Monday, October 7, 2024
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जम्मू-कश्मीर से लखनऊ तक मातम मना रहे भारत के धर्मांतरित मुस्लिम, हिजबुल्लाह के आतंकी सरगना नसरल्लाह से इनका रिश्ता क्या?

इजरायल के हमले में मारे गए हिजबुल्लाह के आतंकी सरगना सैयद हसन नसरल्लाह की मौत के बाद, जम्मू-कश्मीर से लेकर लखनऊ तक भारतीय मुस्लिमों के बीच मातम का माहौल देखने को मिलता है, तब यह सवाल उठता है कि आखिर ये संबंध कैसा है?

भारत के मुस्लिम समुदाय का जिन मजहबी नारों से खासा लगाव है, उनमें से एक है- “तेरा मेरा रिश्ता क्या- ला इलाहा इल्लल्लाह”। चाहे वह कश्मीर के आतंकी हों या फिर CAA विरोध के नाम पर हिंसा करने वाले इस्लामी दंगाई, इस नारे को हर विरोध प्रदर्शन में सुना जा सकता है।

जामिया मिलिया इस्लामिया, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से लेकर सड़कों और गलियों में होने वाले मजहबी जलसों तक, यह नारा अक्सर सुनाई देता है। लेकिन जब इजरायल के हमले में मारे गए हिजबुल्लाह के आतंकी सरगना हसन नसरल्लाह की मौत के बाद, जम्मू-कश्मीर से लेकर लखनऊ तक भारतीय मुस्लिमों के बीच मातम का माहौल देखने को मिलता है, तब यह सवाल उठता है कि आखिर ये संबंध कैसा है? क्या ये रिश्तेदारी महज मजहबी है, या इसके पीछे कुछ और गहरी वजहें हैं?

वैसे, इजरायल के हमले में मारे गए आतंकी संगठन हिजबुल्लाह के सरगना सैयद हसन नसरल्लाह से ऐसी किसी ‘रिश्तेदारी’ का मुस्लिम दावा भी नहीं कर सकते। यदि ‘उम्माह’ से इसका वास्ता होता तो इस्लामिक वर्ल्ड में नसरल्लाह की मौत पर जश्न नहीं मनता। अरब देश हों या सीरिया… सुन्नी मुस्लिम इस मौत का खुलकर जश्न मना रहे हैं। यह बताता है कि फिरकों में बँटे इस्लाम में उम्माह की कुछ खास कूवत नहीं है।

यह दूसरी बात है कि भारत के धर्मांतरित मुस्लिम खुद को इस बेड़ी में जकड़ कर दुनिया के किसी भी हिस्से में हुई घटना को लेकर अपने ही देश में उपद्रव करते हैं। शायद इस उम्मीद में कि उन्हें इस्लामी जगत में ‘इज्जत’ नसीब हो। दोयम दर्जे के मुस्लिम वाले टैग से मुक्ति मिले। इन मुद्दों पर आगे हम विस्तार से आपको समझाएँगे…

‘उम्माह’ और उसकी असलियत

इस्लाम में ‘उम्माह’ का मतलब है- पूरी दुनिया के मुसलमान एक ‘रूहानी’ भाईचारे में जुड़े हुए हैं, और उन्हें एक-दूसरे की मदद करनी चाहिए। लेकिन जब नसरल्लाह की मौत पर अरब और सुन्नी मुस्लिम देशों ने खुलकर जश्न मनाया, तो उम्माह की यह अवधारणा भी सवालों के घेरे में आ गई। यदि वास्तव में उम्माह का कोई ठोस आधार होता, तो क्या इस्लामी जगत के कुछ हिस्से नसरल्लाह की मौत का स्वागत करते?

सुन्नी मुस्लिमों और शिया मुस्लिमों के बीच का यह मतभेद आज का नहीं है। सदियों से चले आ रहे इस संघर्ष ने इस्लाम के अंदर ही कई विभाजन पैदा कर दिए हैं। अरब देश, विशेषकर सुन्नी बहुल देश, नसरल्लाह की मौत को अपनी जीत मानते हैं।

इसके बावजूद, भारत के मुस्लिम समुदाय ने न सिर्फ इस्लामी उम्माह से जुड़ने की कोशिश की, बल्कि उन्होंने नसरल्लाह की मौत पर मातम भी मनाया। कश्मीर से लेकर लखनऊ तक, शिया समुदाय के लोग इमामबाड़ों में शोक मनाते देखे गए। लखनऊ में तो यह मातम तीन दिनों तक जारी रहा, जहाँ बड़ी संख्या में लोग जमा हुए और इमामबाड़ों में हुसैनियों की तरह आंसू बहाते रहे।

