला शब्द लिखना और पढ़ना सिखाया जाता है। आन्ध्र प्रदेश में तो इसे विद्यारम्भ पर्व ही कहते हैं।
पतंगबाज़ी का वसंत से कोई सीधा संबंध नहीं है। लेकिन पतंग उड़ाने का रिवाज़ हज़ारों साल पहले चीन में शुरू हुआ और फिर कोरिया और जापान के रास्ते होता हुआ भारत पहुँचा। और अब तो यह कई उत्सवों का हिस्सा ही हो गया है।
ज्ञान की देवी भगवती सरस्वती
यों तो माघ का यह पूरा माह ही उत्साह से परिपूर्ण है, पर वसंत पंचमी का पर्व प्राचीनकाल से ज्ञान और कला की देवी माँ सरस्वती की विशेष कृपा का दिन है। जो शिक्षाविद भारत और भारतीयता से प्रेम करते हैं, वे इस दिन माँ शारदे की पूजा कर उनसे और अधिक ज्ञानवान होने की प्रार्थना करते हैं। कलाकारों का तो कहना ही क्या? जो महत्व सैनिकों के लिए अपने शस्त्रों और विजयादशमी का है, जो विद्वानों के लिए अपनी पुस्तकों और व्यास पूर्णिमा का है, जो व्यापारियों के लिए अपने तराजू, बाट, बही खातों और दीपावली का है, वही महत्व कलाकारों के लिए वसंत पंचमी का है। चाहे वे कवि हों या लेखक, गायक हों या वादक, नाटककार हों या नृत्यकार, सब दिन का प्रारम्भ अपने उपकरणों की पूजा और माँ सरस्वती की वंदना से करते हैं।
शिक्षा जो जीवन का पाठ पढ़ाए
आमतौर पर आज जिस तरह की मशीनी शिक्षा के हम आदी होते जा रहे हैं उतना ही असली शिक्षा से कहीं दूर भी होते जा रहे हैं। शिक्षा जो जीवन को समृद्ध करे, विवेकवान, विचारवान बनाए। आज अधिक से अधिक लोग पढ़ तो रहे हैं, पूरा जीवन सूचनाओं के संग्रहण में खपा दे रहें हैं इस आशंका में कि हो सकता है शायद कभी जीवन में ये सब काम आए। ऐसे लोगों की पूरी ज़िन्दगी आपाधापी में बीत रही है। वे एक दिन जीने की आस में जीवन का सौंदर्य खो रहे हैं। न किसी काम में ध्यान केंद्रित कर पाते हैं और न ही ठीक से उत्सवों का ही आनंद उठा पाते हैं।
ज्ञान प्राप्त होने के बाद व्यक्ति को ज्यादा शांत और ज्यादा विचारशील होना चाहिए। लेकिन आज इसका उल्टा हो रहा है। भारतीय परंपरा के अभिन्न अंग ये उत्सव जीवन को ज्यादा गहराई के साथ महसूस करने के लिए शुरू किए गए थे।
समस्या यह है कि लोगों ने जीवन को ज्यादा गहराई के साथ देखने की आदत ही खो दी है। आज जीवन इतना उथला हो चुका है कि उसमें गहराई बची ही नहीं है। परिणाम स्वरूप लोग हर चीज को केवल सतही नजरिए से ही देखने के आदी हो गए हैं।
ध्यान से देंखे तो जीवन की प्रक्रिया में ही शिक्षा है। आज हम जिसे शिक्षा कहते हैं, अगर वह जीवन से अलग है तो उसे हम शिक्षा नहीं कह सकते। क्योंकि अगर जीवन ही नहीं रहा तो शिक्षा किस काम की।
अब सवाल यह है कि कोई शिक्षा कैसे प्राप्त करता है। एक शख़्स जो कभी स्कूल नहीं गया। जो अपने खेतों में काम करता है, क्या आप उसे अशिक्षित कहेंगे? जमीन के बारे में वह आपसे ज्यादा जानता है। फसलों, मौसम, प्रकृति जैसी चीजों के बारे में उसकी जानकारी भी आपसे कहीं ज्यादा है।
