Saturday, November 9, 2024
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शाहीन बाग वालों ने पोस्टर से मंशा बता दी: हिन्दू स्त्रियों पर है इनका ध्यान, पहले कन्वर्जन फिर…

सवाल नहीं पूछोगे तो फिर इस पोस्टर की आकृति तुम्हारे घरों में उतरेगी। वो अभी अपनी लड़कियों को बोरे में कैद कर रहे हैं, कल कहेंगे कि हिन्दुओं की लड़कियों को देख कर उनके भीतर की पाशविक वृत्तियाँ जगती हैं, तो हिन्दू लड़कियों को भी काले टेंट में रखो। लेकिन, हिन्दू चिल करेगा!

कुछ पोस्टर महज पोस्टर ही नहीं होते। वो विचारधारा का अंतिम पन्ना हो सकते हैं, किसी दबी हुई मंशा के सांकेतिक दस्तक का रूप ले सकते हैं, किसी खूनी मजहबी उन्माद के कुछ मंसूबों की कहानी हो सकते हैं। शाहीन बाग में यूँ तो नागरिकता संशोधन कानून (CAA) और अदृश्य राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (NRC) को ले कर विरोध हो रहा है, लेकिन जैसे-जैसे दिन बीत रहे हैं, इसका कुरूप चेहरा अपने बुर्के से बाहर आता दिख रहा है।

एक कपड़ा आपके कई ऐब छुपा लेता है। जैसे कि तिरंगा भी कुछ लोगों के लिए महज कपड़ा ही है। संविधान कुछ लोगों के लिए यूँ तो एक बेकार सी किताब है, और राष्ट्रगीत एक वैकल्पिक गीत, लेकिन समय आने पर ऐसे लोग तिरंगे को तिरंगा कहने लगते हैं, संविधान को संविधान मानने लगते हैं, और राष्ट्रगीत इतने जोर से गा देते हैं कि आम आदमी को अपनी राष्ट्रभक्ति पर संदेह होने लगता है।

ऐसे लोगों का एक समूह जिस इलाके में अभी शिफ्ट बदल कर, और कुछ अपुष्ट खबरों के अनुसार 5-700 रुपए ले कर, प्रदर्शन के नाम की नौटंकी कर रहा है वहाँ तिरंगा भी दिखता है, वंदे मातरम् भी और संविधान की कसमें ऐसे खाई जा रही हैं जैसे बाबा साहब ने पर्सनली इनको गिफ्ट किया था और कहा था कि इसकी हिफाजत करना, मैं तो चला।

इसी संविधान की कसमें खाने वाले यह भी लिख कर खड़े हैं कि हिन्दू भारत माँ को अपनी माता मानते हैं, और उस लिहाज से संविधान इनका बाप हुआ, तो वो उनकी माता को विधवा नहीं होने देंगे। लेकिन हिन्दू ये सब पढ़ कर चिल्ड आउट रहता है। हिन्दू अमूमन चिल्ड आउट ही रहता है। वो तब भी चुप था जब हनुमान के पोस्टर को ‘एंग्री हनुमान’ कह कर मिलिटेंट हिन्दुइज्म बोला गया, वो त्रिशूल पर कंडोम चढ़ाने पर भी चुप था, वो शिवलिंग को विद्रूपित करके पुरुष शिश्न की तस्वीर बना कर वहाँ त्रिपुंड लगाने पर भी चुप रहा। क्योंकि हिन्दुओं को सैकड़ों सालों से फर्क ही नहीं पड़ा।

तो, शाहीन बाग में संविधान की कसमें खाने वाली महिलाओं से सवाल यह है कि जब जामिया में तुम्हारे लाड़लों ने बसों में आग लगाई तब संविधान की किताब के पन्नों की याद नहीं आई या कहा था कि जा बेटा, माचिस की तीली बुझ सकती है, किताब के पन्ने में आग लगा कर बस पर फेंक देना? क्या हिजाब से बाहर की दुनिया को झाँकती इन सुर्खरू नवयौवनाओं के वालिदैन बता पाएँगे कि इनके भाई जब हाथों में पत्थर ले कर पुलिस पर हमला बोल रहे थे तब उन्हें संविधान के मूल अधिकारों वाले पन्ने पर ‘शांतिपूर्ण प्रदर्शन’ का ध्यान आया था या नहीं?