लखनऊ में तीन दिन का मातम

लखनऊ के शिया समुदाय के बीच नसरल्लाह की मौत पर मातम एक प्रतीकात्मक घटना थी। इमामबाड़े में तीन दिन तक चलने वाला यह मातम यह दर्शाता है कि भारतीय मुस्लिम समुदाय, विशेषकर शिया मुस्लिम, वैश्विक शिया नेताओं के साथ अपने संबंधों को कितनी गंभीरता से लेते हैं।

यहाँ एक दिलचस्प बात यह भी है कि नसरल्लाह की मौत के बाद इस्लामिक जगत के सुन्नी मुसलमानों ने उसकी मृत्यु पर खुशी जताई, जबकि भारतीय शिया मुस्लिमों ने इसे एक बड़ी क्षति के रूप में देखा। यह अंतरराष्ट्रीय इस्लामी राजनीति में भारतीय मुस्लिमों के स्थान को लेकर भी एक गंभीर प्रश्न खड़ा करता है।

‘इज्जत’ की तलाश और भारतीय मुस्लिम

भारतीय मुस्लिम, विशेषकर शिया समुदाय, सदियों से अपनी मजहबी और सांस्कृतिक पहचान को इस्लामी दुनिया के केंद्र से जोड़ने की कोशिश करते रहे हैं। लेकिन उन्हें अक्सर इस्लामी जगत में एक ‘दूसरे दर्जे’ का मुस्लिम माना जाता है। अरब के मुस्लिमों की नजर में भारतीय मुस्लिम चाहे कितनी भी मजहबी निष्ठा दिखा लें, उन्हें बराबरी का दर्जा नहीं दिया जाता।

लखनऊ के इमामबाड़े में तीन दिन का मातम भी इसी ‘इज्जत’ की तलाश का एक हिस्सा है। भारतीय मुस्लिम समुदाय अपनी मजहबी और सांस्कृतिक पहचान को वैश्विक इस्लामी पहचान से जोड़ने की कोशिश करता है। उन्हें लगता है कि अगर वे इस्लामी उम्माह का हिस्सा बनेंगे, तो उन्हें उस ‘दूसरे दर्जे’ के मुस्लिम होने के टैग से छुटकारा मिलेगा।

महबूबा मुफ्ती और राजनीतिक अवसरवाद

नसरल्लाह की मौत के बाद जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने अपने चुनाव प्रचार को रोक दिया। यह एक स्पष्ट संकेत था कि कैसे भारत के मुस्लिम नेता अंतरराष्ट्रीय इस्लामी मुद्दों को अपने राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल करते हैं। महबूबा मुफ्ती ने न सिर्फ नसरल्लाह को एक शहीद के रूप में पेश किया, बल्कि उन्होंने इस मौके को मुस्लिम समुदाय को साधने के लिए एक अवसर के रूप में भी देखा।

महबूबा मुफ्ती ही नहीं, बल्कि नेशनल कॉन्फ्रेंस पार्टी के श्रीनगर लोकसभा सीट से सांसद रुहुल्लाह मेहदी ने भी ऐसा ही कदम उठाया। मेहदी ने भी चुनाव प्रचार बंद करने की तुरंत ही घोषणा कर दी, जैसे ही नसरल्लाह के मारे जाने की सूचना सामने आई।

इन दोनों नेताओं का यह कदम बताता है कि भारत में राजनीतिक नेता किस तरह अंतरराष्ट्रीय इस्लामी घटनाओं को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करते हैं। कश्मीर में पहले से ही संवेदनशील माहौल था, और इस तरह की घटनाओं को उभारने से उन्हें अपनी राजनीतिक स्थिति को मजबूत करने का एक और मौका मिल गया।

वैसे, मामला सिर्फ यूपी, कश्मीर या अन्य मुस्लिम बहुल इलाकों तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि तमिल नाडु की राजधानी चेन्नई की एक मस्जिद तक में नसरल्लाह के पोस्टर लगा दिए गए और श्रद्धांजलि दी गई।

सीएए विरोध भी था महज बहाना

भारतीय मुस्लिमों का अपने देश में सड़कों पर उतरना कोई नई बात नहीं है। चाहे वह सीएए का मुद्दा हो या किसी भी वैश्विक इस्लामी घटना का, भारतीय मुस्लिम अक्सर बहुसंख्यक हिंदुओं के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के रूप में अपनी असंतुष्टि जताते हैं। सीएए, जो कि विशेष रूप से गैर-मुस्लिम शरणार्थियों के लिए था, को लेकर मुस्लिमों का गुस्सा दिखाता है कि कैसे उन्हें हर कानून या फैसले में अपने खिलाफ कुछ न कुछ नजर आता है।

