Sunday, November 17, 2024
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देखने नहीं… फेस करने की फिल्म है The Kashmir Files: दिल के तार न झनझनाए तो नर्व नहीं अपना नैरेटिव चेक करिए

"कश्मीरी पंडितों का सच इतना सच है कि सच नहीं लगता।" - फिल्म का यह एक डायलॉग है... आप इससे आँखें मूँद लीजिए, नकार भी दीजिए तो भी ये हुआ तो था ही।

इस देश ने सदियों से दो गुटों की झड़प देखी थी। दो सम्प्रदायों में तनाव होता था। लड़ाई के समय देश के सामने प्रोजेक्शन में भी ‘फेयर एनफ़’ वाली सुचिएशन थी। गंगा-जमुना, सेवई-खीर सब चलता था। धीरे-धीरे एक वर्ग विक्टिम की तरह हमारे सामने पेश और प्लेस होता चला गया। फिर भी सहिष्णु देश सब देखता रहा। सौहार्द्र का मामला जो था।

लेकिन नहीं… धीरे-धीरे दूसरे वर्ग को विलेन बताना शुरू किया गया। तब तक भी सहिष्णु “कहने दो सानूं की” एटीट्यूड से सहता रहा। मोहरे प्लेसमेंट की राजनीति करने वाले इको सिस्टम ने सोचा ‘ऐसे कैसे?’ इतने पर भी नहीं थमे और अब बारी थी खुलकर तिलकधाकरियों को असहिष्णु या इनटोलरेंट बताने की। जब वो झाग वो सफेदी दो वर्ग कह-कह कर नहीं आए तो साफ-साफ कोई हिंदू-मुस्लिम क्यूँ ना कहे। इकोसिस्टम सर पर सवार होता चला गया। लेकिन फिर ये इस देश का गदर मूमेंट था… अशरफ अली… हिंदुस्तान जिंदाबाद था, ज़िदाबाद है और ज़िदाबाद रहेगा।

मॉन्यूमेंट से डॉक्यूमेंट तक इस देश के सामने जो भी पेश किया गया, सेलेक्टिव या नेरेटिव सैट करता एजेंडा था। कश्मीर फाइल्स उसी नैरेटिव को तोड़ती अपना सच पेश करती एक फिल्म है।
इसे आप रेट भी नहीं कर सकते, इसे रेटिंग नहीं काउंटिंग की दरकार है।

  • कितने कश्मीरी पंडितों पर ज्यादती हुई?
  • कितने कश्मीरी पंडितों की हत्या की गई, कितनों के साथ बलात्कार हुआ?
  • कितने कश्मीरी पंडितों को अपना घर छोड़ने को मजबूर होना पड़ा?
  • कितने वर्षों से वो न्याय की तलाश में हैं?
  • कितने वर्षों से वो अपनी पीड़ा दिल में दबाए बैठे हैं?

यू नीड नॉट टू रेट दिस मूवी… वेन दे आर नॉट कांउटिंग ऑन योर ऑपिनियन। इफ यू हेव एनफ़ करेज जस्ट फेस इट।

कश्मीर फाइल्स देखने की नहीं, फेस करने की फिल्म है। इतने गंभीर सच को बिना गुरूदत्त बने समय के हिसाब से दिखा पाना, समझा पाना मुझे लगता है निर्देशक इसमें सफल रहे।

फिल्मों में मिर्च-मसाला होता है। कश्मीर फाइल्स में सिर्फ मिर्च ही मिर्च है। उसकी कड़वाहट समझनी होगी। फिल्म का ही एक डायलॉग है – “टूटे हुए लोग बताते नहीं है ,उन्हें सुनना पड़ता है।” इतने वर्षों से आपको कोई बता ही तो नहीं रहा था, इसलिए ये कहानी आप सुनने को तैयार नहीं थे।

रलिव गलिव या चलिव बस यही जड़ है इस त्रासदी की और पंडित पुष्कर नाथ जी के पड़ोसी का इशारा उस वक्त कश्मीरी पीड़ितों के लिए आपके दर्द का मूल चरित्र।

एएनयू को भी खूब दिखाया और हम देखेगें भी खूब बजाया। दर्शन कुमार ने भी मौजूदा वक्त के कन्फ्यूज़ लेकिन कूल डूड टाइप के युवा की भूमिका अच्छी निभाई, जो कई बार ‘इंटेलक्चुअल’ के बीच में रहने के लिए अपनी संस्कृति के अस्तित्व को भी संदेह के घेरे में रख देता है।