ये पोस्टर कैसे हैं, क्या मतलब है इनका

आज सबा नकवी ने एक ट्वीट साझा किया जिसमें एक पोस्टर दिखा। उस पोस्ट में तीन महिलाओं की आकृतियाँ हैं, जिनका पूरा शरीर काले टेंट में हैं और चेहरा हिजाब में। उस हिजाब से जो चेहरा दिख रहा है, उसके माथे पर बिंदी है। बिंदी हिन्दू स्त्रियों का शृंगार है। समुदाय विशेष की लड़कियाँ भी लगाती होंगी, लेकिन जब हम समुदाय विशेष की लड़की की परिकल्पना करते हैं तो वो या तो वो बिंदी लगाए नहीं दिखती।

जब आप एक राजनैतिक प्रदर्शन में, मजहबी नारेबाजी के साथ, आजादी के नारों की बात करते हुए, यह पोस्टर ले कर आते हैं, और नीचे हिन्दुओं के स्वास्तिक चिह्न के टुकड़े होते हैं, तो मूर्ख व्यक्ति भी समझ सकता है कि मंशा क्या है। साथ ही, ये पोस्टर अचानक से नहीं आया है। ये पोस्टर पहला नहीं है। ये तस्वीर पहली नहीं है। ध्यान रहे कि ऐसे ही एक प्रदर्शन में हिन्दुओं की माता आदिशक्ति देवी काली माँ की तस्वीर हिजाब में दिखाई गई थी।

हिन्दुओं ने उस पर भी कुछ नहीं बोला क्योंकि वो तस्वीर तो जीभ निकाले किसी भी लड़की की हो सकती है। वैसे ही क्यूट हिन्दू शाहीन बाग के भाड़े पर आने वाली प्रदर्शनकारी भीड़ के इस पोस्टर को ‘बिन्दी हिन्दुओं में ही थोड़े ही होता है’ कह कर नकार देगा। लेकिन यहाँ आप यह सोचिए कि यह असाधारण बात है, यह असामान्य है। विशेष मजहब वालों की लड़ाई शुरु से ही धरती को ख़िलाफ़त और शरिया के नीचे लाने की रही है। ये पोस्टर उसी के कई चरणों में से एक है।

बिन्दी वाली स्त्री हिजाब में क्यों है? क्योंकि ऐसे कट्टरपंथी इस्लाम की यही चाहत है कि हर स्त्री बुर्के में चली जाए, हर लड़की हिजाब में ही निकले, और धरती की हर स्त्री मुस्लिम हो जाए। कट्टरपंथियों के लिए यह बात कल्पनातीत है कि लड़कियाँ स्वच्छंद घूम सकती हैं, वो स्कर्ट पहन सकती हैं, लड़कों का हाथ पकड़ सकती हैं, बाजार और मॉलों में जा सकती हैं। आज शाहीन बाग की स्त्रियाँ भले ही कहने को प्रदर्शन कर रही हैं, लेकिन वो मन ही मन इस समय को धन्यवाद दे रही होंगी कि उनके शौहरों ने उन्हें सड़क पर बैठने की अनुमति तो दी!

ये जो बिन्दी वाली लड़की हिजाब में है, और वो जो माँ काली की तस्वीर हिजाब में थी, एक अनुमानित प्रगमन है। पहले टेस्टिंग हुई कि इस पर हो-हल्ला तो नहीं होगा। फिर देखा कि दस-पचास लोगों के अलावा किसी हिन्दू को फर्क नहीं पड़ा, तो उन्होंने अब आम हिन्दू स्त्री को हिजाब में दिखाया, बिन्दी के साथ। संदेश साफ है कि हिन्दुओं के प्रतीकों को तोड़ा जाएगा, उनकी स्त्रियों को कन्वर्ट करा दिया जाएगा, और फिर उन्हें इसी काले बोरे में निकलना होगा।

ये मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि कट्टरपंथी इस्लाम का यही इतिहास है। कश्मीर में मस्जिदों से जो आवाजें आ रही थीं, वो कह रही थीं कि हिन्दू मर्दों को छोड़ो, औरतों और बच्चियों को पकड़ो। उसके बाद उनका रेप हुआ, हरम में रखा गया और भगवान जाने उन्हें क्या-क्या सहना पड़ा। तो अभी ये पोस्टर में दिख रहा है, बाद में इसे जमीनी बनाने में ये क्या पीछे हट जाएँगे? पाकिस्तान और बंग्लादेश समेत, एक इस्लामी मुल्क दिखा दीजिए जहाँ अल्पसंख्यक अपने धर्म के हिसाब से स्वच्छंद जीवन जी रहे हैं। क्योंकि मजहबी उन्माद का राष्ट्रीयकरण गैरइस्लामी नागरिकों के लिए कोई जगह नहीं छोड़ता।

