Saturday, October 5, 2024
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BJP के संकटमोचक: बड़ी से बड़ी समस्याओं को यूँ काबू में कर लेते हैं मृदुभाषी फडणवीस

भारतीय राज्यों में कई ऐसे मुख्यमंत्री हुए हैं, जो अपनी प्रशासनिक क्षमता और जनता से सीधा संवाद के लिए जाने जाते हैं। आज के समय में जब कई मुख्यमंत्रियों और पूर्व मुख्यमंत्रियों पर भ्रष्टाचार सहित कई मामले चल रहे हैं, ऐसे में एक ऐसे सीएम भी हैं जो चुप-चाप, बिना पब्लिसिटी के अपना कार्य कर रहे हैं। यूँ तो राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय जनता पार्टी में कई बड़े नेता हैं, लेकिन एक चेहरा ऐसा भी है जो देश के सबसे अमीर राज्य (सर्वाधिक GDP) के शासन को संभाल कर अपनी कुशल प्रशासनिक क्षमता का परिचय दे रहा है।

ये हैं महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस। जब महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव हो रहे थे, तब भाजपा ने अपने मुख्यमंत्री उम्मीदवार का नाम घोषित नहीं किया था। लेकिन एक नारा ख़ूब चल रहा था जिसने महाराष्ट्र का मूड पहले ही बता दिया था। वो नारा था- ‘दिल्ली में नरेंद्र, मुंबई में देवेंद्र’। मृदुभाषी देवेंद्र फडणवीस अपने सहज व्यवहार से किसी का भी दिल जीत लेते हैं। राहुल गाँधी से एक महीने छोटे फडणवीस ने राजनीति की सीढ़ियाँ एक-एक कर चढ़ी है, अपने बलबूते।

कभी नागपुर के मेयर रहे फडणवीस भारतीय इतिहास में दूसरे सबसे युवा मेयर थे। मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने जिस तरह से अपनी क्षमता का परिचय दिया है, उस से सभी नेताओं को सीखना चाहिए। महाराष्ट्र एक ऐसा राज्य रहा है जहाँ ‘बाहरी बनाम स्थानीय’ के नाम पर तरह-तरह के बवाल फैलाए जाते रहे हैं। मुंबई आतंकवाद का निशाना रहा है। ऐसे में, फडणवीस ने बिना कोई सख्त कार्रवाई किए राज्य में हुए सभी बवालों, आन्दोलनों, विरोध प्रदर्शनों और हिंसा की अन्य वारदातों को चुटकी में काबू किया है।

फडणवीस के व्यवहार के आगे हारे अन्ना

अन्ना हजारे 2015 से लेकर अब तक महाराष्ट्र में कई बार अनशन का ऐलान कर चुके हैं। कभी भूमि अधिग्रहण बिल को लेकर तो कभी ‘वन रैंक वन पेंशन (OROP)’ को लेकर लेकिन जब-जब उनके अनशन की ख़बर आई, मुख्यमंत्री फडणवीस ने व्यक्तिगत रूप से हस्तक्षेप कर उनका अनशन पर पानी फेर दिया। अन्ना को हमेशा झुकना पड़ा और अपने अनशन की योजना को त्यागना पड़ा। हाल ही में अन्ना लोकपाल की माँग लेकर फिर से अनशन पर बैठे। शिवसेना ने मुख्यमंत्री फडणवीस से अनुरोध किया कि वह अन्ना की स्वास्थ्य की चिंता करें।

दिन-रात अपने एसी दफ़्तर में बैठ कर फाइलों पर हस्ताक्षर करने वाले और वाले मुख्यमंत्रियों की लिस्ट में फडणवीस का नाम नहीं आता है। न ही वे अपने राज्य को छोड़ कर दूसरे-तीसरे राज्यों में घूमते रहते हैं। उन्हें उनके राज्य में हो रही हलचल की ख़बर रहती है, तभी स्थिति की गंभीरता को भाँपते हुए वे पहुँच गए रालेगण सिद्धि। उनके साथ कुछ केंद्रीय एवं राज्यमंत्री भी थे। न सिर्फ उनके आश्वासन के बाद अन्ना ने सात दिनों का अपना अनशन तोड़ा, बल्कि यह भी कहा कि वो सरकार से पूरी तरह संतुष्ट हैं।

रालेगण सिद्धि पहुँच सीएम ने अन्ना का अनशन तुड़वाया।

अन्ना ने सीएम फडणवीस के साथ 6 घंटे तक गहन बैठक की। उनकी हर एक बात को ध्यान से सुना, उन्हें स्थितियों से अवगत कराया और उनकी माँगों पर विचार भी किया। मृदुभाषी फडणवीस ने अनशन स्थल पर पहुँच अपने हाथों से जूस पिला कर अन्ना का अनशन तुड़वाया।

इसकी तुलना अगर हम यूपीए काल से करें तो बाबा रामदेव के साथ हुआ वाक़या याद आ जाता है। जिस तरह से कॉन्ग्रेस सरकार ने आधी रात को बाबा और उनके अनुयायियों को प्रताड़ित किया, उन्हें गिरफ़्तार किया, मारा-पीटा। इसी तरह अन्ना के अनशन को भी 2011 में कुचलने की कोशिश की। अन्ना को जेल में डाल दिया गया। लेकिन फडणवीस यूपीए काल के बड़े-बड़े मंत्रियों से कहीं ज़्यादा क़ाबिल हैं। उन्हें अन्ना को वश में करने का तरीका पता है। इसके लिए बल और छल नहीं, अच्छे व्यवहार और कुशल क्षमता की ज़रूरत होती है।

मराठा आंदोलन को सरलता से नियंत्रित किया

जुलाई 2018 में जब मराठा आंदोलन ने ज़ोर पकड़ा तब महाराष्ट्र के कई इलाक़ों में जबरदस्त हिंसा भड़क गई। ये आंदोलन हाथ से बहार जा सकता था, जैसा पहले भी कई बार हो चुका है। लेकिन, समय रहते फडणवीस ने महारष्ट्र स्टेट बैकवर्ड क्लास आयोग की बैठक बुलाई और आरक्षण संबंधी माँगों पर विचार-विमर्श किया। एक स्पेशल पैनल की रिपोर्ट के बाद सीएम ने कुछ शर्तों के साथ शिक्षा एवं नौकरियों में मराठों के लिए आरक्षण की घोषणा कर पूरे राज्य का दिल जीत लिया।

मराठा आरक्षण आंदोलन काफ़ी व्यापक था

इसके बाद एससी, एसटी कोटे के मुद्दे को उठा कर उन्हें घेरने की कोशिश की गई लेकिन अपने आरक्षण वाले निर्णय में वर्तमान कोटा सिस्टम से छेड़छाड़ न करने की बात कह उन्होंने अपने विरोधियों को चारों खाने चित कर दिया। मुख्यमंत्री ने अहमदनगर की एक रैली में जैसे ही कहा– ‘आप 1 दिसंबर की तैयारी कीजिए’, जनता ख़ुशी से झूम उठी। फडणवीस का आरक्षण अलग था, क्योंकि 2014 में तत्कालीन मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने भी आरक्षण की घोषणा की थी, लेकिन फिर भी स्थिति जस की तस रही।

