“…कमल के निशान पर जो वॉट (वोट) दबाओगे ना, वो वॉट तिवारी (भाजपा विधानसभा प्रत्याशी) को नहीं जाएगा, वो वोट नरेंद्र मोदी को मिलने वाला है… ये समझकर दबाना… मगर मुझे ‘हा हा’ कर रहे हो, ये बीस-पचीस हजार लोगों से तिवारी जीत जाएँगे क्या? जीतेंगे क्या?… अरे भाई, क्या ‘हा’ कह रहे हो? मैं भी बनिया हूँ… मुझे मालूम है नहीं जीतेंगे यार…”
यहाँ गृह मंत्री और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के बयान को शब्दशः लिखना ज़रूरी है, क्योंकि उनके झारखंड में चुनावी सभा के दिए गए बयान के संदर्भ से ही छेड़छाड़ कर पत्रकारिता का समुदाय विशेष फेक न्यूज़ फैलाने के अपने नए हथियार को धार देने में जुटा है। इस नए हथियार का नाम है ‘सही तथ्य की फेक न्यूज़’।
झूठे तथ्यों और झूठे नैरेटिव के फ़ैल हो जाने के बाद मीडिया गिरोह यह नया, परिष्कृत हथियार लेकर आया है- जिसमें न मुख्य तथ्य के साथ छेड़छाड़ होती है और न ही किसी तरह का नैरेटिव दिया जाता है। केवल उस तथ्य के आसपास का संदर्भ गोल कर दिया जाता है, तोड़-मरोड़ दिया जाता है, या फिर उस तथ्य की रिपोर्टिंग ऐसे अंदाज़ में की जाती है कि जो झूठ शब्दों में न आ पाए, वह टोन में आ जाए। अमित शाह के झारखंड की चुनावी रैली में दिए गए भाषण को लेकर ऐसी ही ‘सही तथ्य की फेक न्यूज़’ प्रचारित हो रही है- और इसे करने में अग्रणी है द टेलीग्राफ, और इसके वरिष्ठ संवाददाता अंकुर भारद्वाज।
जैसा कि उनके भाषण के ऊपर दिए गए शब्दों से साफ़ है, और ऊपर के वीडियो में भी देखा जा सकता है, अमित शाह ने यह बात एक रौ में जनता से संवाद करते हुए कही थी। लेकिन अलग-अलग मीडिया गिरोह इसे अलग-अलग तरीके से ‘स्पिन’ देने की कोशिश कर रहा है, वह भी फेक न्यूज़ का। कहीं कोई वॉट्सऍप फॉरवर्ड मिल रहा है जिसमें केवल “अरे भाई, मैं भी बनिया हूँ” चल रहा है, कहीं कोई अख़बार या पोर्टल लिख रहा है कि अमित शाह यह बात मंच पर बैठे कुछ ही लोगों से कहना चाहते थे और माइक बंद न होने से ‘गलती से’ यह सबको सुनने को मिल गया।
लेकिन अमित शाह के भाषण के वीडियो और उनके शब्दों से यह साफ है कि उन्होंने यह बात अपना भाषण सुन रहे लोगों को इंगित कर के ही कही थी। इस दौरान न ही वे मंच की ओर मुड़े और न ही माइक बंद करने की कोई कोशिश की। लेकिन टेलीग्राफ़ की रिपोर्ट में भी, और उसे साझा करते हुए उनके वरिष्ठ संवाददाता अंकुर भारद्वाज के ट्वीट में भी, माइक के बंद होने-न होने का ज़िक्र कर ऐसा जताने की कोशिश की गई है कि भूलवश अमित शाह ने खुले ,माइक पर यह बात कह दी।
अंकुर भरद्वाज के ट्वीट ने एक और झूठ फैलाया- कि अमित शाह ने यह बात मंच पर मुड़ कर कहने की कोशिश की थी। वीडियो देखने से यह साफ हो जाएगा कि उन्होंने यह बात नीचे बैठे श्रोताओं से ही कही थी। इतना छोटा झूठ फ़ैलाने का क्या लाभ?- यह सवाल जायज़ है। इसका जवाब यह है कि इसके ज़रिए ऐसा दिखाने की कोशिश की जा रही है कि अमित शाह किसी जातिवादी संदर्भ में अपनी जाति का ज़िक्र कर रहे थे, और इसे छिपाने की कोशिश कर रहे थे- जबकि सच्चाई इससे कोसों दूर है।
Amit Shah saw a thin crowd at his rally in Jharkhand. Turned to others on the dias and said: Aap mujhe bewakoof mat banao. Main bhi baniya hoon. Ye dus pandrah hazar logon se jeet lenge kya.