दूसरी बात, अगर CAA/NRC मजहब विशेष के लिए किसी मूर्खतापूर्ण तर्क के हिसाब से ही, उनके अस्तित्व की लड़ाई है, तो इसमें हिन्दू महिला को हिजाब पहनाने, उसे मुस्लिम बनाने की क़वायद किस तर्क से जायज है? तुम्हारे अस्तित्व की लड़ाई है अगर, तुम्हें लगता है कि तुम्हारे पास (सालों से पढ़ने-लिखने, सरकारी योजनाओं का लाभ लेने, यहीं पैदा होने के बावजूद) कागजात नहीं हैं, और ये तक कि तुम्हें तीन लोग भी नहीं जानते कि तुम यहाँ से हो, तो भी इसमें काली माता को हिजाब पहनाने, बिन्दी वाली हिन्दू स्त्री को बुरके में दिखाने के पीछे क्या मंशा है?

मंशा साफ है कि तुम्हारी लड़ाई कभी भी बराबरी की, तुष्टीकरण से परे, साथ रहने, साथ होने की नहीं है, तुम्हारी लड़ाई तो वही है जो तुम हर जगह काले झंडों पर मजहबी नारे लिख कर लड़ रहे हो। इसमें सिर्फ दाढ़ी बढ़ाए कठमुल्ले ही होते, तो भी समझ में आता, लेकिन यहाँ तो तुम्हारी अगली पौध, जिसमें मात्र एक प्रतिशत ही कॉलेज में पढ़ पा रही है, उसका भी दिमाग इतना बंद है कि इस विरोध में, जामिया में ऐसे पोस्टर घूम रहे हैं जिसमें ‘हिजाब पहन कर आओ हमारा समर्थन करने’ की बातें हैं। आखिर, एक कानून के विरोध में हो रहे प्रदर्शन में हिजाब ड्रेसकोड कैसे बन जाता है?

आखिर आठ साल की बच्चियाँ तुम्हारे अजेंडे के लिए कैसे नारा लगाने लगती है? और हम मान लें कि तुम संविधान बचाने के लिए दुधमुँही उम्मी हबीबा को 122 साल में सबसे ठंढी रात में उस सड़क पर बैठ जाती हो? हम ये मान लें कि तीन बुजुर्ग महिलाओं को NDTV पर तुम जब भेजती हो, तो उसके द्वारा अपनी नौ पुश्तें गिनवा कर, मोदी के नौ पुश्तों के नाम माँगने वाली आसमा को तुमने कोचिंग नहीं दी कि उसे क्या बोलना है? क्योंकि तीन सवाल के बाद वो सीधा इस बात पर आ गई कि गृहमंत्री जो कह रहा है वो झूठ है, वो जो कह रही है, वो सच है।

दोहरी चाल, दो चेहरे, लक्ष्य बस एक

बच्चियों और अशक्त बुजुर्गों को सड़क पर उतारना कुछ विचारधाराओं की पुरानी आदत रही है। क्योंकि इनके लिए स्त्रियों का ‘इस्तेमाल’ एक आम बात है। यूँ तो कबूतरखानों में काले बोरे में बंद रखने की चाह वाले, आईसिस जैसी जगहों पर रात को बलात्कार करने वाले आतंकी भी दिन में रेगिस्तान की गर्मी में इन लड़कियों को ‘बुर्के’ में रहने की नसीहत देते हैं कि ये मजहबी तौर पर गलत है, लेकिन जब लक्ष्य स्कोडा-ए-हिन्द हो, लक्ष्य हर सड़क पर नारा-ए-अदरक-लहसुन सुनने और लगाने का हो, तब तो ये अपनी औरतों को सड़क पर क्या, जलती बसों के सामने भी उतार देंगे। ये तो कॉलेट्रल डैमेज में गिना जाएगा, ये तो उस महान, अंतिम लक्ष्य की प्राप्ति में जन्नत की ओर जाने वाली बस का टिकट बन जाएगा।

