वामपंथियों के प्रोपेगंडा पोर्टल ‘द वायर’ की सीनियर संपादक आरफा खानम शेरवानी ने सोमवार (5 दिसंबर, 2022) को एक ट्वीट करते हुए कहा है कि उन्हें ‘मैसाचुसेट्स विश्वविद्यालय (UMass)’ बोस्टन द्वारा ‘इंडिया एट 75: द डाउनग्रेडिंग ऑफ इंडियाज डेमोक्रेसी एंड रोल ऑफ द प्रेस’ विषय पर व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया गया है।” आरफा ने अपने व्याख्यान का एक पोस्टर भी शेयर किया है। हालाँकि उन्होंने, अपने इस व्याख्यान और कार्यक्रम के बारे में अधिक जानकारी नहीं दी है।
आरफा ने ट्विटर पर जो पोस्टर शेयर किया था, उसे उन्होंने ऐसे क्रॉप किया था कि आयोजकों के नाम न दिखाई दें। हालाँकि, ऑपइंडिया ने पोस्टर ढूँढ़ निकाला, जिसमें पता चला कि UMass बोस्टन के इतिहास विभाग द्वारा आयोजित किया गया यह कार्यक्रम चार संगठनों द्वारा प्रायोजित किया गया है। इसमें, एशियाई अध्ययन विभाग, राजनीति विज्ञान विभाग, बोस्टन दक्षिण एशिया गठबंधन और इंडियन अमेरिकन मुस्लिम काउंसिल के नाम शामिल हैं।
इंडियन अमेरिकन मुस्लिम काउंसिल (IAMC)
इंडियन अमेरिकन मुस्लिम काउंसिल एक कट्टरपंथी इस्लामवादी संगठन है। इस संगठन ने स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (SIMI) जैसे प्रतिबंधित आतंकवादी संगठनों के साथ कथित संबंध रखे हैं। साथ ही, भारत के खिलाफ लॉबिंग का इसका एक लंबा इतिहास रहा है। इंडियन अमेरिकन मुस्लिम काउंसिल (IAMC) “अमेरिका में भारतीय मुस्लिमों का सबसे बड़ा वकालत करने वाला संगठन” होने का दावा करता है और अक्सर शरिया अदालतों की वकालत करता है। यही नहीं, यह भारत के खिलाफ अफवाह फैलाने के लिए भी जाना जाता है।
डिसइन्फो लैब (DisInfo Lab) की एक रिपोर्ट ने आतंकी संगठन जमात-ए-इस्लामी के साथ इसके संबंधों का भी खुलासा किया है। इं’डियन अमेरिकन मुस्लिम काउंसिल’, यानी IAMC के संस्थापक शैक उबैद व इसके सदस्य अब्दुल मलिक मुजाहिद ने जमात-ए-इस्लामी और पाकिस्तान के लिए अमेरिकी मोर्चे इस्लामिक सर्कल ऑफ नॉर्थ अमेरिका (ICNA) का नेतृत्व किया है।
DisInfo Lab के अनुसार, इस्लामिक सर्कल ऑफ नॉर्थ अमेरिका यानी ICNA के लश्कर-ए-तैयबा जैसे पाकिस्तानी आतंकी संगठनों के साथ संबंध हैं। इंडियन अमेरिकन मुस्लिम काउंसिल (ICMA) का प्रमुख रशीद अहमद इस्लामिक मेडिकल एसोसिएशन ऑफ़ नॉर्थ अमेरिका (IMANA) का कार्यकारी निदेशक रह चुका है। वहीं, IMANA का संचालक जाहिद महमूद पाकिस्तानी नौसेना में अधिकारी था। यही नहीं, इंडियन अमेरिकन मुस्लिम काउंसिल (IAMC) को भारत में फर्जी खबरें फैलाते हुए भी पकड़ा गया था।
‘द वायर’ और फेक न्यूज
उल्लेखनीय है कि जिस वामपंथी पोर्टल ‘द वायर’ में आरफा खानम एक संपादक के रूप में काम करती हैं, उसी पोर्टल ने हाल ही में भाजपा के आईटी सेल प्रभारी अमित मालवीय को फेसबुक और इंस्टाग्राम की पैरेंट कंपनी मेटा से अधिक शक्तिशाली बताया था। यही नहीं, टेक फॉग नामक एक काल्पनिक एप को लेकर भी कई तरह के दावे किए थे। इन दावों के साथ कहा था कि यह सब भारतीय लोकतंत्र के लिए हानिकारक है।