— Ankur Bhardwaj (@Bhayankur) November 29, 2019
The mic wasn’t switched off but. pic.twitter.com/KFQ9xBXXur
उन्होंने यह बात किसी जातिवादी संदर्भ में नहीं बल्कि कम भीड़ पर नाराज़गी जताने के लिए कही थी- और जिस लहजे में उन्होंने यह कहा था, वह भारत के आम जीवन में बहुत आम है। अमूमन हम में से हर कोई अपनी जाति को किसी न किसी गुण से जोड़ता है, और अगर किसी स्थिति में उसे लगता है कि उस गुण विशेष में कोई उससे इक्कीस बनने की कोशिश कर रहा है तो अपनी जाति का हवाला उस व्यक्ति को हम यह याद दिलाने के लिए देते हैं कि इस गुण विशेष में हमने भी कच्ची गोलियाँ नहीं खेलीं। अमित शाह के मामले में यह गुण (चुनावी) गणित और वह दूसरा व्यक्ति सामने बैठी जनता है।
अमित शाह ने जब पूछा, “ये बीस-पचीस हजार लोगों से तिवारी जीत जाएँगे क्या?” तो भीड़ में से कुछ लोग या तो उनका गुस्सा समझे नहीं, या समझ गए लेकिन और कोई जवाब नहीं सूझा तो “हाँ-हाँ” करने लगे। उसी पर खीझ कर उन्होंने याद दिलाया कि वे भी बनिया हैं (बनियों को आम अवधारणा में व्यवहारिक हिसाब किताब में कुशल माना जाता है), और इसलिए संगठन के लोग उन्हें मूर्ख न बनाएँ, गलत आश्वासन न दें। इस बात को उन्होंने पूरे आत्मविश्वास, पूरी ठसक के साथ कहा- क्योंकि पता था कि न ही वे किसी दूसरी जाति को नीचा दिखा रहे हैं और न ही जाति के आधार पर वोट माँग रहे हैं। लेकिन इसी बात को माइक के ज़िक्र के साथ जोड़कर मीडिया ने ऐसा दिखाने की कोशिश की है जैसे वे यह जानते हुए कि कुछ गलत बोल रहे हैं, इसीलिए यहाँ माइक का ज़िक्र ज़रूरी है।
और जाते-जाते एक और बात- अभी कुछ दिन पहले कहीं से गुज़रते हुए मैंने संयोगवश झगड़ रहे लोगों की बहस में से एक वाक्य सुना, “…साले, तुम्हें पता नहीं है- खटिक हैं हम, काट देंगे एक्कै बार में…”। मुझे किसी संदर्भ, किसी परिप्रेक्ष्य, दूसरे इंसान की जाति का अता-पता नहीं है, लेकिन इतना जानता हूँ कि पारम्परिक रूप से हिन्दुओं में सबसे अधिक कसाई और माँस-व्यापार करने वाली जाति खटिक दलितों में आती है- ऐसा माना जाता है कि तथाकथित ब्राह्मणवादियों द्वारा सबसे अधिक कथित तौर पर उत्पीड़ित जातियों में से एक है। और अगर उसका व्यक्ति भी आज के समय में वक्त और परिस्थिति के हिसाब से किसी जगह अपनी जाति का हवाला एक गुण के रूप में देता है, तो इसका मतलब साफ़ है कि जाति का हवाला भर देना हर जगह जातिवाद नहीं बन जाता।