एक कश्मीरी पंडित परिवार की ये कहानी नुमाइंदगी कर रही है उन तमाम कश्मीरी पंडितों की, जिनकी कहानी में पंडित सुनते ही वर्षों से इस देश का नैरेटिव सेट करने वालों को एलीट क्लास की बू आने लगती थी या पीड़ित के विक्टिम होने में उन्हें अपने एजेंडे के लिए कोई माइलेज या कमीशन नहीं दिखता।

फिल्म आपको फिरन, शिकारा, डल झील, हाउसबोट, चिनार के पेड़, चरार शरीफ से अलग… जब राजा ललित और कश्यप ऋषि के कश्मीर से परिचय कराती है तो रेटिंग की कृपा वहीं से आनी रूक जाएगी। भला हो वो तो भारत देश का इतिहास इतना पुराना, इतना पुख्ता, इतना समृद्ध और इतना ठोस और प्रामाणिक है कि आप चाहकर भी इसे वॉट्सएप यूनिवर्सिटी का ज्ञान नहीं कह सकते।

फिल्म के तमाम पैमानों पर देखें तो पेड़ के इर्द-गिर्द गानों का स्कोप नहीं था। पेड़ों पर भी सच्चाइयाँ लटकी थीं। संगीत ऐसा जो दिल के तार झनझना देगा और ऐसा ना हो तो अपनी नर्व नहीं नैरेटिव चेक करिएगा।

डायलॉग के हिसाब से आँके तो कुछ डायलॉग सुने-सुने से लगेंगे क्योंकि हमारी संस्कृति पर प्रहार करने वालों के संवाद भी लिमिटेड होते हैं। बाकी तो आपकी सच सुनने की बर्दाश्त क्षमता पर है।

पल्लवी जोशी के अलावा फिल्म में किसी ने एक्टिंग की ही नहीं क्यूँकि वो एक सच को जी रहे थे। पल्लवी जोशी को एक्टिंग करनी पड़ी ताकि आप भविष्य में कभी एजेंडे की ऐसी फाटक रहित रेलवे क्रॉसिंग को देखें तो आसानी से पहचान लें। राष्ट्रवादी जैसे जात-बाहर जैसे काइंड ऑफ तमगे से सुशोभित पल्लवी जोशी की एनएनयू के प्रोफेसर के तौर पुष्करनाथ की भूमिका में अनुपम खेर और उनके दोस्तों की भूमिका में मिथुन चक्रवर्ती प्रकाश बेलावड़ी, पुनीत इस्सर, अतुल श्रीवास्तव और बाकी किरदारों की कहानी कहने और जीने की अदायगी उम्दा रही।

जिस तरह बंकिम चंद चटर्जी और अलमा इकबाल में एक वर्ग अलमा इकबाल छांट लेता है। रफी और किशोर में रफ़ी साहब को चुन लेता है। केके मेनन और नवाजुद्दीन सिद्दकी में नवाज़ के टैलेंट पर मर मिटता है… वैसे ही सेलेक्टिव फैक्ट्स प्रेमी ये वर्ग गोधरा गायब करके गुजरात तो बताएगा लेकिन कभी आपको 1990 का सच नहीं दिखाएगा-बताएगा। निर्देशक इस साहस के लिए बधाई के पात्र हैं। लानते तो ख़ैर उनके हिस्से आनी ही हैं।

फिल्म का एक डायलॉग है – “कश्मीरी पंडितों का सच इतना सच है कि सच नहीं लगता।”

फिल्म का आखिरी सीन है – लाइन में खड़े कश्मीरी पंडित महिलाओं, बच्चों और आदमियों को गोली मारी जा रही है। हॉल में हमने कमजोर हृदय के लोगों को आँख बंद करके झाँकते हुए मुँह में दुपट्टा रख कर ये सीन सुनते हुए देखा।

आँखे मूँद तो लीं लेकिन गोलियाँ चलती रहीं, लोग मरते रहे। बिल्कुल अपने सच यानी 1990 के कश्मीरी पंडितों के नरसंहार की तरह। आप इससे आँखें मूँद भी लीजिए, नकार दीजिए तो भी ये हुआ तो था ही।

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प्रमिला दीक्षित
प्रमिला दीक्षित
प्रमिला करीब दो दशक से पत्रकारिता से जुड़ी हैं। निर्भया कांड से लेकर केदारनाथ त्रासदी तक को कवर कर चुकी हैं। मातृश्री, यूथ आइकन समेत कई पुरस्कारों से सम्मानित की जा चुकी हैं।

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