Friday, November 15, 2024
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‘अहिंसा से मिली आज़ादी’ वालों को जवाब है काशी के क्रांतिवीरों की गाथा, वो दौर जब मातृभूमि को समर्पित हुआ करते थे पत्रकार

ना सिर्फ बम व बंदूक से क्रांति की लौ प्रज्वलित हुई, बल्कि कलम के माध्यम से भी जबरदस्त क्रांति की जा रही थी। पत्रकारिता के माध्यम से क्रांति अपने चरम पर थी। उस समय के पत्रकारों ने अंग्रेजों की निंद उड़ा रखी थी।

क्रांतिदूत शृंखला के भाग-2 में काशी के गुमनाम क्रांतिकारियों का संवादमय वर्णन है। चंद्रशेखर आज़ाद अपनी संस्कृत शिक्षा के लिए काशी में काशी विद्यापीठ आते है। यही उनका कई महान क्रांतिवीरों से परिचय होता है। इनमें बिस्मिल, अशफ़ाक, सान्याल, लाहिड़ी आदि ने आजाद को क्रांति का पाठ पढ़ाया व बताया कि कौन-कौन माँ भारती के सपूत क्रांति के माध्यम से स्वतंत्रता संग्राम में अपना सर्वस्व न्योछावर कर चुके हैं तथा यह संग्राम कैसे चल रहा है।

इस क्रांति की लौ को आगे बढ़ाने के लिए क्या क्या करना पड़ा। संगठन कैसे बनता है। अंग्रेजों को उनकी ही भाषा में कैसे जवाब दिया जा रहा था। यह सब बातें इस भाग बड़े ही रोचक ढंग से संवादमय तरीकें से ये क्रांतिवीर चंद्रशेखर आजाद के सामने रखते हैं। इस भाग में अधिकांश बातें काशी के घाटों पर क्रांतिकारी मिलकर बड़ी ही चतुराई से अपने लक्ष्य को समझते व उसपर चर्चा करते है। इन चर्चाओं में आजाद अपने ज्वलंत व महत्वपूर्ण प्रश्नों से पाठकों को भी इन कथाओं से जोड़कर रखते है।

1910 से 1920 के आसपास काशी में कितने ही गुमनाम क्रांतिकारी अपने क्रांति अभियान पर अलग अलग समय पर मिलते है और क्रांति के माध्यम से कैसे अंग्रेजों को भारत से भगाना है, यह सब घटना क्रमवार में भी इस भाग में मनीष श्रीवास्तव द्वारा सरल भाषा व पाठ्यक्रम पुस्तक की तरह लिखा गया है। यहाँ यह ध्यान देना जरूरी है कि उस समय क्रांतिकारियों ने अपने इस मार्ग के लिए बड़ी मुश्किल से आम जनमानस को क्रांति मार्ग के लिए कोड़े खाकर व कितनी ही यातनाएँ सहकर तैयार किया था। वैसे यहाँ यह बताना भी जरूरी है कि शुरुआत में अधिकांश क्रांतिवीरों ने अहिंसा का ही मार्ग भारत को आजाद कराने के लिए अपनाया था। लेकिन, अंग्रेज भारतीयों को कुछ भी नहीं समझ रहें थे।

इसलिए, अंग्रेज बहरों को उनकी ही भाषा में जवाब दिया गया। इस भाग में ही घोष बाबू के अनुशीलन सिद्धांत पर गंभीर चर्चा की गई है। लेखक ने बड़े ही रोचक ढंग से बताया है कि घोष बाबू के अनुशीलन व बंकिम चंद्र जी के आनंद मठ से क्रांति की सशस्त्र क्रांति की शुरुआत हुई। राष्ट्रप्रेम की चिंगारी को आगे बढ़ाने में बंगाल क्रांति के विशेष महत्व पर प्रकाश डाला गया है। ना सिर्फ बम व बंदूक से क्रांति की लौ प्रज्वलित हुई, बल्कि कलम के माध्यम से भी जबरदस्त क्रांति की जा रही थी।

पत्रकारिता के माध्यम से क्रांति अपने चरम पर थी। उस समय के पत्रकारों ने अंग्रेजों की नींद उड़ा रखी थी। राष्ट्रवाद, मातृभूमि व राष्ट्रप्रेम पर लिखने के लिए दोहरे आजीवन कारावास तक की सजा कलम क्रांतिवीरों को भी दी जा रही थी। उस समय क्रांति की महत्ता पर जो बोला गया उसे पृष्ठ 74 पर लिखी गई इस पंक्ति से आसानी से समझा जा सकता है, “असली क्रांतिकारी ऐसे ही अपनी गति प्राप्त करेंगे आजाद। ध्यान रखना हम क्रांतिकारी हैं, नेता नहीं…!”

खुदीराम बोस व चाकी का शौर्यपूर्ण बलिदान पाठकों को अंदर तक झकझोर देता है। वहीं कलम की ताकत व हौसला तो देखें कि ‘स्वराज्य पत्र’ को निरंतर संपादित व प्रकाशित करने के लिए कितने ही कलम क्रांतिवीर बलिदान हो जाते हैं। इस भाग की विशेषता यह भी है कि इसमें इतने गुमनाम क्रांतिवीरों पर चर्चा की गई है कि मेरे जैसे पाठक के लिए यह सब बड़े ही आश्चर्य व ऊहापोह का विषय रहा। यहाँ हम इतने गुमनाम क्रांतिकारियों का नाम पढ़ते हैं और वहीं कुछ तथाकथित इतिहासकार अब भी यह कहते है कि अंग्रेज तो भारत छोड़कर अपने मन से गए थे! इसी तरह कुछ ‘परम बुद्धिजीवी’ हमेशा यह राग अलापते रहते है कि आजादी तो हमें अहिंसा के द्वारा मिली…!

जब हम क्रांतिदूत के ‘भाग-2 काशी’ को पढ़ते हैं तो स्वतंत्रता संग्राम की वास्तविक सच्चाई पता चलती है और साथ ही कई महान गुमनाम क्रांतिवीरों का स्वाधीनता के लिए संकल्प व समर्पण पढ़ते हुए आँखों में आँसू तक आ जाते हैं। वर्तमान युवा पीढ़ी के लिए यह शृंखला इसलिए महत्वपूर्ण है कि वह आसानी से स्वतंत्रता संग्राम का वास्तविक व सरल इतिहास इस शृंखला में पढ़ सकता है। लेखक का इस शृंखला को लिखने का भी यह उद्देश्य ही इस भाग को पढ़ने से ओर स्पष्ट हो रहा है। नया भारत इस शृंखला को जरूर पढ़े। इसके पहले भाग ‘झाँसी फाइल्स’ के बारे में आप यहाँ पढ़ सकते हैं।

(इस लेख को अधिवक्ता भूपेंद्र भारतीय ने लिखा है)

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