अगर राम को ठीक से समझ जाएँ तो भी जीवन की गुणवत्ता में आमूल परिवर्तन संभव है। बस एक सार्थक और आनंददायक जीवन जीने की इतनी ही मर्यादा है जिसके पालन की जरुरत है।
दलाल, हरामज़ादा, पूतना, दरिंदा, चोर, भड़वा, खूँखार उग्रवादी जैसे अनेक शब्दों का प्रयोग राजनीतिक बयानबाजी में धड़ल्ले से बढ़ता जा रहा है। कभी मोदी से उनकी मर्दानगी का सबूत माँगा जाता है, तो कभी उनकी बूढ़ी माँ को लेकर अभद्र टिप्पणियाँ की जाती हैं।
रैलियों में यह बोला जाएगा, बार-बार बोला जाएगा क्योंकि हाँ, भारत के नागरिकों को पहली बार महसूस हो रहा है कि पाकिस्तान या बाहरी आतंकी मनमर्ज़ी से हमला कर के भाग नहीं सकते। यह सरकार उनकी सीमाओं को लाँघ कर निपटाएगी, बार-बार।
विस्थापितों की अधिकांश जनसंख्या को शेख अब्दुल्ला ने रोक लिया और उन्हें यह भरोसा दिलाया कि उन्हें राज्य में सब कुछ दिया जाएगा। सब कुछ देने के नाम पर पश्चिमी पाकिस्तान से आए शरणार्थियों को 1954 में अनुच्छेद 35-A का संवैधानिक छल उपहार स्वरूप दिया गया।
केजरीवाल ने ये प्रतिक्रिया भाजपा के एक ट्वीट पर दी, जिसमें अमित शाह ने कहा कि वो देशभर में NRC लागू करेंगे और बौद्ध, हिन्दू और सिखों को छोड़कर देश से एक-एक घुसपैठिए को बाहर निकाल देंगे।
टीवी चैनलों के एंकर जो कर रहे हैं, क्या वो प्रोपेगेंडा नहीं है। हर रात चालीस मिनट तक सरकार की हर योजना को बेकार बताना भी प्रोपेगेंडा ही है। आखिर चुनाव आयोग इसके लेवल प्लेइंग फ़ील्ड का निर्धारण करेगा कैसे? क्या मीडिया संस्थानों के लिए कोई तय क़ायदा है जहाँ चुनाव आयोग सुनिश्चित कर सके कि इतने मिनट इस पार्टी की रैली, और इतने मिनट इस पार्टी की रैली कवर की जाएगी?
2017-18 में कन्हैया कुमार की आय 6,30,360 रुपए जबकि 2018-19 में उनकी आय 2,28,290 रुपए की रही। पिछले दो साल में बेरोजगारी के बावजूद 8 लाख रुपए से ज्यादा कमाने वाले कन्हैया अपने घर में एक गैस सिलिंडर तक नहीं खरीद कर दे पाते हैं अफसोस! श्रवण कुमार की धरती पर शायद ऐसे ही बेटों को 'कपूत' की संज्ञा दी जाती होगी।
पहले विवेक ओबरॉय अभिनीत मोदी फिल्म पर रोक लगवाने के बाद विपक्षी दलों को यह तर्क सूझा कि अगर फिल्म पर रोक लगवाई जा सकती है, तो फिर आदमी पर क्यों नहीं। इसके तुरंत बाद ही गिरोह सक्रिय हो उठा।
60 सालों तक राज करने वाली पार्टी की मजबूरी है कि वो सत्ता से दूर है, और यह दूरी रात-दिन बढ़ती जा रही है। सत्ता पाने की यही लालसा उससे नए-नए हथकंडे आजमाने का दुष्चक्र चलवाती है। लेकिन जब बड़े और नामी चेहरे भी इस धूर्तता का हिस्सा बनने लगते हैं तो अफ़सोस होता है।
अगर बिहार में सच में गुंडे बचे होते, और उनमें थोड़ा भी ज़मीर होता तो तुम्हें सड़क पर पटक कर, तुम्हारी बाँह पर वही गोद देते, जो अमिताभ के हाथ पर किसी ने गोदा था, "मेरा बाप चोर है।"