स्वराज्य पोर्टल पर आज एक खबर छपी है जहाँ उन्होंने यह बताया है कि 2018 से अब तक बीस लोगों की हत्याएँ हुई हैं गौतस्करों और बीफ माफिया द्वारा। इनमें किसान हैं, पुलिस वाले हैं, साधु हैं। ये इक्का-दुक्का हुआ हो, ऐसा भी नहीं। साल भर में अगर बीस लोग मरे हों, और मारने वालों के नाम मोनू खान, अमजद, इश्तियाक, मुनव्वर, रामनिवास, वाहिद, इम्तियाज, अब्दुल जब्बार, नूर अली, जफरुद्दीन, सलमान, नदीम, शहजाद, नदीम, जब्बार, नजीम, जीशान, मुमताज हों, तो आपको हवा भी नहीं लगती।
ऐसा क्यों होता है? क्योंकि ऐसे में एक बहुप्रचलित लिबरल आउटरेज फ्लो चार्ट काम में आता है। आउटरेज के लिए कीबोर्ड क्रांतिकारी तैयार बैठे रहते हैं, लेकिन उनके कुछ कंडीशन्स होते हैं। मरने वाला अगर हिन्दू है, तो वो खोजते हैं कि दलित है या नहीं। अगर दलित है, और मारने वाला भी दलित या विशेष मजहब से है, तो उसकी चर्चा बेकार है। उस दलित की हत्या का कोई मतलब नहीं। अगर दलित को किसी हिन्दू ने मारा, जो तथाकथित सवर्ण जाति से ताल्लुक रखता है तो, चाहे वो विवाद आपसी हो, उसमें फर्जी का नैरेटिव घुसाया जाता है कि हत्या में जातिवादी भेदभाव है।
वैसे ही, हत्या का शिकार समुदाय विशेष का है, और मारने वाले भी उसी मजहब से हैं, तो वो खबर नहीं बनती। हाँ, भले ही वो चोर हो, दंगाई हो, लेकिन अगर किसी हिन्दू नाम वाले ने उसकी हत्या की है तो उस एक आदमी के अपराध का बोझ पूरे हिन्दू धर्म के सर आ जाता है। कठुआ वाला केस सबको याद है, गाजियाबाद से लेकर, अलीगढ़ या कोई और भी नाम ले लीजिए, कोई मौलवी किसी बच्ची का बलात्कार करता मिल जाएगा, लेकिन उन मामलों में भारत की बेटी और इस्लाम शर्मिंदा नहीं होते।
ये जो बीस लोग मरे हैं उसमें एक किसान अकबर अली भी है, उसकी हत्या कई चोरों ने मिल कर की, जिसमें से अधिकतर भागने में सफल रहे, पर नूर अली पकड़ लिया गया। लेकिन अकबर अली पहलू खान नहीं बन पाया क्योंकि उसका हत्यारा नूर अली था जो कि सुनने में लगता है कि मजहब विशेष से है। तो, लिबरल आउटरेज चार्ट के अनुसार इन बीस हत्याओं में एक भी ऐसी हत्या नहीं थी जिस पर लिबरलों का हो-हल्ला हो सके।
नैरेटिव की ताकत
लेकिन आपको यह सब नहीं बताया जाता है। फर्जी के आँकड़े इकट्ठा करने वाली वेबसाइट से हेटक्राइम का डेटा उठाया जाता है, जिसमें सुविधानुसार हिन्दुओं की हत्याओं को छोड़ दिया जाता है, और समुदाय विशेष की सामाजिक अपराध के कारण हुई हत्याओं को भी मजहबी बता कर दिखाया जाता है। उसके बाद चिट्ठी-पत्री तो चलती ही है, सोशल मीडिया से लेकर मेनस्ट्रीम मीडिया तक इतना जबरदस्त इंतजाम होता है कि देश का प्रधानमंत्री झुक जाता है फेक नैरेटिव के आगे और उसे जवाब देना पड़ता है।
लेकिन देश का प्रधानमंत्री गोपाल, नरेश, देवीलाल, नवल सिंह, रामकिशन, सुहागिन, गोलू, निशा, मोनी, मोलू, समा देवी, जोगेन्द्र समेत पुलिसकर्मी प्रकाश मेशराम, संजीव गुर्जर, मनोज मिश्रा, विपिन और सुमेर के साथ तीन साधुओं की मौत पर नहीं झुकता। देश का प्रधानमंत्री सोशल मीडिया के इस फेक नैरेटिव के प्रेशर में गौरक्षकों पर तो बोलता है, लेकिन उन्हीं गौरक्षकों की गौतस्करों द्वारा की गई हत्याओं पर नहीं बोलता।
ये है नैरेटिव की ताकत। यहाँ पर मात खाता है तथाकथित दक्षिणपंथी। क्या ये पैटर्न नहीं है? क्या गायों को चुरा कर काटने वाले, लगातार किसानों से लेकर पुलिस वालों को नहीं मार रहे? जब एक तबरेज की हत्या को ऐसे दिखाया जाता है कि हर हिन्दू दूसरे समुदाय के हर आदमी को घेर कर मारने को उतारू है तो इतनी हत्याओं के बाद भी इस पर बात कैसे नहीं होती?