हालाँकि, ‘द वायर’ के ये दोनों ही दावे निराधार और झूठे साबित हुए थे। इसके बाद, पोर्टल को भारी आलोचना का सामना करना पड़ा था और फिर द वायर ने इन दावों से जुड़ी रिपोर्ट्स वापस ले ली थी।
विश्वविद्यालय की वेबसाइट में नहीं है कार्यक्रम की जानकारी
ऑपइंडिया ने Umass बोस्टन में एशियाई अध्ययन विभाग, राजनीति विज्ञान विभाग, बोस्टन दक्षिण एशिया गठबंधन और इतिहास विभाग के फेसबुक पेज और इवेंट सेक्शन की जाँच की, जहाँ हमने पाया केवल इतिहास विभाग ने अपने फेसबुक पेज पर इस कार्यक्रम की घोषणा की है लेकिन विश्वविद्यालय की वेबसाइट पर इसकी जानकारी उपलब्ध नहीं थी। आमतौर पर, यदि विश्वविद्यालय द्वारा उचित अनुमति के साथ कोई कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है, तो वेबसाइट पर एक घोषणा की जाती है। लेकिन, यहाँ ऐसा कुछ भी नहीं था।
ऑपइंडिया ने Umass के इतिहास विभाग और उस व्यक्ति से संपर्क किया है, जिसकी जानकारी पोस्टर के उस हिस्से में थी जिसे आरफा ने क्रॉप कर दिया था। इस बारे में, अधिक जानकारी हम बाद में अपडेट करेंगे।
‘भारत के लोकतंत्र का पतन’: विदेशी संगठनों का प्रोपेगंडा
बीते कुछ वर्षों में, कुछ विदेशी संगठनों ने दावा किया है कि भारत की केंद्र सरकार के कारण देश में लोकतंत्र खतरे में है। इसी साल मार्च में V-Dem नामक संस्थान ने भारत की डेमोक्रेसी रेटिंग घटा दी थी। इससे पहले, पिछले साल फ्रीडम हाउस ने भी ऐसा ही किया था।
गौरतलब है कि ऐसे कई विदेशी संगठन हैं जो अन्य देशों के लिए अपने-अपने हिसाब से ग्रेड और रैंक जारी करते रहते हैं। ऐसे संगठनों को वित्तीय सहायता कहाँ से प्राप्त होती है – यह हमेशा ही सवालों के घेरे में रहा है। यही नहीं, इन संगठनों के क्रियाकलापों पर भी सवाल उठते रहे हैं। उदाहरण के लिए, स्वीडन स्थित V-Dem संस्थान ने हाल ही में शैक्षणिक स्वतंत्रता सूचकांक में भारत को अफगानिस्तान और पाकिस्तान से नीचे स्थान दिया था। इसके बाद, V-Dem की इस रिपोर्ट का जमकर मजाक उड़ाया गय था। V-Dem ने ही भारत को दुनिया के शीर्ष दस निरंकुश देशों में भी स्थान दिया है।
स्वीडिश इंस्टीट्यूट के शोध के अनुसार, V-Dem के लिबरल डेमोक्रेसी इंडेक्स (LDI) पर भारत 40% से 50% देशों में सबसे नीचे है। शोध के अनुसार, 15 देश लोकतंत्रीकरण की एक नई लहर देख रहे हैं। वहीं, 32 देश निरंकुशता का अनुभव कर रहे हैं। पिछले साल, संस्थान ने भारत को “चुनावी निरंकुशता” के रूप में दिखाया था।
V-Dem संस्थान और डेमोक्रेटिक रिपोर्ट
V-Dem संस्थान की स्थापना साल 2014 में एक स्वतंत्र शोध संगठन के रूप में प्रोफेसर स्टाफन आई. लिंडबर्ग द्वारा की गई थी। यह संस्थान दावा करता है कि उसके पास सोचने और लोकतंत्र का आकलन करने का एक नया तरीका है। यह संस्थान विभिन्न प्रकार के रीसर्च करता है और अलग-अलग विषयों को लेकर किए गए शोध पर रिपोर्ट प्रकाशित करता है।
डेमोक्रेटिक रिपोर्ट V-Dem द्वारा प्रकाशित रिपोर्टों में से एक है। V-Dem लोकतंत्र के सैकड़ों अलग-अलग पहलुओं को जाँचने में सक्षम होने और इसके सभी पहलुओं को लेकर रिसर्च करने का दावा करता है।