भले ही फडणवीस बाल ठाकरे, राज ठाकरे, शरद पवार, विलासराव देशमुख, प्रमोद महाजन या गोपीनाथ मुंडे जैसे दिग्गज महाराष्ट्रीय नेताओं के बराबर प्रसिद्धि नहीं रखते हों, लेकिन उनके हर एक महत्वपूर्ण निर्णय के बाद उनकी लोकप्रियता का ग्राफ बढ़ता ही चला जा रहा है।

हंगामेबाज़ गठबंधन साथी के साथ एक स्थिर सरकार

शिवसेना और उसके नेताओं का व्यवहार किसी से छुपा नहीं है। पार्टी कहने को तो महाराष्ट्र में सत्ताधारी गठबंधन का हिस्सा है, लेकिन कोई भी ऐसा दिन नहीं जाता है, जब उसके नेता भाजपा के ख़िलाफ़ बयानबाज़ी न करते हों। एक भी ऐसा सप्ताह नहीं जाता, जब सामना में मोदी और भाजपा के विरोध में लेख नहीं छापते हों। लेकिन फडणवीस के पास शिवसेना को भी क़ाबू में करने का मंत्र है, एक कुशल प्रशासक होने के साथ ही वह एक कुशल राजनीतिज्ञ भी हैं।

शिवसेना भी उनकी बढ़ती लोकप्रियता को समझती है। इसीलिए शिवसेना राष्ट्रीय स्तर पर तो मोदी के ख़िलाफ़ ख़ूब बोलती है, लेकिन महाराष्ट्र में फडणवीस पर सीधे हमले नहीं करती। मुख्यमंत्री देवेंद्र ने शिवसेना का ऐसा तोड़ ढूंढा, जिस से हर कोई उनकी बुद्धि का कायल हो जाए। जनवरी 2019 में हुई एक कैबिनेट बैठक में शिवसेना के संस्थापक स्वर्गीय बाल ठाकरे की याद में एक मेमोरियल बनाने का निर्णय लिया गया। इतना ही नहीं, उसके लिए तुरंत ₹100 करोड़ का बजट भी ज़ारी कर दिया गया।

बकल ठाकरे मेमोरियल की घोषणा कर देवेंद्र ने उद्धव को चित कर दिया

मुंबई के दादर स्थित शिवजी पार्क में जब मेमोरियल के लिए ‘गणेश पूजन’ और ‘भूमि पूजन’ हुआ, तब शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे और मुख्यमंत्री फडणवीस ने एक मंच से जनता का अभिवादन किया। फडणवीस के इस दाँव से चित शिवसेना के पास उनका समर्थन करने के अलावा और कोई चारा न बचा।

किसान आंदोलन को एक झटके में किया क़ाबू

महाराष्ट्र के किसान आंदोलन ने इतना बड़ा रूप ले लिया था कि राष्ट्रीय मीडिया ने भी उसे ख़ूब कवर किया। जब 35,000 गुस्साए किसान 200 किलोमीटर की पदयात्रा के बाद झंडा लेकर प्रदर्शन करते हुए मुंबई के आज़ाद मैदान पहुँचे, तब बड़े-बड़े पंडितों को भी लगा था कि हालात अब बेक़ाबू हो चुके हैं। लेकिन मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने बिना बल प्रयोग के इस आंदोलन को ऐसे क़ाबू में किया, जिस ने बड़े-बड़ों को अचंभित कर दिया।

सीएम ने बस भेज कर किसानों को चढ़ने का अनुरोध किया लेकिन वे नहीं माने। उसके बाद मुख्यमंत्री स्वयं किसानों के बीच गए और उन्होंने उनकी माँगों को सुना। 20,000 किसानों से मुलाक़ात करने के बाद फडणवीस ने उन्हें उनकी माँगो को पूरा करने का सिर्फ़ लिखित आश्वासन ही नहीं दिया, बल्कि इसके लिए समय-सीमा भी तय कर दी। क़र्ज़माफ़ी और सूखे के कारण रहत पैकेज की माँग कर रहे किसानों ने उनसे मिलने के बाद अपने प्रदर्शन को विराम दे दिया।

ऐसा नहीं था कि फडणवीस अचानक उनसे मिले और सबकुछ ठीक हो गया। दरअसल, फडणवीस की नज़र पहले से ही इस आंदोलन के जड़ पर थी। किसानों को अपने ही ख़िलाफ़ आंदोलन के लिए सरकारी बस मुहैया करना, एक मंत्री को पहले ही भेज कर स्थिति को नियंत्रित करना- बिना पब्लिसिटी के फडणवीस ने एक बार में एक क़दम चलते हुए सबकुछ सही कर दिया, बिना क़र्ज़माफ़ी की घोषणा किए।

कहा जा सकता है कि भाजपा में एक ऐसे नए संकटमोचक का उदय हुआ है, जो ढोल पीटना नहीं जानता, अपने गुणगानों का बखान करना नहीं जानता, तेज़ आवाज में नहीं बोलता, लेकिन फिर भी जनता उसकी भाषा समझती है और वो जनता की। वो राष्ट्रीय मीडिया में ज़्यादा नहीं आते और न ही उनके बयान चर्चा का विषय बनते हैं- उनका व्यक्तित्व ही उन्हें लोकप्रियता दिलाता है।

CBI मामले में SC के फैसले पर सवाल करना प्रशांत भूषण को पड़ा महँगा, कोर्ट ने माँगा जवाब

देश के वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण अक्सर कोर्ट के फैसलों पर सवाल खड़े करते रहते हैं। भूषण के इसी व्यवहार की वजह से कई बार कोर्ट के अंदर भी न्यायाधीशों ने डाँट कर उन्हें कम बोलने की हिदायत दी है। इसके अलावा कई मामलों में कोर्ट द्वारा उन्हें अवमानना नोटिस भी भेजा गया है।

एक बार फिर सर्वोच्च न्यायालय ने सीबीआई मामले में कोर्ट के फैसले पर टिप्पणी करने की वजह से प्रशांत भूषण को तीन हफ्ते में जवाब देने के लिए कहा है। दरअसल एम. नागेश्वर राव को सीबीआई के अंतरिम निदेशक बनाए जाने के मामले को सुप्रीम कोर्ट में चैलेंज दिया गया था।

इस मामले में कोर्ट ने राव की नियुक्ति को बरकरार रखते हुए कहा था कि नीतिगत मामले में राव कोई फैसला नहीं ले पाएँगे। सीबीआई के अंतरिम निदेशक मामले में कोर्ट के इस फैसले पर ट्वीट करके प्रशांत भूषण ने अपनी नराजगी जताई थी।

इसके बाद केंद्र सरकार और अटॉर्नी जनरल के के वेणुगोपाल ने प्रशांत भूषण के खिलाफ़ अवमानना की याचिका सर्वोच्च न्यायालय में दायर की थी। कोर्ट ने इसी याचिका पर सुनवाई करते हुए प्रशांत भूषण को तीन सप्ताह के अंदर मामले में जवाब देने के लिए कहा है।

उत्तराखंड बना सामान्य वर्ग के गरीब लोगों को नौकरी में आरक्षण देने वाला दूसरा राज्य

उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने बुधवार (फरवरी 06, 2019) को अपने ट्विटर हैंडल द्वारा ट्वीट कर के बताया कि उत्तराखंड राज्य में सामान्य श्रेणी के गरीबों के लिए शिक्षण संस्थानों व नौकरियों में 10% आरक्षण लागू कर दिया जा चुका है। इसी के साथ उत्तराखंड गुजरात राज्य के बाद इस आरक्षण को लागू करने वाला दूसरा राज्य बन गया है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को धन्यवाद व्यक्त करते हुए CM त्रिवेंद्र सिंह रावत ने अपने ट्वीट में लिखा है, “सामाजिक वर्गों के आरक्षण से छेड़छाड़ किए बिना उत्तराखंड में सामान्य गरीबों के लिए शिक्षण संस्थानों व नौकरियों में 10% आरक्षण लागू कर दिया गया है। उत्तराखंड ऐसे प्रावधान वाला दूसरा राज्य बना है। सभी वर्गों के गरीबों का ख्याल रखने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी का धन्यवाद।”

उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने पिछले माह ही प्रदेश में सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए 10% आरक्षण लागू करने के संदर्भ में निर्देश जारी कर दिए थे।

खुलासा: 2012 में तख़्तापलट की ख़बर को कॉन्ग्रेस के चार मंत्रियों ने गलत तरह से छपवाई

यूपीए-2 सरकार के चार मंत्रियों ने देश में आर्मी के खिलाफ़ गलत ख़बरों को छपवाने की साजिश रची थी। संडे गार्डियन नाम के अंग्रेजी अख़बार ने अपनी रिपोर्ट में इस बात का खुलासा किया है। यूपीए-2 सरकार के इन चार मंत्रियों ने सैन्य तख़्तापलट के इस झूठी ख़बर के जरिए देश की सेना को बदनाम करने की कोशिश की। रिपोर्ट में इन चार मंत्रियों का नाम नहीं बताया गया है।

अंग्रेजी अख़बार में एक रिपोर्ट के जरिए इस बात का खुलासा होने के बाद भाजपा कॉन्ग्रेस पार्टी पर हमलावर हो गई है। भाजपा नेताओं ने प्रेस कॉफ्रेंस के जरिए कॉन्ग्रेसी नेताओं पर सवाल खड़े किए हैं। यही नहीं भाजपा ने कॉन्ग्रेस अध्यक्ष से इस मामले में जवाब माँगने के साथ ही संसदीय कमिटी से इस मामले की जाँच की मांग की है।

जानकारी के लिए बता दें कि संडे गार्डियन ने अपने रिपोर्ट में इस बात का दावा किया है कि तख्तापलट की खबर अखबार में छपने के बाद खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने आइबी अधिकारियों को बुलाकर इस मामले में जानकारी माँगी थी।

इंडियन एक्सप्रेस की उस ख़बर का स्क्रीनशॉट

आईबी अधिकारी ने प्रधानमंत्री को आश्वस्त किया था कि भारतीय सेना द्वारा तख्तापलट जैसी कोई भी कोशिश नहीं की जा रही है। हलाँकि, रिपोर्ट में इस बात का भी जिक्र है कि प्रधानमंत्री इस खबर को छपने के बाद काफी दवाब में आ गए थे।

यूपीए सरकार के खिलाफ़ लोगों में गुस्सा को देखकर मनमोहन सिंह को लगा कि सरकार को बेदखल किया जा सकता है। इसी वजह से उन्होंने इस ख़बर को छपने के तुरंत बाद आईबी अधिकोरियों के साथ बैठक की थी।

भाजपा की तरफ़ से नरसिम्हा ने कहा, “कांग्रेस ने तख्तापलट की साजिश की खबरें प्लांट करवाई। भारत की सेना को जलील करने का षडयंत्र रचा गया। आईबी ने मनमोहन सिंह को बताया कि यह कोरी कल्पना है।”

सबरीमाला मंदिर मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट ने सुरक्षित रखा अपना फ़ैसला

सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश से जुड़े मामलों पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अपना फ़ैसला सुरक्षित रख लिया है। सबरीमाला मंदिर के संरक्षक त्रावणकोर देवासम बोर्ड (टीडीबी) ने कहा है कि अदालत का जो भी निर्णय होगा, उसका सम्मान किया जाएगा। केरल सरकार ने पुनर्विचार याचिकाओं का विरोध करते हुए अदालत में कहा कि इन याचिकाओं पर सुनवाई के लिए कोई आधार ही नहीं है।

सुनवाई के दौरान अपनी दलीलें देते हुए सबरीमाला मंदिर पक्ष के वकीलों ने मजबूती से अपनी बात रखी। सबरीमाला मंदिर के मुख्य पुजारी की तरफ से सीनियर काउंसल वी गिरी ने कहा कि कोई भी व्यक्ति जो अनुच्छेद 25 (2) (बी) के तहत पूजा करने का अधिकार रखता है, उसे देवता की प्रकृति के अनुरूप करना होगा। उन्होंने कहा- “महिलाओं को प्रवेश की अनुमति देने के मामले में स्थायी ब्रह्मचर्य चरित्र नष्ट हो जाता है। हर भक्त जो मंदिर जाता है, मंदिर की आवश्यक प्रथाओं पर सवाल नहीं उठा सकता है।”

वरिष्ठ अधिवक्ता शेखर नफाड़े ने अदालत से कहा- “यह आस्था का विषय है। जब तक कि एक आपराधिक कानून नहीं है जो एक विशेष धार्मिक प्रथा को प्रतिबंधित करता है (जैसे सती), अदालतें हस्तक्षेप नहीं कर सकती हैं।” उन्होंने आगे कहा- “अकेले समुदाय ही यह तय कर सकता है कि सदियों पुरानी मान्यता को बदला जाए या नहीं। कुछ एक्टिविस्ट्स को यह तय करने के लिए नहीं दिया जा सकता है। एक आवश्यक धार्मिक अभ्यास क्या है, यह तय करने का अधिकार उस विशेष समुदाय के सदस्यों को होना चाहिए।”

ज्ञात हो कि पूर्व मुख्य न्यायाधीश (CJI) दीपक मिश्रा की अध्यक्षता में पाँच सदस्यीय पीठ ने सबरीमाला मंदिर में महिलाओं को प्रवेश करने की इजाज़त दे दी थी। 4-1 के बहुमत वाले निर्णय में जस्टिस इंदु मल्होत्रा एकमात्र सदस्य थीं, जिन्होंने बहुमत के ख़िलाफ़ निर्णय (Dissenting Voice) दिया था। इसके बाद श्रद्धालुओं ने केरल की वामपंथी सरकार के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन किया, जिसके बाद हजारों श्रद्धालुओं को गिरफ़्तार किया गया था।

गोहत्या मामलों में भाजपा से अच्छा खेल रहे हैं कमलनाथ

गो-हत्या मामले में आरोपित नदीम, शकील और आजम पर रासुका लगाने वाले कमलनाथ मध्य प्रदेश में कॉन्ग्रेस के पहले मुख्यमंत्री बन चुके हैं। मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो इस तरह से मुख्यमंत्री कमलनाथ गो-हत्या के लिए भाजपा से ज्यादा संवेदनशील नज़र आ रहे हैं।

इंडियन एक्सप्रेस अख़बार की एक रिसर्च के अनुसार भाजपा के शासनकाल में गो हत्या के मामलों में वर्ष 2007 से 2016 के बीच शिवराज सिंह चौहान सरकार ने लगभग 22 लोगों पर NSA के तहत कार्रवाही की।

इस स्ट्राइक रेट पर अगर विस्तार से देखा जाए, तो भाजपा अपने इन 9 वर्षों के 108 महीनों में मात्र 22 लोगों के ख़िलाफ़ ही कार्रवाई कर पाई, जबकि कमलनाथ मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के मात्र 2 महीनों में ही 3 गो हत्यारों पर रासुका लगाकर जबरदस्त बढ़त लेकर चल रहे हैं।

