बहुत समय पहले की बात है। तब सोशल मीडिया नहीं हुआ करता था। लोग खेल-कूद कर समय बिताते थे। भारत तब खेल-कूद की चिड़िया हुआ करती थी। एक पर एक उस्ताद… लेकिन इन सब के एक सरदार भी थे। बड़े रौबदार।
सरदार के रौब के किस्से अभी भी मशहूर हैं… संसद से लेकर गलियों तक, किताब से लेकर यूनिवर्सिटी तक। जो मशहूर (भयंकर वाला) नहीं, वही आज हाजिर है।
रौबदार सरदार का किस्सा लेकिन गुम कैसे हुआ? इसी उत्तर की तलाश में लेखक ने भटकते हुए ‘भारत एक खोज’ कर डाला। भटकते-भटकते 1928 तक जाना पड़ा, तब जाकर पता चला तकिया-फेंक प्रतियोगिता के बारे में!
तकिया-फेंक प्रतियोगिता
तकिया-फेंक प्रतियोगिता! चौंक गए? लेकिन यही सत्य है। वो सत्य, जिसे वामपंथी इतिहासकारों ने छिपाया… या यूँ कह लें कि छिपवाया गया। त्याग देकर… देश की खातिर। किस्सा तो यह भी मशहूर है कि सरदार की नस्लों ने भी त्याग किया।
खैर। 26 मई 1928 का दिन था। ओलंपिक में भारत ने हॉकी का गोल्ड जीता था। इस इतिहास को सभी जानते हैं। नहीं जानते हैं तो गूगल वाली किताब में खोजने पर मिल ही जाएगा। तो फिर देश के लिए सरदार ने पहला गोल्ड मेडल जीता था, यह कहानी मोहन काका (कुछ लोग उन्हें बापू काका भी कहते हैं) ने क्यों सुनाई थी?
त्याग, बलिदान, देशहित… यही सब भाव थे, जिनके कारण मोहन काका चाहते थे कि यह कहानी इतिहास के पन्नों के बजाय किंवदंती बने। हुआ भी यही। NCERT से लेकर ICSE तक और उसके बाद कॉलेज-पीएचडी की पढ़ाई तक… यह स्वर्णिम इतिहास आपको ढूँढे नहीं मिलेगा। लेखक को कैसे मिला? नीदरलैंड जाकर। पुराने अखबार में।
हुआ यह कि मैं भारत के पहले ओलंपिक गोल्ड मतलब हॉकी गोल्ड के बारे में जानता था। यानी मोहन काका की कहानी अगर सच है तो इसके पहले के खेलों के इतिहास को खँगालना होगा – यह तर्क मेरे भीतर धँस गई। पहुँच गया एम्सटर्डम। यहीं भारत ने हॉकी का गोल्ड जीता था – 26 मई 1928 को। यानी जगह और दिनांक दोनों मिल गए थे, जहाँ से पीछे की ओर जाकर मुझे कहानी को इतिहास में बदलना था।
शाम में एक जगह झालमूढ़ी खा रहा था। खा क्या रहा था, समझिए सारी कायनात मिल कर खिला रहा था। क्यों? क्योंकि मैं दिल से चाह रहा था। वरना एम्सटर्डम में कोई झालमूढ़ी क्यों खाएगा भला? तो हुआ यूँ कि जिस पेपर के ठोंगे में झालमूढ़ी थी, वो पेपर बहुत ही पुराना था। एक फोटो भी उसमें। फोटो पर नजर अटक गई। हिंदुस्तानी कपड़ों वाला आदमी नीदरलैंड के स्थानीय भाषा वाले अखबार में क्यों? वो भी चेहरा जाना-पहचाना! मेरी खोज शायद सही रास्ते पर थी, मंजिल भी नजदीक थी, ऐसा जान पड़ा।
झालमूढ़ी वाले से पढ़वाया। टूटी-फूटी अंग्रेजी में उसने जो बताया, रौबदार सरदार से मेल खा गया… मोहन काका की कहानी अब मेरे सामने थी। 25 मई 1928 का अखबार था, मतलब खबर 24 मई की थी। भारत गोल्ड जीत चुका था… बिना हो-हल्ला के, यह आश्चर्य की बात थी।
त्याग-देशहित में प्रेस से छिपाई बात
भारत के लिए पहला गोल्ड जीतने वाले शख्स को पता था कि 2 दिन बाद टीम गेम हॉकी का फाइनल है। टीम में गोरे बिलायती लोग भी थे। कुछ देशी भी थे। सबका ध्यान अचानक से सरदार को कौंध गया। सात समंदर पार भी उन्होंने अपने चाहने वाली को सेट किया। चाहने वाली पावरफुल थी। उन्होंने प्रेस को सेट किया। बात अंतरराष्ट्रीय प्रेस में जा ही नहीं पाई। खबर हिंदुस्तान तक आती कैसे?
भला हो उस स्थानीय पत्रकार का, जिसने प्रेस पर लगी रोक (सिर्फ इस खबर के लिए, यह सिर्फ सरदार जानते थे और बाद में उनकी बेटी ने जाना-समझा और प्रेस पर अंकुश लगाया… वो भी सिर्फ देशहित में!) के बावजूद यह खबर छाप दी थी लेकिन जेल जाने के डर से अखबार को अगले दिन मार्केट में नहीं भेजा था। ऑफिस की लाइब्रेरी में छिपा ली थी सारी कॉपी… उन्हीं कॉपी में से एक, जिस पर मैं झालमूढ़ी खा रहा था क्योंकि इस प्रेस के वर्तमान मालिक ने अब इसे कूड़ा समझ फेंक दिया था, जो मेरे लिए सोना था, देश के लिए इतिहास।
खैर मेरी यात्रा राहुल सांकृत्यायन की जितनी महान तो नहीं लेकिन इतिहास के योगदान में जानी तो जरूर जाएगी। वो इतिहास, जिसे वामपंथियों तक ने छिपाया। वो इतिहास, जिसे खुद इतिहास रचने वाले ने छिपाया… और देश आज इनसे 60-70 सालों का हिसाब माँग रहा है? देश की इतनी हिम्मत?