कहाँ से मिलती है V-Dem को फंडिंग
वी-डेम संस्थान एक स्वतंत्र अनुसंधान संगठन होने का दावा करता है। इस संस्थान को कई अन्य संस्थानों और सरकारों द्वारा फंडिंग की जाती है। इसे फंड देने वालों में कनाडाई इंटरनेशनल डेवलपमेंट एजेंसी से लेकर विश्व बैंक ग्रुप तक का नाम शामिल है।
हैरानी की बात यह है कि जॉर्ज सोरोस के नेतृत्व वाली ओपन सोसाइटी फाउंडेशन भी V-Dem को फंड देती है। सोरोस एक स्व-घोषित परोपकारी और हंगेरियन-अमेरिकी निवेशक है, जो दुनिया भर में ‘राष्ट्रवादियों’ और रूढ़िवादी सरकारों से लड़ने की बात कह चुका है।
V-Dem संस्थान को जॉर्ज सोरोस द्वारा फंडिंग किए जाने से भारत के प्रति इसके इरादों के बारे में बहुत कुछ पता चलता है। सोरोस ने सार्वजनिक रूप से भारत के लिए अपनी नफरत व्यक्त की है और अक्सर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भारत सरकार की निंदा करता रहता है। भारत को मरते हुए लोकतंत्र के रूप में दिखाने वाले संगठन को सोरोस का समर्थन यह दिखाता है कि सब कुछ प्रोपेगैंडा के आधार पर चल रहा है।
ओपन सोसाइटी फाउंडेशन और जॉर्ज सोरोस
साल 1999 में, ओपन सोसाइटी फाउंडेशन ने भारतीय कॉलेजों में पढ़ाई और शोध करने के लिए छात्रवृत्ति और फेलोशिप प्रदान करके भारत में गतिविधियाँ शुरू की थीं। ओपन सोसायटी फाउंडेशन के माध्यम से, जॉर्ज सोरोस ने भारत विरोधी गतिविधियों के लिए हर संभव प्रयास किए हैं।
भारत में सक्रिय देश-विरोधी गुटों का खुले तौर पर समर्थन करके, वामपंथी अंतर्राष्ट्रीय संगठन ओपन सोसायटी फाउंडेशन ने सहायता के नाम देश में पाँव फैलाए। भारत में ओपन सोसायटी फाउंडेशन की स्थापना के बाद से जॉर्ज सोरोस ने विभिन्न प्रकार के एनजीओ और संगठनों को फंडिंग कर भारत की छवि धूमिल करने का प्रयास किया है। यही नहीं उसने, मीडिया से लेकर न्यायपालिका तक का उपयोग भी किया है।
फ्रीडम हाउस
अमेरिका स्थित मानवाधिकार संगठन फ्रीडम हाउस ने आजादी के सूचकांक में भारत को ‘आजाद’ से गिरा कर ‘आंशिक रूप से आजाद’ स्तर पर ला दिया है। संस्था का कहना है कि भारत में आम आदमी के अधिकारों का हनन हो रहा है और मूलभूत स्वतंत्रताओं को छीना जा रहा है। फ्रीडम हाउस ने दावा किया था कि भारत की स्थिति एक बहुवर्षीय पैटर्न के कारण अब आंशिक रूप से आजाद स्थिति में आ गई है। इसका कारण, हिंदू राष्ट्रवादी सरकार और उसके सहयोगियों द्वारा मुस्लिम आबादी को प्रभावित करने वाली हिंसा को बढ़ावा देना और मीडिया, शिक्षाविदों और प्रदर्शनकारियों पर की गई कार्रवाई है।
इसके अलावा, भारत की ‘डाउन ग्रेडिंग’ करने को लेकर जारी की गई रिपोर्ट में ‘आंशिक रूप से आजाद’ बताने का कारण नागरिक संशोधन कानून के बाद हुई हिंसा को बताया गया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि फरवरी 2020 में हुई सांप्रदायिक हिंसा में 50 से अधिक लोग मारे गए थे। दिलचस्प बात यह है कि इस रिपोर्ट में नागरिकता कानून को लेकर किसी प्रकार की सच्चाई नहीं बताई गई है। यही नहीं, इस रिपोर्ट में इस बात को छिपाया गया है कि दिल्ली में हुई सांप्रदायिक हिंसा सोची समझी साजिश का हिस्सा है।