यह विरोध केवल राजनीतिक या सामाजिक नहीं था, बल्कि मजहबी भावनाओं से भी जुड़ा हुआ था। सीएए के विरोध के दौरान जो नारे लगाए गए, उनमें ‘ला इलाहा इल्लल्लाह’ की ध्वनि भी सुनाई दी, जो दर्शाता है कि भारतीय मुस्लिम अपने विरोध को मजहबी रंग देने से भी पीछे नहीं हटते।

अंतरराष्ट्रीय मुद्दों को हथियार की तरह इस्तेमाल करते हैं भारतीय मुस्लिम

जब भारत के मुस्लिमों को अपने देश में कोई मुद्दा नहीं मिलता, तो वे अंतरराष्ट्रीय घटनाओं को उठाकर अपनी असंतुष्टि दिखाते हैं। चाहे वह इजरायल-फिलिस्तीन का विवाद हो, या फिर इराक, सीरिया या लेबनान में होने वाली घटनाएँ, भारतीय मुस्लिम इन मुद्दों को अपने विरोध प्रदर्शनों में शामिल कर लेते हैं।

लखनऊ की घटना इसका एक और उदाहरण है। नसरल्लाह की मौत पर लखनऊ के शिया समुदाय ने जो मातम मनाया, वह सिर्फ एक मजहबी कर्तव्य नहीं था, बल्कि यह भी दर्शाता है कि कैसे भारतीय मुस्लिम वैश्विक इस्लामी घटनाओं से जुड़े रहना चाहते हैं।

भारत के मुस्लिमों की बहुसंख्यक हिंदुओं पर हावी होने की मानसिकता

अब सवाल यह उठता है कि भारतीय मुस्लिमों का यह रवैया क्यों है कि वे हमेशा बहुसंख्यक हिंदुओं पर हावी होने की कोशिश करते हैं? क्या यह उनकी मजहबी शिक्षा का परिणाम है, जहाँ काफिरों पर विजय पाने की बात की जाती है? भारत में जहाँ हिंदू बहुसंख्यक हैं, मुस्लिम समुदाय हमेशा अपनी पहचान को मजबूत करने की कोशिश करता रहता है। यह सिर्फ मजहबी पहचान की बात नहीं है, बल्कि यह भी दिखाता है कि कैसे वे अपने मजहबी कर्तव्यों के नाम पर राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव बढ़ाना चाहते हैं।

भारत के मुसलमान खुद को इस्लाम में दोयम दर्जे का मानते हैं, लेकिन इसके बावजूद वे अपनी पहचान और इज्जत की तलाश में इस्लामी जगत के मुद्दों को अपने देश में उठाते रहते हैं। उन्हें बहाना चाहिए बहुसंख्यक हिंदुओं पर हावी होने का, उन्हें डराने का। चाहे सीएए का मुद्दा हो, फिलिस्तीन का या फिर लेबनान का – भारतीय मुस्लिम हमेशा यही संदेश देने की कोशिश करते हैं कि जब चाहें, तब वे सड़कों पर उतर सकते हैं, और हिंदुओं को दबोच सकते हैं।

ऐसे में यह सवाल हमेशा बना रहेगा कि भारतीय मुस्लिम कब तक इस तरह की मानसिकता को अपनाए रखेंगे। कब तक वे अंतरराष्ट्रीय इस्लामी मुद्दों को लेकर अपने ही देश में विरोध प्रदर्शन करेंगे, और कब तक वे बहुसंख्यक हिंदुओं पर हावी होने की कोशिश करेंगे? बाकी यह तो तय ही है कि इस्लामी उम्माह का हिस्सा बनकर भी भारतीय मुस्लिमों को इस्लामी दुनिया में बराबरी का दर्जा नहीं मिलने वाला। अरब देशों के सुन्नी मुस्लिम उन्हें हमेशा ही एक ‘दूसरे दर्जे’ का मुस्लिम मानते रहेंगे।

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श्रवण शुक्ल
श्रवण शुक्ल
Shravan Kumar Shukla (ePatrakaar) is a multimedia journalist with a strong affinity for digital media. With active involvement in journalism since 2010, Shravan Kumar Shukla has worked across various mediums including agencies, news channels, and print publications. Additionally, he also possesses knowledge of social media, which further enhances his ability to navigate the digital landscape. Ground reporting holds a special place in his heart, making it a preferred mode of work.

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