सद्गुरु जग्गी वासुदेव कहते हैं, “आप जितने संवेदनशील होंगे, आप उतनी ही सीमा तक जीवन को जान पाएँगे। तो ऐसे में जीवन के प्रति अपने को ज्यादा संवेदनशील बनाने के लिए हमें कुछ करना नहीं चाहिए? अगर हम संवेदनशील नहीं होंगे तो हम बिल्कुल नहीं जान पाएँगे।”
हमारे अंदर संवेदनशीलता है, इसलिए जब मच्छर भी काटता है तो हमें पता चल जाता है। मान लीजिए आपकी त्वचा मोटी है, उसमें कोई संवेदनशीलता नहीं है। ऐसे में अगर आपको मच्छर काटता है तो आपको पता ही नहीं चलेगा। अस्तित्व को जानने के लिए चीजों को ध्यान से देखना होगा। जो भी हमारे इर्द-गिर्द है उसे ध्यान से देखकर ही आत्मसात किया जा सकता है। तब आप ज्यादा संवेदनशील होंगे। आप जितना ज्यादा संवेदनशील होंगे उतने ही अधिक जागरूक होंगे, जितने अधिक जागरूक होंगे उतना ही अधिक जीवन के करीब होंगे।
बसंत अर्थात उत्सवों का मौसम
बसंत के आगमन के साथ ही होली, जो भारत का एक विशेष पर्व है, इसकी औपचारिक शुरुआत बसंत पंचमी के दिन से ही हो जाती है। आज से ही रंगों-उमंगों का त्योहार रंगोत्सव ब्रज में आरंभ हो जाएगा। भारत तथा विभिन्न देशों में मनाया जाने वाला यह उत्सव अगले पचास दिन तक चलेगा। ब्रज में बसंत पंचमी के दिन मंदिरों में ठाकुरजी को गुलाल अर्पण कर, रसिया, धमार आदि होली गीतों का गायन प्रारम्भ हो जाता है और मंदिरों में दर्शन के लिए आने वाले भक्तों पर भी गुलाल के छींटे डाले जाते हैं।
प्राचीन परम्पराओं के अनुसार, मंदिरों में होली की तैयारियों के साथ ही आम समाज में भी होली का आगाज़ हो जाता है। फाल्गुन शुक्ल पूर्णमासी की रात होलिका जलाए जाने वाले स्थानों पर होलिका के प्रतीक के रूप में रेड़ गाड़ दिया जाता है जो इस बात का भी प्रतीक है कि ब्रज में अब होली के पारम्परिक आयोजन शुरू हो गए हैं।
इसी दिन, राधारानी के गाँव बरसाना में बैलगाड़ियों पर शोभायात्रा निकाली जाती है। महाशिवरात्रि पर दूसरी और फाल्गुन शुक्ल नवमी के दिन तीसरी शोभायात्रा निकाली जाती है। फाल्गुन शुक्ल नवमी के दिन बरसाना में लट्ठमार होली खेली जाती है जो ब्रज की 50 दिन चलने वाली होली का प्रमुख आकर्षण है।
फाल्गुन शुक्ल एकादशी को रंगपंचमी भी कहा जाता है। इस दिन वृन्दावन में ठाकुर बांकेबिहारी मंदिर सहित सभी मंदिरों में गुलाल के स्थान पर ठाकुरजी को टेसू के फूलों से बने रंग के छींटे देकर ब्रज में गीले रंगों की होली शुरू हो जाती है। यही रंग प्रसाद रूप में भक्तजनों पर भी छिड़का जाता है।
बनारस में इसी दिन बाबा विश्वनाथ दरबार में भी होली की शुरुआत होती है। महाकाल से लेकर महाशमशान तक रंगों के उत्सव के रूप में बसंत की शुरुआत मृत्यु के मंच पर जीवन का उत्सव मनाने की सीख महादेव की नगरी काशी की ही देन है।