यह दर्शाता है कि 15 वर्षों तक सत्ता में रही भाजपा सरकार गो-माता सम्बन्धी अपराधों में ज्यादा ध्यान नहीं दिया, वहीं गाय माता के प्रति मध्य प्रदेश में कॉन्ग्रेस के CM कमलनाथ भाजपा से ज्यादा संवेदनशील हैं और गो हत्या के मामलों पर बिलकुल भी नरमी बरतने के मूड में नहीं दिख रहे हैं।

गाय को ‘चुनावी माता’ बनाकर कॉन्ग्रेस ने मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव से पहले अपने घोषणापत्र में ग्राम पंचायतों में गौशाला बढ़ाने का वादा किया था। कॉन्ग्रेस पार्टी ने डंके की चोट पर गाय के पीछे-पीछे चलने का ऐलान कर दिया था और गौशाला बनाने के लिए अनुदान देने की बात भी कही है।

शायद कॉन्ग्रेस के चुनावी पंडितों की बुद्धि ये मानने को बाध्य हो चुकी है कि गाय मजबूरी नहीं बल्कि जरूरी है।

ज़मीनी स्तर पर किसानों के लिए मोदी काल में हुए बदलावों की गहन पड़ताल (भाग 1)

केंद्र सरकार किसानों के हित में किए गए कार्यों से जुड़े आँकड़ों को जारी करती आई है। हालाँकि, आँकड़े सिर्फ़ और सिर्फ़ काग़ज़ की शोभा बन कर रह जाते हैं, अगर धरातल पर उनका प्रभाव न दिखाई दे। किसी भी योजना या परियोजना के आँकड़े तब तक सफल नहीं माने जा सकते, जब तक उन्होंने उस व्यक्ति की ज़िन्दगी में बदलाव नहीं लाया हो, जिसके लिए उन्हें तैयार किया गया है। योजनाओं पर करोड़ों ख़र्च होते हैं, उनके क्रियान्वयन में छोटी-मोटी घूसखोरी से लेकर बड़े स्तर पर भ्रष्टाचार तक- तमाम तरह की दिक्कतें आती है। किसी योजना की सफलता को आँकने का पैमाना एक आम आदमी की नज़र से देखी जानी चाहिए।

यहाँ हम सरकारी योजनाओं, उनसे जुड़े आँकड़ों और ख़र्च की बात तो करेंगे ही, साथ ही एक आम किसान की ज़िंदगी में पिछले साढ़े चार वर्षों में क्या बदलाव आए हैं- इस पर भी चर्चा करेंगे। उसके लिए ज़रूरी है भारत के किसी सुदूर गाँव में जाना और वहाँ की स्थिति की पड़ताल करना। वहाँ के ऐसे किसानों से बात करना- जो सालों से खेती के कार्य में लगे हुए हैं और खेती के तमाम आय-व्यय और हिसाब-क़िताब से अच्छी तरह वाक़िफ़ हैं। हम सैंपल के तौर पर तीन किसानों के अनुभवों को आधार बनाएँगे:

  • एक बृहद खेती करने वाला बड़ा किसान
  • एक निर्धन और कम भूमि वाला किसान
  • एक कम अनुभव वाला युवा किसान

एक निर्धन किसान और सरकारी सहायता

बिहार के पूर्वी चम्पारण में एक गाँव है- राजेपुर नवादा। जिले के मुख्यालय से 30 किलोमीटर दूर इस गाँव में 2010 के पहले बिजली नहीं थी। गाँवों के पेड़-पौधों पर लटके बिजली के सघन तारों को देख कर कभी-कभार बच्चे उत्सुकतावश बुज़ुर्गों से इस बारे में सवाल पूछ लिया करते थे। जवाब में उन्हें बताया जाता था कि 70 के दशक का एक दौर था, जब यहाँ बिजली आती थी। अब नहीं आती। यहाँ हमने एक ऐसे किसान से बात की, जिनके पास बस डेढ़ कट्ठे की भूमि है। डेढ़ कट्ठा यानी कि एक बीघे का लगभग 13वाँ हिस्सा। इतनी जमीन में ख़ुद के खाने-पीने पर भी आफ़त आ जाए।

ज़मीन अपनी नहीं, पर अलाव तो अपना है: जटहू सहनी (बाएँ )

जटहू सहनी मल्लाह जाति से आते हैं, यानी कि पिछड़े समुदाय से हैं। 70 वर्षीय सहनी दूसरों की ज़मीन पर खेती कर के अपना गुजारा चलाते हैं। वो किसान हैं, मजदूरी नहीं करते बल्कि ज़्यादा भूमि वाले किसानों की कुछ जमीन ‘बटइया’ पर लेकर खेती करते हैं। बटइया का अर्थ हुआ कि उन्हें उन ज़मीन पर उपजे अनाज का एक निश्चित हिस्सा ज़मीन के मालिक को देना होता है। बिहार जैसे अन्य राज्यों के गाँवों में ये सिस्टम वर्षों से चला आ रहा है।

पूछने पर सहनी बताते हैं कि उन्हें आज से 7-8 वर्ष पहले तक किसी प्रकार की सरकारी सहायता नहीं मिलती थी। मुखिया जी से लेकर पंचायत सेवक तक- हर जगह मिन्नतें करने और प्रखंड दफ़्तर में ‘थोड़े पैसे ख़र्च करने’ से काम बन जाता था। उम्र ज़्यादा होने के कारण वो गाँव से बाहर नहीं जाते, लेकिन सरकारी महकमे के पास इसका भी निदान होता था। गाँव में ही बिचौलिए सक्रिय होते थे जो बैठे-बिठाए एक निश्चित ‘फीस’ लेकर ‘काम कराने’ की गारंटी देते थे। यह व्यापार इतने बड़े स्तर पर चलता था कि लोगों को ये तक नहीं पता होता था कि अगर इसकी शिक़ायत की भी जाए तो किससे?

जटहू सहनी के अनुसार, कई बार डीजल न मिलने के कारण उन्होंने पम्पिंग सेट में केरोसिन तेल तक डाल कर सिंचाई का काम चलाया था। आपको बता दें कि केरोसिन तेल (सहनी इसे मिट्टी तेल कहते हैं, गाँवो के अन्य लोगों की तरह) मशीन को ख़राब कर देता है और उसके इंजन को क्षति पहुँचाता है। “क्या करें, सब चलता था। 100 रुपए में जितना तेल आवेगा, उतना में केतना मटिया तेल मिल जावेगा। हमारा काम भी चल जाता था।”- सहनी कहते हैं। उनके अनुसार, अब गाँव-गाँव तक डीजल पेट्रोल की पहुँच और किसानों को सहज उपलब्धता ने उनका कार्य आसान कर दिया है

जब हमने उन्हें पूछा कि अगर सरकार साल में ₹6,000 देती है तो क्या उस से कुछ राहत मिलेगी? इस पर सहनी ने भोजपुरी में ज़वाब देते हुए कहा- “हमनी ला त जे मिले उहे बहुत बा, जहाँ एक्को रुपइया न बा उहाँ कुछ-एक भी मिल जाए त हमनी के कार चल जाए (अर्थ- हमें तो जो भी मिले वो चलेगा, क्योंकि जहाँ आज हम एक-एक पाई को मोहताज़ हैं, वहाँ एक-आध हज़ार का भी बहुत महत्व है।)”