फ्रीडम हाउस- अमेरिकी सरकार की फंडिंग पर आश्रित
फ्रीडम हाउस की वेबसाइट के अनुसार, “फ्रीडम हाउस के कार्यक्रम आजाद सरकार को बढ़ावा देने, मानवाधिकारों की रक्षा करने, नागरिक समाज को मजबूत करने तथा सूचना और विचारों को सुविधाजनक बनाने के प्रयासों में मानवाधिकारों और लोकतंत्र की वकालत करने वालों का समर्थन करते हैं।” इन शब्दों से फ्रीडम हाउस किसी भी उदारवादी वकालत ग्रुप की तरह लगता है जिसे अन्य देशों की घरेलू राजनीति में हस्तक्षेप करने के लिए भारी मात्रा में फंडिंग मिल रही है।
साल 2016 की फंडिंग डिटेल के अनुसार, फ्रीडम हाउस को कुल राजस्व का 86% अमेरिकी सरकार से मिला था। फ्रीडम हाउस दावा करता है कि उसकी ‘फ्रीडम इन द वर्ल्ड’ रिपोर्ट को कोई सरकारी फंडिंग नहीं मिलती है। वहीं, नेशनल एंडोमेंट फॉर डेमोक्रेसी पर एक नजर डालने से पता चलता है कि फ्रीडम हाउस का यह दावा पूरी तरह फर्जी है। उसकी वेबसाइट पर ही यह उल्लेख किया गया है कि नेशनल एंडोमेंट फॉर डेमोक्रेसी को अमेरिकी सरकार से बड़े पैमाने पर अनुदान मिलता होता है।
जॉर्ज सोरोस से संबंध
कुख्यात अरबपति जॉर्ज सोरोस द्वारा संचालित ‘ओपन सोसाइटी फाउंडेशन’ भी ‘फ्रीडम हाउस’ को अपना सहयोगी बताता है। ओपन सोसाइटी फ़ाउंडेशन की वेबसाइट पर लिखा है, “ओपन सोसाइटी इंस्टिट्यूट के कार्यों में ‘सोरोस फाउंडेशन नेटवर्क’ और अन्य दानदाताओं के साथ साझेदारी से महत्वपूर्ण योगदान मिलता है। उदाहरण के तौर पर कभी-कभी साझेदारी के रूप में स्पष्ट करार भी किया जाता है, जिसमें अन्य दानदाता खर्च का वहन करते हैं। कभी-कभी ऐसे करार अनौपचारिक रूप से भी होते हैं। इसके तहत कोई दानदाता ओपन सोसाइटी इंस्टिट्यूट (OSI) द्वारा शुरू किए गए किसी प्रोजेक्ट का समर्थन करता है, या फिर हम किसी डोनर द्वारा शुरू किए गए प्रोजेक्ट में सम्मिलित होते हैं। कई मामलों में अन्य दानदाता किसी खास प्रोजेक्ट के समर्थन में ‘सोरोस फाउंडेशन’ को सीधे योगदान देता है।”
इसलिए, यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि ‘फ्रीडम हाउस’ अमेरिका की एक शाखा है और इसका अमेरिकी विदेश विभाग के साथ इतना अधिक संबंध है कि उस फंडिंग के बिना फ्रीडम हाउस का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। इसके अलावा, फ्रीडम हाउस को अक्सर अमेरिकी विदेश नीति के एक अंग के रूप में देखा जाता। ‘फ्रीडम हाउस’ उन कामों को करता है जो अमेरिकी सरकार स्वयं स्पष्ट रूप से नहीं कर सकती।
इसके जॉर्ज सोरोस से भी संबंध हैं, जिसने खुले तौर पर राष्ट्रवादी सरकारों और नेताओं के खिलाफ युद्ध की घोषणा की थी। खासतौर से प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को अपना टारगेट बताया था। इसलिए, यह कहना गलत नहीं होगा कि फ्रीडम हाउस दुनिया भर की सरकारों को अस्थिर करने के लिए प्रचार-प्रसार का काम करता है।