लिंचिंग के लिए कानून बनाने की माँग उठती है, जब 49 तथाकथित सेलिब्रिटी लिखते हैं तब इधर के 61 की नींद खुलती है। ये तो प्रतिक्रिया है, क्योंकि आप तब जगे, जब सामने वाले ने कुछ किया। जबकि होना तो यह चाहिए कि प्रधानमंत्री से लेकर, सारे जवाबदेह नेताओं को हर ऐसी घटना पर पूछना चाहिए कि आखिर देश में गाय पालने वाला किसान बीफ माफिया से सुरक्षित क्यों नहीं है? आखिर बार-बार एक ही तरह की घटना क्यों हो रही है? आखिर क्या बात है कि मरने वाले लगभग हर बार हिन्दू होते हैं, और मारने वाले लगभग हर बार दूसरे खास मजहब के?
गौरक्षक अगर एक-दो बार कानून हाथ में ले कर गौतस्करों को पीट देता है तब खूब बवाल होता है लेकिन वही गौरक्षक गोपाल, गौतस्करों का पीछा करते हुए, उसे रोकने की कोशिश करता है, तो उसे गोली मारने वाला बीफ माफिया चर्चा से ही गायब हो जाता है। कितने लोग जानते हैं कि बीफ माफिया है भी इस देश में? लगातार एक ही तरह की घटनाएँ होती जा रही हैं, और हमें पता तक नहीं चलता।
इसके उलट, एक कथित चोर भीड़ से पिटता है, और चार दिन बाद कहीं मरता है, तो उस पर चर्चा होती है। जब चर्चा होती है तो दो खेमे बँट जाते हैं, जिसमें एक उसे लिंचिंग कहते हुए दोष हिन्दुओं पर डालता है, और दूसरा, ये कहने में व्यस्त हो जाता है कि ऐसा कहने वाले झूठ बोल रहे हैं। तबरेज ट्रेंड करने लगता है, हर आदमी उसकी बात करने लगता है। जबकि तबरेज कौन था? तबरेज कथित तौर पर चोरी करने आया हुआ एक लड़का था। आप देख लीजिए नैरेटिव की ताकत।
लेकिन गोपाल के केस में क्या हुआ? आपको पता भी नहीं है कि गोपाल कौन है। गोपाल तीन छोटी बच्चियों का पिता था। वो गायों को बचा रहा था, वही गाय जो हमारे और आपके लिए पूज्या है। वही गाय जिसे काटना असंवैधानिक और गैरकानूनी है। वही गाय जिस पर खूब बहस हुई है। वही गाय जो हिन्दुओं का प्रतीक है। हमारे और आपके आस्था के प्रतीक को बचाने के लिए एक हिन्दू अपनी जान दे देता है, लेकिन हम उसे अखलाख या तबरेज नहीं बना पाते।
अगर यही चलता रहा तो गोपाल को भी लोग भूल जाएँगे जैसे उन साधुओं को भूल गए जिन्हें सलमान, नदीम, शाहजाद, जब्बार और नजीम ने इसलिए हाथ और पाँव बाँध कर, गर्दन और शरीर पर लगातार छुरा भोंक कर मार दिया था क्योंकि उन्होंने पुलिस को गौतस्करी और गाय काटने वाले इन लोगों के बारे में सूचना दी थी। साधु तो अपना काम कर रहे थे। वो मार दिए गए। लेकिन हमें उनका नाम भी पता नहीं। हमें इस घटना की भी जानकारी नहीं।
हमने अपना काम नहीं किया
पुलिस तो अपना काम करेगी, लेकिन हमने अपना काम नहीं किया। हमने अपनी एकता कहाँ दिखाई किसी को! हमने इन धर्मरक्षकों को श्रद्धांजलि भी तो नहीं दी! वो तीन साधु जिस स्थिति में खाट से बँधे मिले, हर हिन्दू के भीतर रोष होना चाहिए, क्रोध आना चाहिए कि हमने अपने स्तर से कुछ नहीं किया। जबकि हमें, हर ऐसी खबर पर, अपने स्तर से लगातार लिखना और बोलना चाहिए।
अगर हम चुप रहेंगे तो हम ही पीड़ित भी होंगे, और हमें ही अपराधी भी बना दिया जाएगा। आप आस-पास देखिए कि माहौल क्या है। सौ करोड़ की हिन्दू आबादी वाले देश में जोमैटो ज्ञान देता है कि भोजन का कोई रिलीजन नहीं है लेकिन जब उससे यह सवाल किया जाता है कि एक ‘शांतिप्रिय’ को ‘हलाल किया मुर्गा’ क्यो नहीं मिला तो वो बताता है कि इस खराब अनुभव के लिए उन्हें खेद है। उस लड़के को रिलीजन पर ज्ञान देने की जगह जोमैटो यह भी कह सकता था कि डिलीवरी करने वाले कर्मचारी को उसके मजहब या धर्म के आधार पर बदलना कंपनी की नीतियों के खिलाफ है।