उनके इस बयान से हमें यह एहसास हुआ कि दो हेक्टेयर की बात छोड़िए, जिनके पास इसका दसवाँ और बीसवाँ हिस्सा जोत भी नहीं है, उसके लिए ये योजना कितना लाभदायक है। दो हेक्टेयर को 6000 से भाग देने वाले लोगों को पता होना चाहिए कि यह योजना सिर्फ़ दो हेक्टेयर वालों के लिए नहीं है, बल्कि ‘दो हेक्टेयर तक’ वालों के लिए है- इसमें जटहू जैसे करोड़ों किसान आ जाते हैं और उनमे लाखों ऐसे हैं, जिसके पास न के बराबर ज़मीन हो। ऐसे कृषकों को सरकार की तरफ से अनुदान मिलना, उन्हें स्वावलम्बी बनाएगा और क़र्ज़ पर उनकी निर्भरता को कम करेगा।

जटहू सहनी से हमने और भी बातचीत की, लेकिन उन की व्यथा और उनके जीवन में हुए बदलावों को समझने से पहले ज़रूरी है कि हम सिंचाई को लेकर मोदी सरकार द्वारा किए गए कार्यों पर नज़र डाल लें। इसके बाद आपको यह समझने में आसानी होगी कि सरकारी योजनाओं का एक आम, निर्धन किसान के जीवन में क्या असर पड़ता है।

सिंचाई को लेकर बहुत कुछ कहते हैं आँकड़े

मोदी को विरासत में एक ऐसी कृषि अर्थव्यवस्था मिली थी, जिस में पैसे लगाने को कोई तैयार नहीं था। कृषि क्षेत्र निवेश की भारी कमी से जूझ रहा था। 2014 में देश के अधिकतर इलाकों में ऐसा भीषण सूखा पड़ा था, जिससे किसान तबाह हो गए थे। इसके अलावे बेमौसम बरसात ने किसानों के घाव पर नमक छिड़कने का काम किया था। ऐसे समय में कुछ ठोस फ़ैसलों की ज़रूरत थी और नरेंद्र मोदी सरकार ने ‘प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (PMKSY)’ लाकर किसानों को बहुत हद तक राहत दी।

सिंचाई क्षेत्र कवरेज ग्राफ़

हर खेत को पानी पहुँचाने के लक्ष्य के साथ शुरू हुई इस योजना ने नए कीर्तिमान रचे हैं। सितम्बर 2018 तक सिंचाई से संबंधित 93 प्रमुख प्रोजेक्ट्स के लिए सरकार ने ₹65,000 करोड़ से भी अधिक के फण्ड जारी किए। 75 प्रोजेक्ट्स को पूरा किया व अन्य पर काम चल रहा है

पानी के संकट से जूझते किसानों और कृषि क्षेत्र के लिए PMKSY एक वरदान की तरह साबित हुआ। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 2015 में इस योजना के बारे में बताते हुए कहा था कि सरकार जल संसाधन के संरक्षण एवं कुशल प्रबंधन के लिए जिला और गाँव स्तर पर योजनाएँ तैयार करेगी। सूखे से पीड़ित कृषि क्षेत्र को राहत देते हुए मोदी सरकार ने ₹50,000 करोड़ की फंडिंग के साथ सिंचाई के लिए तय बजट को दुगुना कर दिया। पानी के उचित संरक्षण और खेतों में पानी की उचित मात्रा में सप्लाई- सरकार ने एक तीर से दो निशाने साधे।

क्या एक निर्धन किसान तक पहुँची ये सहायता?

शाम का वक़्त हो गया है। जटहू सहनी अब ‘घूर’ (पुआल और सूखे गोबर से बना अलाव) लगाने की तैयारी में हैं। उनके पास इतनी ज़मीन नहीं है, बटइया वाली जमीन में ही उन्होंने एक अलग झोंपड़ी बनाई हुई है, जहाँ वो अलाव लगाते हैं। एक टोकरी पुआल, दो-चार सूखे गोबर के टुकड़े (चिपरी और गोइठा) और कुछ धान की सूखी भूसी से अलाव लगाने वाले जटहू गर्व से सीना चौड़ा कर बताते हैं कि ये घूर सुबह तक टिकेगा। इसके बाद वो अपनी गाय को दूहते हैं, जो एक समय में बस दो लीटर ही दूध देती है। बस दो लीटर इसीलिए, क्योंकि जिनके पास पैसे हैं, उन्होंने जर्सी और फ्रीजियन ब्रीड की गायें खरीद रखी है, जो इस से कई गुना ज़्यादा दूध देती है।

एक लीटर दूध सहनी के घर में खपत होती है क्योंकि उनके छोटे-छोटे पोते हैं। उनके तीनो बेटे पंजाब कमाने गए हुए हैं, जो कभी-कभार ही आते हैं। बच्चों की परवरिश की जिम्मेदारी भी यहाँ उनकी ही है। इसकी गाय और दूध पर लौटेंगे हम, लेकिन पहले सिंचाई पर इनकी राय की चर्चा कर लेते हैं। सहनी बताते हैं कि उन्होंने नया पम्पिंग सेट ख़रीदा है, जिस पर सरकार द्वारा ₹10,000 का अनुदान मिला है। छोटा पम्पिंग सेट है, लेकिन छोटी जोत के लिए काफ़ी है।

काफ़ी मिन्नतों के बाद जटहू ने हमें अपनी फोटो लेने दी।

अनुदान पाने के लिए इस बार सहनी को दफ़्तरों के चक्कर नहीं काटने पड़े और सबसे बड़ी बात कि उन्हें दलालों के चक्कर में भी नहीं पड़ना पड़ा। “अगर यही काम 5 वर्ष पूर्व हुआ होता तो शायद दलाल, बीडीओ, पंचायतसेवक और कृषि विभाग दफ़्तर- सबको घूस देना पड़ता।”

‘तो क्या इस बार घूस नहीं देना पड़ा?’ इस सवाल के जवाब में सहनी ने बताया कि रुपया सीधा उनके खाते में आया, जो उनके आधार से जुड़ा हुआ है। आधार को लेकर टीवी के एसी कमरों और पाँच सितारा पत्रकारों की चर्चा से सहनी जैसे निर्धन किसानों को कुछ लेना-देना नहीं है। जब हमने उनसे आधार को लेकर चल रहे विवाद में बताया और पूछा कि कुछ लोगों का मानना है कि अपना डेटा सरकार को नहीं देना चाहिए, उसका दुरूपयोग होता है- तो इस पर सहनी ने डपटते हुए पूछा “पइसा सीधा खाता में आवल दुरूपयोग कइसे होइ हो? (रुपयों का सीधे खाते में आना दुरूपयोग कैसे हुआ जी?)।”

वैसे सच में, इन विपन्न और भूमिहीन किसानों को डिज़ाइनर पत्रकार गिरोह के बीच चल रही चर्चा की कोई ख़बर नहीं होती। शायद इसीलिए, क्योंकि ये उस चर्चा से जुड़ा हुआ महसूस नहीं करते। लेकिन अगर वही चर्चा धान-गेहूँ, गाय-बैल और गाँव-समाज की बात की जाए, तो वो इस बहस में कूद पड़ते हैं और जम कर अपनी राय देते हैं। जटहू बताते हैं कि अब गाँव में बिजली है, ग्राम ज्योति योजना के तहत बिजली का ख़र्च भी कम आता है।

