जिस दौर में देश में एनजीओ को लेकर शोर उठ रहा था, करीब-करीब उसी वक्त विदेशों में भी इसे लेकर काफी हंगामा मचा था। अफ़सोस कि ये हंगामा बिलकुल भी वैसा नहीं था, जैसा भारत में उठ रहा था। ये हंगामा ऑक्सफेम नाम की एक संस्था को लेकर था। आरोप था कि इस संस्था के सीइओ ने पीड़ितों का इस्तेमाल देह-व्यापार के लिए किया है। इस काम के लिए संभवतः उन्होंने मदद के लिए भेजे गए पैसों का इस्तेमाल किया था। ऐसा भी माना जा रहा था कि जिनका इस्तेमाल देह-व्यापार में हुआ है, उनमें से कई कम उम्र की, करीब-करीब बच्चियाँ हैं।
ऐसे आरोपों का खुलासा होते ही जमकर बवाल हुआ। शुरुआत में ये रिपोर्ट टाइम्स में आई। बाद में गार्डियन और बीबीसी ने भी इस पर जमकर शोध किया। जैसा कि होना ही था, एनजीओ की तरह काम करने वाली संस्था ऑक्सफेम ने पहले तो इन आरोपों को सिरे से नकारने की कोशिशें कीं। वो ऐसा करने में कामयाब नहीं हो पाए और आख़िरकार पोल खुलने पर ऑक्सफेम जीबी से चीफ एग्जीक्यूटिव मार्क गोल्डरिंग और फिर डिप्टी चीफ एग्जीक्यूटिव पैनी लॉरेन्स को इस्तीफा देना पड़ा। इस विवाद के खुलने का नतीजा ये भी हुआ कि यूके से ऑक्सफेम को मिलने वाले काफी फण्ड रोक दिए गए।
भारत में भी उस दौर में फण्ड के रोके जाने का ही विवाद चल रहा था। ये अलग बात है कि जहाँ विदेशों में ये चर्चा थी कि ऐसी हरकतें करने वाले लोगों को आखिर फण्ड दिए ही क्यों जाएँ, वहीं भारत में फण्ड की जाँच को असहिष्णुता का जामा पहना दिया गया था। विदेशों में नीचता करने के लिए जहाँ संस्था माफ़ी माँग रही थी वहीं भारत में फण्ड रोके जाने को सवर्ण हिन्दू पुरुषों द्वारा किया जा रहा अत्याचार घोषित किया जा रहा था। भारत में उनके दलाल स्क्रीन काली करके ये बता रहे थे कि ये अँधेरा ही कल की तस्वीर है, और विदेशों में ओक्सफेम अपनी माफ़ी अख़बारों में छपवा रही थी।
भारतीय पत्रकारों की एक अभिजात्य, खानदानी, बिरादरी जिस पोस्ट ट्रुथ के दौर की बात करती है, उसी की तर्ज पर देखें तो हम भी असहिष्णुता के बाद के दौर में हैं। उनके पास लाल माइक है, उनके पास रेडियो चैनल हैं, उनके पास काले करने को पन्ने वाले अखबार भी हैं। दर्जनों सोशल मीडिया पेज और वेबसाइट के जरिए वो इन्टरनेट पर भी छाए हैं। सवाल है कि उनका जवाब देने के लिए एक साधारण आदमी के पास क्या है? और ये सवाल बहुत बड़ा सवाल इसलिए है क्योंकि भारत का संविधान लिखित तौर पर तो आम आदमी की आवाज को भी बड़े लोगों की बराबरी का हक़ देता है, लेकिन ये हक़ जमीन पर उतरा भी है या कागजों पर ही रह गया, ये कोई नहीं पूछता।
आलम ये है कि एक आम आदमी तो अपने हकों के लिए आखिरी दरवाजे की तरह अदालतों का दरवाजा खटखटाता है, मगर उसी के फैसले जब आते हैं तो आश्चर्यजनक रूप से एक फैसला “न्याय की जीत” और बिलकुल वैसा ही दूसरा फैसला “इन्साफ का क़त्ल” करार दिया जाता है। लोकतंत्र के चार खम्भे जब गिनवाए जाते हैं तो विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बाद पत्रकारिता का नंबर भी आता है। जब पहले तीन से जनता सवाल कर सकती है तो आखिर ऐसा क्यों है कि पत्रकारिता सीजर्स वाइफ की तरह सवालों से बिलकुल परे करार दी जाती है?
हाल के दौर में बड़े चैनलों के फर्जी खबरें छापने के कम से कम तीन बड़े मामले प्रकाश में आए हैं। पहला मामला तत्कालीन आरएसएस प्रमुख के बयान को तोड़ने-मरोड़ने का था, जिसमें बड़े चैनल सामने आए थे। कुछ दिन बाद बीबीसी ने “वॉर एंड पीस” को लेकर एक खबर चलाई, जिसका न्यायालय से कोई लेना देना नहीं था। अब सामने आ रहा है कि वायर, क्विंट जैसे तथाकथित रूप से समाचार चलाने वाले पोर्टल करीब साल भर पहले जो अमित शाह के पुत्र के बारे में छाप रहे थे, वो भी फर्जी था। मानहानि के दावे के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट से सिब्बल ने याचिका वापस ले ली है।
इस पूरे वाकये में एनडीटीवी और उससे जुड़े लोगों की याद इसलिए आती है क्योंकि एक चैनल एनडीटीवी गुड टाइम्स भी आता था। उसका किंगफ़िशर के साथ कुछ करार था और किंगफ़िशर कैलेंडर छापने वाले लोग आजकल फरार चल रहे हैं। बाकी मेरे ख़याल से अगर बचपन के खेल वाली घोघो रानी ये पूछे कि पानी कितना है? तो बताइयेगा कि चुल्लू भर ही था, इसलिए छेनू उसमें डूब के मर न सका!