लेकिन जोमैटो ज्ञान देना चुनता है क्योंकि वो जानता है कि वो हिन्दुओं को ज्ञान दे कर मीडिया से ‘एपिक रिप्लाय’ और ‘किलर रिप्लाय’ वाले आर्टिकल लिखवा कर फ्री की पब्लिसिटी पा जाएगा। ऐसा ज्ञान वो मेनू में सूअर के मांस पर आपत्ति जताने वाले उपभोक्ता को नहीं दो सकता क्योंकि उसे पता है कि ऐसा ज्ञान किस रूप में बह जाता है।
याद होगा कि हनुमान के स्टिकर को देख कर ऊबर पर चढ़ने से एक लड़की ने इनकार कर दिया था और कहा था कि हनुमान की वह छवि मिलिटेंट हिन्दुवाद का परिचायक है! फिर लिबरलों को सामूहिक रूप से चरमसुख प्राप्त होने लगा था और वो इसी ऑर्गेज्मिक मोड में कई दिन रहे। तब ऊबर ने नहीं कहा था कि वो किसी ड्राइवर की कार पर लगे आस्था के चिह्नों का सम्मान करते हैं। तब इन दोमुँहे एक्टिविस्टों और चरमसुखवादियों ने ऐलान किया था कि वो ऐसी गाड़ियों पर नहीं चढ़ेंगे।
आवाज लगाना, आवाज उठाना, आवाज सुनाना सीखो
तब ऊबर चुप था, लेकिन जहाँ बात एक हिन्दू द्वारा की गई मूर्खतापूर्ण हरकत पर आई, ऊबर ईट्स (जो कि ऊबर की ही ईकाई है) ने यह ऐलान किया कि जोमैटो, हम तुम्हारे साथ हैं। आप जोमैटो का इस्तेमाल करें या न करें, ये आपकी मर्जी है लेकिन ऐसे दोगलेपन पर भी आप चुप रहते हैं, अपने स्तर से कुछ नहीं करते तो फिर क्यों न एमेजॉन पर भगवान गणेश की तस्वीर वाले फ्लोर मैट बिकेंगे?
कैराना में सपा का विधायक कहता है कि हिन्दुओं की दुकानों से सामान मत खरीदो, थोड़ी दूर जा करखास सम्प्रदाय की दुकानों से खरीदो, ये लोग खुद ही चले जाएँगे जब नुकसान होगा। तब हमने क्या किया? हमें तो याद भी नहीं है कि किसी ने ऐसा किया। वो भी उस कैराना में जहाँ से हिन्दुओं को भगा दिया गया है। मेरठ में भी हिन्दुओं की बहू-बेटियों को छेड़ा जाता रहा ताकि वो स्वयं ही ग्लानि से, अपनी इज्जत बचाने के लिए कहीं और चले जाएँ। हमने उस मामले में क्या किया?
सौ करोड़ की आबादी, भाजपा समर्थित राजग के 45% वोट शेयर में आखिर किसके वोटर कार्ड हैं? फिर सवाल कौन पूछेगा इन हुक्मरानों से जिन्हें हमने इतनी भारी संख्या में वोट दे कर जिताया और आलम यह है कि योगी आदित्यनाथ के राज्य में, जहाँ तीन चौथाई विधायक भाजपा के हैं, हिन्दुओं को अपने घरों पर लिखना पड़ रहा है कि यह मकान बिकाऊ है!
अपने वोट की कीमत पहचानो। अपनी इज्जत की रक्षा करो। अपने धर्म को धर्म समझो और उसकी रक्षा में कम से कम जो कर सकते हो वो करो। लिख सकते हो तो लिखो, बोल सकते हो तो बोलो, किसी का बहिष्कार कर सकते हो तो करो। क्योंकि सत्ता में सरकार बिठाने मात्र से धर्म सुरक्षित नहीं हो जाता। सरकार चुन लेने से विचारधारा या राष्ट्रवाद सुरक्षित नहीं हो जाता। सरकारों को लगातार याद दिलाना होता है कि उन्हें हमने चुना है, और उन्हें ही हमारा काम भी करना होगा। अगली बार हटाने का विकल्प मत रखिए, सीखिए लम्पट लेनिनवंशी माओनंदन कामपंथी वामभक्तों से कि एक सुर में सियारों की तरह ‘हुआँ-हुआँ’ करने से भी छप्पन इंच की छाती वाले शेर को जवाब देना पड़ जाता है।
आपने अपने शेर को पिछली बार कब आवाज थी? एग्जेक्टली!