बात होते-होते जटहू शहर की बात करने लगते हैं। बताते हैं कि शहर में ज़्यादा बिजली बिल आता है, हमारा कम आता है। उन्हें इसका कारण नहीं पता, ग्राम ज्योति योजना के बारे में नहीं पता- उन्हें पता है तो बस वो, जो उन्हें मिल रहा है। बता दें कि दीनदयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना के अंतर्गत कृषि और गैर–कृषि फीडर सुविधाओं को अलग–अलग कर दिया गया है, जिस से किसानों को कम बिजली बिल देना होता है। वैसे सहनी को इस योजना से जुड़े मोबाइल ऐप की कोई जानकारी नहीं है और उन्हें इस बारे में कुछ नहीं पता।

जहाँ भी खेती-बारी की चर्चा हो- वहाँ जटहू (लाल गंजी में) ग़ौर से सुनते हैं

सरकारी सहायताओं से उपज पर क्या कुछ असर हुआ

सहनी को अपने खेतों से होने वाले उपज का आईडिया नहीं है। मुश्किल से 10 कट्ठा की खेती पर होने वाले ख़र्च को लेकर वो कोई हिसाब लगा नहीं पाते। बस यही बताते हैं कि किसान हमेशा घाटा में ही जाता है मिला जुला कर। लेकिन हाँ, घूसखोरी से राहत मिलने की बात ज़रूर करते हैं। पीएम-किसान योजना के बारे में सुन कर खुश होते हैं। उन्हें उम्मीद है कि सरकार किसान को रुपयों के साथ-साथ संसाधन भी उपलब्ध कराएगी, उन्हें खेती योग्य भूमि भी मिलेगी। इसको विशेष तौर पर बड़ी भूमि पर खेती करने वाले एक किसान ने बताया, जिसकी चर्चा हम अपने अगले लेख में करेंगे।

बहुत याद करने पर जटहू हिसाब लगाते हैं कि एक बीघा ज़मीन पर हज़ार रुपया तो सिर्फ़ गेहूँ की पहली दो जुताई में ही चली जाती है। बीज घर से लगता है। 2-3 हज़ार मजदूरी में जाते हैं। वैसे उनके अनुसार, खेती के मौसम में उनके बेटो-भतीजों के वापस आने से मज़दूरी कम लगती है, नहीं तो इस पर दोगुना-तिगुना ख़र्च आ सकता है।

बता दें कि केंद्र सरकार पशुपालन को लेकर भी किसानों को प्रोत्साहित करने में लगी हुई है। सहनी को पहले पता नहीं होता था कि कितनी जोत में, कौन सी खाद, कितनी मात्रा में डालनी है। अब गाँव-प्रखंड में अक्सर ऐसे सेमीनार होते रहते हैं, जहाँ बहुत सारी जानकारियाँ दी जाती है। वो बताते हैं कि कुछ दिनों पहले ही जिला मुख्यालय में एक कृषि मेला लगा था, जिसमे तरह-तरह के कृषि यन्त्र तो थे ही, साथ ही कई सारी जानकारियाँ भी दी गई। किसानों को धान-गेहूँ के अलावा मशरूम से सम्बंधित खेती की भी जानकारी दी गई। खाद की मात्रा के बारे में बताया गया।

जटहू सहनी के कहने पर जब हमने पड़ताल की तो पता चला कि उस अकेले कृषि मेले में 1600 किसानों को कृषि यंत्र के लिए स्वीकृति पत्र निर्गत किया गया था। यही नहीं, जो किसान इस मेले में कृषि यंत्र नहीं ख़रीद सके थे, उन्हें मार्केट या फिर अगले मेले में अपना मनपसंद यंत्र ख़रीदने को कहा गया था। सहनी बताते हैं कि अब किसान सलाहकारों को अच्छी ट्रेनिंग दी जाती है, जिस कारण वो उन जैसे अन्य किसानों का ज्ञानवर्धन करते हैं। पहले इन सलाहकारों को ख़ुद ज़्यादा कुछ पता नहीं होता था।

इस से पता चलता है कि सरकार द्वारा प्रचार-प्रसार पर ख़र्च किए जा रहे धन व्यर्थ नहीं जाते। किसी भी योजना का प्रचार-प्रसार ज़रूरी है। यह लोगों को जागरूक बनाता है। अभी हाल ही में राहुल गाँधी ने ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ के प्रचार को लेकर केंद्र सरकार पर निशाना साधा था। जबकि जमीनी हक़ीक़त यह कह रही है कि प्रचार-प्रसार से आम लोगों को फ़ायदा होता । वो सरकार द्वारा बताई गई बातों को अमल में लाते हैं, जो किसी भी योजना का उद्देश्य होता है।

पशुपालन को लेकर एक निर्धन किसान की क्या राय है?

हमने इस लेख में बताया है कि कैसे जटहू ने गाय पाल रखी है। जटहू सहनी बताते हैं कि दूध को बेच कर कुछ पैसे आ जाते हैं, जिस से गौपालन का तो ख़र्च निकल आता है। वो कहते हैं- “अगर सरकार हमें अच्छी ब्रीड की गाय भी दे दे, तो खेती का मजा भी दोगुना हो जाए। गाय के गोबर को हम ठण्ड के मौसम में जलाते हैं, कुछ जलावन के काम में आते हैं और बाकी को खेतों में खाद के रूप में प्रयोग करते हैं।” सहनी की यह माँग उन लोगों के मुँह पर करारा तमाचा है, जो गाय और गौपालन को लेकर सरकार पर निशाना साधते आ रहे हैं।

गौपालन को बढ़ावा देने के लिए सरकार कई योजनाएँ तैयार कर रही है। केंद्रीय कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह ने अपने ब्लॉग में लिखा है:

“मोदी सरकार द्वारा देश में पहली बार देशी गौपशु और भैंसपालन को बढ़ावा देने, उनके आनुवांशिक संसाधनों को वैज्ञानिक और समग्र रूप से संरक्षित करने तथा अद्यतन प्रौद्योगिकियों का उपयोग करते हुए भारतीय बोवाईनों की उत्‍पादकता में सतत् वृद्धि हेतु राष्‍ट्रीय गोकुल मिशन प्रारम्‍भ किया गया है। इसकी अहमियत के मद्देनज़र वर्ष 2018-19 के 250 करोड़ रुपए के बजट को बढ़ाकर 750 करोड़ रुपए कर दिया गया है। अपने इस प्रयास को आगे बढ़ाते हुए सरकार ने अब “राष्‍ट्रीय कामधेनु आयोग” के निर्माण का फैसला लिया है जो एक स्‍वतंत्र निकाय होगा।”

इसके अलावा जटहू ने कहा कि अब यूरिया, जिंक और पोटास ख़रीदने के लिए प्रखंड दफ़्तर की दौड़ नहीं लगानी पड़ती। गाँव में ही एक किसान को इसका लाइसेंस दिया गया है, जिनके यहाँ जाकर इन खादों को सरकारी दाम पर ख़रीदा जा सकता है। सारी चीजें गाँव में जैसे-जैसे उपलब्ध हो रही है, वैसे-वैसे सरकारी बाबुओं के चक्कर लगाने से भी छुटकारा मिलता जा रहा है। अनुदान और सब्सिडी भी अब सीधा आधार से जुड़े बैंक खाते में आता है, सो अलग।