इन दुधमुँही बच्ची का इस्तेमाल, उन आठ साल की लड़कियों से आज़ादी के नारे लगवाना, उन नवयुवतियों से कहना कि विरोध में आ रही हो तो हिजाब में आना, उन अधेड़ महिलाओं की शिफ्ट तय करना और उन बुजुर्गों को किसी खास चैनल के खास पत्रकार के आने पर तैयार रखना बताता है, कि एक चेहरा तुम्हें ऐसा दिखाना है कि इस राजनैतिक लड़ाई में तुम हाशिए पर ढकेले जा चुके हो, इस कानून के आने से भले ही भारतीय मुस्लिमों को कोई समस्या नहीं, लेकिन तुम ये बार-बार कहो कि तुम्हें भगाने के लिए साजिश रची जा रही है। ये चेहरा तुम्हारी मीडिया कवरेज के लिए है।

लेकिन नकाब के नीचे, बुर्के से झाँकती आँखों के सामने की जाली के ऊपर और नीचे के काले पर्दे के भीतर जो चेहरा है, वो चेहरा हिन्दुओं को या तो मुस्लिमबनाना है, या काट देना है। कमाल की बात यह है कि हो न हो ऐसे पोस्टर बनाने वालों के बाप-दादा इन्हीं कट्टरपंथी आतंकियों के डर से अपना धर्म त्याग कर इस मजहब में आ गए होंगे। लेकिन कई पीढ़ियाँ खप जाने पर अरजल को भी अशरफ होने का भ्रम होने लगता है, वो ललकार कर कहने लगता है कि ‘ज्यादा पुराने डॉक्यूमेंट्स मत माँग लेना मोदी, कहीं हम हिन्दुस्तान के मालिक न निकल आएँ’। पता चले कि ये मुगलों के सैनिकों के घोड़ों की लीद साफ करते हों, लेकिन घमंड सीधे हिन्दुस्तान के मालिक होने की है।

जब अरब देशों में कई मुस्लिमों की आपबीती सुनता हूँ कि पाकिस्तान आदि जगहों के मुस्लिमों को वो आज तक कन्वर्ट मान कर, असली मुस्लिम तक नहीं मानते, तब समझ में आता है कि इन कट्टरपंथियों को पैदल सिपाही के रूप में इस्तेमाल करना कितना आसान है। वो जो भारत में गजवा-ए-हिन्द के ख्वाब देखते हैं, वो वही मुस्लिम हैं जो अरबी मुस्लिमों की स्वीकार्यता ढूँढ रहे हैं कि ‘मालिक हमने भारत में तो मजहब के लिए इतने रेप किए, इतने मंदिर तोड़े, काफिरों को मारा, अब तो हमें अपने समकक्ष मान लो’, और अरबी मुस्लिम आज भी कहता है कि जाओ, सैनिकों के घोड़े की लीद साफ करो।

इसलिए, ये जद्दोजहद शाहीनबाग में अपने कई रचनात्मक रूपों में निकल कर आती हैं कि कब हिन्दू बौखलाए और दंगा हो जाए, और इन्हें ओवैसी जैसों के बयानों को प्रतिफलित करने का मौका मिले। लेकिन हिन्दू जो है, वो चिल्ड आउट है कि बनाने दो पोस्टर, क्या फर्क पड़ता है। जिस हिन्दू के सड़क पर नंगी तलवार ले कर मुस्लिमों को भारत से भगाने के पागल सपने वामपंथियों ने 2014 से देखना शुरु किया था, वो फलित ही नहीं हो पा रहा, तो अब ये लोग उन्हें उकसाने के लिए खुल्लमखुल्ला हरामखोरी पर उतर आए हैं।

मंदिरों को आज भी किसी व्हाट्सएप्प के अफवाह पर तोड़ दिया जाता है, काँवरियों पर पत्थरबाजी एक सालाना इस्लामी जलसा है, दुर्गापूजा के पंडालों पर ईंट-पत्थरों से हमला और मूर्तियों को खंडित करना, एक सामान्य घटना हो चुकी है, कहीं कोई इमरान दिल्ली में गाय काट कर दंगे करवाने की कोशिश करता दिखता है, समुदाय विशेष के गौतस्करों ने बस दो सालों में 19 हिन्दुओं की जान ले ली हैं… क्योंकि हिन्दू चिल्ड आउट है कि पत्थरबाजी ही तो है, क्या फर्क पड़ता है।

