पखाना जाना, दातुन करना, घर की साफ-सफाई करना और नहाना… यह नित्य क्रिया में स्कूल में सिखाया जाता था। स्कूल सरकारी था, इसलिए नहा कर आए लड़के-लड़कियों से एक साथ सारी कक्षाओं और पूरे मैदान (स्कूल का अपना खेल मैदान था) तक को भी साफ करवाया जाता था… हर दिन। अब यह कल्चर शायद खत्म हो रहा है।
शायद क्यों? क्योंकि प्रियंका गाँधी झाड़ू लगाती हैं, धरती पर पैदा हुए नॉर्मल इंसान की तरह नॉर्मल काम करती हैं… लेकिन बवाल हो जाता है। पहला बवाल होता है कि झाड़ू क्यों लगानी पड़ी? वीडियो वायरल किया जाता है।
सुखदेव सर (हमारे स्कूल के हेडमास्टर, तब हेडमास्टर हुआ करते थे… अब स्तर गिरा/उठा के प्रभारी बना दिया गया है) वीडियो को देख कर दुखी हो जाते हैं। झाड़ू लगाने की शैली देखते ही सोशल मीडिया पर लिखते हैं – “जिस सरकार के लिए जीवन भर काम किया, उसकी पैदाइश को ही सही शिक्षा नहीं दे पाया।”
एंथनी गोंजालविस (सेंट मैरी फादर क्राइस्ट कॉन्वेंट स्कूल के प्रिंसिपल) ने सुखदेव सर की वॉल पर कड़ी प्रतिक्रिया दी। लिखा – “मेरे स्कूल में पढ़ी प्रियंका को झाड़ू कैसे लगाया जाए, यह सीखने की जरूरत नहीं। अगर वो चाहे तो पूरा झाड़ू खरीद सकती है। शाहरुख के बेटे की तरह पूरा क्रूज खरीद सकती है।”
खैर, शिक्षकों को प्रणाम बोल मैं कट लिया। दोनों देशी-विदेशी संस्कृति पर लड़ रहे थे, अपना वहाँ क्या काम? खबर बेच पेट पालता हूँ, उन्हीं खबरों में एक खबर आई – “प्रियंका के कमरे में कहाँ से आई धूल, क्यों लगानी पड़ी झाड़ू, हो रही जाँच“… खबर छाप दी गई लेकिन मेरे अंदर का रिपोर्टर जाग गया।
- VVIP के कमरे में धूल कहाँ से आ गई?
- किसने प्रियंका गाँधी तक झाड़ू पहुँचाई?
- झाड़ू पहुँचाने वाला सुरक्षा-व्यवस्था में भी तो सेंध कर सकता है?
- राज्य सरकार त्याग की मूर्ति गाँधी परिवार को लेकर इतनी बेरहम क्यों?
इन 4 सवालों को लेकर मैं पहुँच गया CFSL (Central Forensic Science Laboratory) ऑफिस। प्रियंका गाँधी की झाड़ू और उससे समेटे गए धूल इसी ऑफिस में जाँच के लिए भेजे गए थे। यहाँ के डायरेक्टर ने नाम न छापने की शर्त पर सब कुछ खोल कर रख दिया। उन्होंने जो बोला, उसका हर शब्द लिख दे रहा हूँ, पढ़िए:
“हमारे ऑफिस में प्रियंका गाँधी की झाड़ू और उससे समेटे गए धूल के अलावे उनका जूता और सेंपल के लिए उनका दुपट्टा भी भेजा गया था। कमरे के फर्श से उठाया गया धूल और उनके जूते में लगी मिट्टी-गोबर में कोई मैच नहीं है। आश्चर्य यह है कि झाड़ू से समेटे गए धूल और उनके दुपट्टे में पाए गए धूलकण का मैच 100% है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि कमरे में प्रियंका गाँधी खुद ही दुपट्टा भर कर धूल ले गई थीं।”
प्रियंका गाँधी खुद धूल क्यों ले जाएँगी? मेरे इस सवाल को राजनीतिक सवाल बोलते हुए CFSL डायरेक्टर ने जवाब देने से मना कर दिया।
पहले सवाल का उत्तर मिलते ही मैं भागा सवाल नंबर 2 और 3 के जवाब की ओर। इसके लिए मुझे जाना पड़ा ‘कैदी सुरक्षा संस्थान’ के डायरेक्टर के पास। उन्होंने भी शर्त वही रखी – नाम नहीं छापने की। फिर सब कुछ बता दिया, “नाभा जेल की तरह हमारे पास भी झाड़ू को लेकर लिखित निवेदन आया था। प्रियंका गाँधी ही नहीं बल्कि हमारे लिए हर नागरिक की तरह हर कैदी भी एक समान है। निवेदन करने की जिनकी औकात होगी, हम सबको कैदी नियमावली के तहत हर चीज मुहैया कराएँगे।”
चौथा सवाल विशुद्ध राजनीतिक था। जवाब की बिना उम्मीद किए ही मुँह उठाए पहुँच गया सत्ता पक्ष के पास। आश्चर्य यह कि उन्होंने तसल्लीपूर्वक जवाब दिया। सत्ता के प्रवक्ता ने कहा – “सरकार किसी को भी लेकर बेरहम नहीं है। लेकिन पेड़ गिरने का यह मतलब नहीं कि धरती भी काँपे ही… और हाँ, लाशों की राजनीति करने वालों को ‘त्याग की मूर्ति’ कहना बंद करे प्रेस… खुलेआम कौन जात हो पूछने वाले प्रेस को अंदर झाँकने की जरूरत है।”
चौथा खंभा को कोई ऐसे गरियाता है क्या? धंधा नहीं होता, पापी पेट का सवाल नहीं होता तो आज ही लात मार देता… EMI है, बच्चों का स्कूल फीस है, बीवी का लिपस्टिक है… कैसे कह दूँ कि TV देखना बंद कर दो!