दिन भर की थकान के बाद आराम के कुछ पल किसी के यहाँ बीत जाते हैं, पूरा गाँव अपना है

फसल नष्ट हो जाने पर मुआवजा

जैसा कि हम जानते हैं, किसानों के लिए उनके मेहनत से उगाए गए फ़सल का नष्ट हो जाना किसी बुरे सपने से कम नहीं है। किसानों की आत्महत्या के पीछे भी अधिकतर यही वज़ह होती है। प्रकृति पर किसी का ज़ोर नहीं होता। ओला-वृष्टि, अतिवृष्टि, सूखा या अन्य आपदाओं से नष्ट हुई फसलों के बदले किसानों को बहुत कम मुआवज़ा मिलता था। वो भी दलालों के बीच फँस कर रह जाता था।

जटहू इस बारे में अपने बुरे अनुभव को साझा करते हुए लगभग रो पड़ते हैं। एक बार उनके खेत में चकनाहा नदी (बूढी गंडक की उपनदी) का पानी घुस आया था, शायद 2008 के आसपास की बात थी। उनके डेढ़ कट्ठा खेत की बात ही छोड़िए, आसपास के बड़े किसानों के खेत भी डूब गए थे। कुछ ‘ऊँची पहुँच’ रखने वालों ने तो अनुदान का जुगाड़ कर लिया, लेकिन उनके जैसे कई ग़रीब किसान मुआवजे की बाट ही जोहते रह गए। सर्वे करने के लिए अधिकारीगण आए तो, लेकिन उन्होंने कहा कि जटहू की 50% फ़सल नष्ट नहीं हुई है, अतः उन्हें मुआवजा नहीं मिलेगा।

यही वो नियम था, जिस से अधिकतर किसान मार खा जाते थे। 50% का अर्थ हुआ उपज का आधा। अर्थात, अगर आपके उपज का आधा फ़सल पूरी तरह नष्ट नहीं हुई है, तो आपको एक रुपया भी मुआवज़ा नहीं मिलेगा। यह कहानी बिहार के ही एक सुदूर गाँव की नहीं है, बल्कि महाराष्ट्र से लेकर आंध्र तक- उस हर एक किसान की है, जिसे आत्महत्या करने के लिए मज़बूर होना पड़ता है।

नरेंद्र मोदी ने जनवरी 2018 में इस बारे में घोषणा करते हुए बताया कि सरकार अब किसानों के 50 प्रतिशत की जगह 33 प्रतिशत फ़सल नष्ट होने के बावजूद भी मुआवज़ा देगी। इसके अलावा सरकार ने मुआवज़े की रक़म को पहले के मुक़ाबले डेढ़ गुना बढ़ा दिया है।

अर्थात पहले किसानों की जब तक 50% फ़सल नष्ट नहीं हो जाती थी, तब तक उन्हें मुआवज़े से वंचित रखा जाता था। अब अगर किसानों की सिर्फ़ 33% फ़सल बर्बाद हो जाती है, तब भी उन्हें मुआवज़ा मिलेगा। अभी तक जटहू को इसकी ज़रूरत नहीं पड़ी है, क्योंकि इसके लागू होने के बाद से कोई आपदा नहीं आई है, लेकिन उनकी आपबीती सुन कर लगता है कि आगे अगर ऐसा कुछ होता भी है, तो वो उचित मुआवज़ा के हक़दार जरूर बनेंगे।

वैसे जटहू सहनी जैसे निर्धन किसान अब भी परेशानियों से जूझ रहे हैं। उनके पास कोई पत्रकार नहीं जाते। वो टीवी चर्चा और पाँच सितारा पत्रकारों की बहस का विषय नहीं बनते। शायद यही कारण है कि उन तक सरकारी सुविधाएँ पहुँचते-पहुँचते इतनी देर हो गई। हमारा निवेदन है सम्पूर्ण मेन स्ट्रीम मीडिया से- कृपया आप अपने कवरेज में ऐसे किसानों से बात करें, इसे राष्ट्रीय स्तर पर बहस का मुद्दा बनाएँ और तब सरकार को ध्यान दिलाएँ कि अब तक क्या हुआ है, उसका कितना हिस्सा इन किसानों तक पहुँच रहा है, और क्या किया जाना बाकी है।

इस श्रृंखला में आगे बढ़ते हुए अपने अगले लेख में हम एक अनुभवी और बड़े स्तर पर खेती करने वाले किसान की बात करेंगे। उसके बाद हम बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर स्थित एक गाँव के एक युवा किसान से भी मिलवाएँगे जो अपनी पढ़ाई के साथ-साथ कृषि कार्य भी बख़ूबी संभालते हैं। साथ ही, अन्य सरकारी योजनाओं की बात करेंगे, जिनकी चर्चा हम यहाँ नहीं कर पाए। तो इंतज़ार कीजिये- हमारे अगले लेख का।

अंत में जब हमने जटहू से उनके राय-विचार प्रकाशित करने की इजाज़त माँगी, तो हँस कर उन्होंने कहा- “ए से हमरा सरकार एगो जर्सी गाई दे दी का? (क्या आपकी रिपोर्ट पब्लिश होने से मुझे सरकार की तरफ से एक जर्मन ब्रीड की गाय मिलेगी?)”। इसके बाद वो फिर अपने काम में लग जाते हैं, खेती में, पशुओं में, घर-बार में।

ISRO ने GSAT-31 लॉन्च कर रचा इतिहास, पिछले साल किए जा चुके हैं कई सफल परीक्षण

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन इसरो ने बुधवार को सफलता पूर्वक जीसैट-31 उपग्रह को लाँच किया। इसरो ने यूरोपीय कंपनी एरियनस्पेस की प्रक्षेपण यान की मदद से इस उपग्रह को लाँच किया। बंगाल की खाड़ी और हिंद महासागर के तटीय क्षेत्र में संचार की सुविधा को बेहतर बनाने के लिए इस उपग्रह को लाँच किया गया है।

जीसैट-31 क्या है?

जीसैट-31 उपग्रह का वजन 2535 किग्रा है। यह देश की 40वाँ संचार उपग्रह है। यह उपग्रह अपने प्रक्षेपण के बाद 15 सालों तक तटीय क्षेत्र के में संचार की सुविधा को आसान बनाएगा। इस संचार सैटेलाइट के जरिए डीटीएच टीवी जैसी सेवाओं को रफ़्तार मिलेगा। इसरो के मुताबिक इस उपग्रह की मदद से संचार को आसान बनाने के लिए भू-स्थैतिक कक्षा में केयू बैंड ट्रांसपोंडर की क्षमता को मजबूत करेगा।

इससे पहले भी अंतरिक्ष में रचा जा चुका है इतिहास

जीसैट-31 उपग्रह से पहले 2018 में इसरो ने अंतरिक्ष के क्षेत्र में कई बड़ी सफलता अपने नाम किया है। इससे पहले भारत ने 10 दिसंबर 2018 को अग्नि 5 का सफल परीक्षण कर देश ने अंतरिक्ष के क्षेत्र में इतिहास रचा था। ओडिशा तट के पास डॉ एपीजे अब्दुल कलाम द्वीप से परमाणु हथियार ले जाने में सक्षम बैलिस्टिक मिसाइल अग्नि 5 का सफल प्रायोगिक परीक्षण किया था। यही नहीं PSLV C-40 के जरिए एक साथ 31 उपग्रह को भी लॉन्च किया गया था।