इसलिए ऐसे पोस्टर अब इतने आम हो गए हैं कि हिन्दूघृणा में ‘फक हिन्दुत्व’ से ले कर ‘ब्राह्मिनिकल टेररिज्म’ लिख दिया जाता है, ‘भगवा जलेगा’ लिख दिया जाता है, ‘स्वास्तिक’ के पवित्र चिह्न को तरह-तरह के कुत्सित तरीकों से दिखाया जाता है, मुस्लिम सड़कों पर ‘मुस्लिम अपना भाई है, बामन साला कसाई है’ लिख कर उतरता है, और किसी को फर्क नहीं पड़ता। उन नारों पर कोई दो लाइन बोलता कि जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्रों को ‘हिन्दुओं से आज़ादी’ क्यों चाहिए? अलीगढ़ के टुटपुँजिया लौंडे ‘हिन्दुत्व की कब्र खुदेगी’ कैसे कह लेते हैं?

वो इसलिए क्योंकि हमें न तो हिजाब पहने काली से फर्क पड़ा, न ही बिंदी वाली लड़की के पोस्टर से। उनका डेटा कलेक्शन जारी है कि कब-कब क्या-क्या करने पर हिन्दू कूल और चिल रहता है। वो पायलट प्रोजेक्ट कर रहे हैं कि हिन्दू सड़कों पर कब आएगा। हिन्दू है कि इतना सहिष्णु है कि वो पोस्टरों से प्रभावित ही नहीं होता।

लेकिन कब तक?

हिन्दुओं को यह सोचना चाहिए कि मुश्किल से हज़ार लोग, कैसे पूरे देश की हर मीडिया को शाहीनबाग पर बात करने को मजबूर कर देते हैं। हिन्दुओं को यह देखना चाहिए कि फीस वृद्धि के नाम पर जुटी भीड़ कैसे, हर बीतते सप्ताह पर CAB, फिर CAA, फिर NRC, फिर VC, फिर दिल्ली पुलिस की हिंसा, फिर संविधान की रक्षा और अंत में खुल्लमखुल्ला हिन्दुओं की स्त्रियों को इस्लामी बुर्के में कैद करने तक पहुँच जाती है?

क्या कदम नहीं गिन रहे तुम? क्या दिखता नहीं कि विरोधों के विषय बदल रहे हैं लेकिन बिरयानी और बर्गर खाती भीड़ किसी भी तरह से मीडिया की चर्चा में अपने आप को विक्टिम बना कर लहरिया लूटना चाहती है? क्या यह भी नहीं दिख रहा कि काली माँ को मुस्लिम बना दिया गया? वो तुम्हारी माँ है, वो हमारी माँ हैं, वो जगतजननी है… और उसे कोई भी मुस्लिम बना देता है!

तुम सवाल तो पूछो इन स्वयंभू लोगों से, मजहबी ठेकेदारों से, सोशल मीडिया पर विषवमन करते मुस्लिम नाम वालों से कि संविधान को बचाने की आड़ में मेरी माँ मुस्लिम कैसे हो जाती है? तुम पूछो तो सही कि हिन्दुओं की बिन्दी के नीचे छिन्न-भिन्न स्वास्तिक को मैं क्रूकेड क्रॉस कैसे मान लूँ? तुम पूछो तो सही कि जिन्होंने हिन्दुओं से आजादी के नारे लगाए हैं, जिन्होंने हिजाब में हिन्दुओं को उकेरा है, वो नाज़ी प्रतीक की आड़ में स्वास्तिक बना कर क्यों तोड़ रहे हैं?

नहीं पूछोगे तो फिर इस पोस्टर से निकली हुई आकृति तुम्हारे घरों में उतरेगी। वो अभी अपनी लड़कियों को बोरे में कैद कर रहे हैं, कल कहेंगे कि हिन्दुओं की लड़कियों को देख कर उनके भीतर की पाशविक वृत्तियाँ जगती हैं, तो हिन्दू लड़कियों को भी काले टेंट में रखो। लेकिन हिन्दू भाइयों, तुम चिल करो क्योंकि क्या फर्क पड़ता है, पोस्टर ही तो है।

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अजीत भारती
अजीत भारती
पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी

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