भारत ने पिछले ही साल इतिहास रचते हुए चेन्नई से 110 किमी दूर स्थित श्रीहरिकोटा अंतरिक्ष केंद्र से इस 100वें उपग्रह के साथ 30 अन्य उपग्रह यानी कुल 31 उपग्रह अंतरिक्ष में प्रक्षेपित किए थे। भारत सरकार ने 19 दिसंबर 2018 को ISRO ने अंतरिक्ष में संचार उपग्रह जीसैट-7ए (GSAT 7A) को लॉन्च किया गया था। यह सैटेलाइट श्रीहरिकोटा से लॉन्च की गई थी। यह उपग्रह (सैटेलाइट) वायुसेना की संचार सुविधा बढ़ाएगा।

भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी (ISRO) द्वारा बनाए ‘सबसे अधिक वजनी’ उपग्रह GSAT-11 को 5 दिसंबर 2018 को फ्रेंच गुआना के एरियानेस्पेस के एरियाने-5 रॉकेट से प्रक्षेपण किया गया था। इसरो के मुकाबिक इस उपग्रह का वजन करीब 5,845 किलोग्राम है।

गोहत्या मामले में MP में कॉन्ग्रेस सरकार आने के बाद नदीम, शकील और आजम पर रासुका

मध्य प्रदेश में कॉन्ग्रेस की सरकार आने के बाद पहली बार गोहत्या के मामले में 3 आरोपितों, नदीम, शकील और आजम पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (एनएसए) के तहत कार्रवाई की गई है। गिरफ्तार हुए आरोपितों पर कुछ दिन पहले खंडवा जिले में गोहत्या करने का आरोप है। कॉन्ग्रेस की सरकार बनने के बाद इस तरह की यह पहली कार्रवाई सामने आई है।

इस बारे में पुलिस अधीक्षक सिद्धार्थ बहुगुणा ने बताया कि गोहत्या के बाद खंडवा में तनाव फैल गया था, जिससे सांप्रदायिक सद्भाव बिगड़ने की स्थिति बन गई थी। पुलिस ने आरोपितों पर गो-हत्या निषेध अधिनियम की धारा 4, 6, 9 के तहत मामला दर्ज किया है। पुलिस अधीक्षक की सिफारिश पर जिला कलेक्टर ने रासुका (एनएसए) लगाने की मंजूरी दी, जो लम्बी अवधि के लिए हिरासत में रखने की अनुमति देता है।

एसपी बहुगुणा के अनुसार, “एनएसए के तहत मंजूरी मिलने के बाद, गोहत्या के मामले में नदीम, शकील और आजम पर एनएसए की कार्रवाई की गई है। गिरफ्तार किए गए अपराधियों में नदीम आदतन अपराधी है, इसके पहले भी वह कई आपराधिक घटनाओं को अंजाम दे चुका है। वहीं, आरोपी शकील और आजम को पहली बार गिरफ्तार किया गया है।” गिरफ्तार आरोपितों में से नदीम और शकील सगे भाई हैं, जबकि तीसरा आरोपी खरखाली गाँव का ही रहने वाला है।

गोहत्या के बाद भाग निकले थे नदीम, शकील और आजम

खंडवा में मोघाट के खारकैली गाँव में कुछ दिन पहले तैयब नाम के व्यक्ति ने गाय चोरी होने की शिकायत पुलिस को की थी। इसके बाद जब पुलिस ने छानबीन की तो नर्सरी स्कूल के पीछे सुनसान इलाके में गो हत्या की बात सामने आई। पुलिस ने जब नदीम, शकील और आजम को पकड़ने की कोशिश की तो वो भाग निकले, लेकिन पुलिस ने बाद में उन्हें धर दबोचा।

गो हत्या की बात इलाके में आग की तरह फैली। मौके पर सैकड़ों की तादाद में 2 समुदाय के लोग जमा हो गए। हालाँकि, पुलिस के बीच बचाव के बाद मामला शांत हुआ। इसके बाद पुलिस ने नदीम, शकील और आजम को गिरफ्तार किया और अब उनके खिलाफ एनएसए के तहत कार्रवाई हो रही है।

‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ की फ़ाइल अटकाए रखने पर केजरीवाल सरकार को अदालत की फटकार

जेएनयू में राष्ट्र विरोधी नारेबाज़ी के मामले में ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ के सदस्यों के ख़िलाफ़ दायर की गई दिल्ली पुलिस की चार्जशीट पर होने वाली सुनवाई एक बार फिर 28 फ़रवरी तक के लिए टल गई है। इस दौरान पटियाला हाउस कोर्ट ने दिल्ली सरकार की लेट-लतीफ़ी पर  फटकार लगाते हुए अपनी नाराजगी जाहिर की है।

दिल्ली सरकार पिछले कुछ समय से दिल्ली पुलिस द्वारा दायर आरोप पत्र पर ज़रूरी सरकारी अनुमति नहीं दे रही थी। जिस पर कोर्ट ने फटकार लगाते हुए केजरीवाल सरकार को कहा कि वह फ़ाइल पर बैठ नहीं सकती है। अदालत ने कहा कि सरकार के कहने पर दिल्ली के अधिकारी अनिश्चितकाल तक फ़ाइल अटका कर नहीं रख सकते। कोर्ट ने दिल्ली पुलिस से कहा कि मुक़दमा चलाने के लिए संबंधित अधिकारियों से जल्द से जल्द मंजूरी देने को कहें।

अदालत ने कन्हैया कुमार एवं अन्य पर मुक़दमा चलाने के लिए दिल्ली पुलिस को मंजूरी हासिल करने के लिए 28 फ़रवरी तक का समय दिया है। इसके साथ ही अदालत ने दिल्ली सरकार से कहा है कि वो इस मुद्दे पर अपना रुख स्पष्ट करें।

कोर्ट में सुनवाई टलने के बाद जेएनयू नारेबाजी विवाद में कन्हैया कुमार और उनके साथियों के ख़िलाफ़ देशद्रोह का मामला चलेगा या नहीं इसे लेकर सस्पेंस लगातार बरकरार है। इसे लेकर अड़चने साफ नहीं हो सकी क्योंकि मामले की सुनवाई आज भी टल गई।

बता दें, दिल्ली पुलिस ने कुछ दिनों पहले कन्हैया कुमार और अन्य के खिलाफ अदालत में आरोप पत्र दायर किया था। दिल्ली पुलिस का कहना है कि कन्हैया कुमार ने जुलूस की अगुवाई की और जेएनयू परिसर में फ़रवरी 2016 में देश विरोधी नारे लगाए जाने का समर्थन किया था।

पुलिस ने विश्वविद्यालय के पूर्व छात्रों उमर खालिद तथा अनिर्बान भट्टाचार्य पर जेएनयू परिसर में संसद हमले के मुख्य साजिशकर्ता अफ़जल गुरु को फाँसी दिए जाने की बरसी 9 फरवरी 2016 को आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान भारत विरोधी नारे लगाने का आरोप भी लगाया है।

बता दें, देश विरोधी नारेबाज़ी मामले में अन्य आरोपितों में कन्हैया कुमार, उमर ख़ालिद के साथ आकिब हुसैन, मुजीब हुसैन, मुनीब हुसैन, उमर गुल, रईया रसूल, बशीर भट, बशरत को भी आरोपी बनाया गया है।