आज बुद्ध पूर्णिमा है, आज ही के दिन गौतम को बोधि वृक्ष के नीचे ‘ज्ञान’ अर्थात ‘परम बोध’ की प्राप्ति हुई थी। गौतम बुद्ध के जन्म, परम बोध और निर्वाण की तिथि एक ही थी, ऐसी मान्यता है। देखा जाए तो यह एक दुर्लभ संयोग भी है, पर जिसके साथ घटित हुआ वह कहाँ साधारण था। वह इंसान जो अध्यात्म के मार्ग पर है उसके लिए बुद्ध पूर्णिमा एक बड़ा अवसर है। सूर्य का चक्कर लगाती पृथ्वी जब सूर्य के उत्तरी भाग में चली जाती है तो उसके बाद की यह तीसरी पूर्णिमा होती है। चूँकि, आज ही के दिन उनके साथ दिव्यता घटित हुई थी, इसलिए ऐसे महान व्यक्तित्व गौतम बुद्ध की याद में इस तिथि का नाम उनके नाम पर ‘बुद्ध पूर्णिमा’ रखा गया है।
गौतम बुद्ध का जन्म 563 ई. पूर्व में शाक्य गणराज्य की तत्कालीन राजधानी कपिलवस्तु के निकट लुंबिनी, नेपाल में हुआ था। लगभग आज से ढाई हजार साल से भी पहले की बात है, आधी रात में गौतम ने घर छोड़ दिया। राजमहल के राग-रंग, आमोद-प्रमोद, मनोरंजन से वे ऊब गए, रूपवती पत्नी का प्रेम और नवजात शिशु का मोह भी उन्हें महल और भोग-विलास की सीमाओं में नहीं बाँध पाया। कहते हैं, पहले एक रोगी को देखा, जिससे उन्हें पीड़ा का अनुभव हुआ, उसके बाद एक वृद्ध को, जिससे सुन्दर शरीर के जीर्ण हो जाने का एहसास हुआ, पहली बार जरा का अनुभव हुआ और फिर एक मृत शरीर को, देखते ही जीवन की नश्वरता ने उन्हें विचलित कर दिया। मन में प्रश्नों का सैलाब उमड़ पड़ा।
कहते हैं, जैसे-जैसे ये प्रश्न गहराते गए, उनके अंतर की पीड़ा बढ़ती गई। मौजूदा भोग-विलास वाली परिस्थिति में बने रहना अब उनके लिए असंभव हो गया। एक तरफ, उन्हें जीवन बेहद मोहक, खूबसूरत और भव्य दिख रहा था, तो दूसरी तरफ सब कुछ कितना क्षणिक है, यह बोध उन्हें बेचैन कर रही थी। उनके मानस में यह कौंधा, अभी इस क्षण में जो भरापूरा है, श्रेष्ठ है, जीवंत लग रहा है, अगले ही क्षण में वह जर्जर, निर्बल और मृत हो सकता है। जीवन में जिसे हम सुख समझ कर जी रहे थे, कहीं कोई ठहराव नहीं, न ही इसका कोई ठौर-ठिकाना। गौतम का अब ऐसे जीवन में बने रहना अति दुष्कर हो गया। कहा तो यह भी जाता है कि जीवन के तीक्ष्ण सवालों से बेचैन, गौतम ने घर छोड़ा नहीं, बल्कि उनसे घर छूट गया।
घर छूटते ही गौतम की सघन खोज शुरू हो गई, उन्हें अपने मन को विचलित कर देने वाले सवालों के जवाब चाहिए थे। कहाँ जाना है, क्या करना है? कुछ भी नहीं पता था। महल छूट चुका था। अज्ञान की पीड़ा इतनी गहन थी कि वह हर ज्ञात-अज्ञात विधि और साधना पद्धति अपनाने को तैयार थे। कहा जाता है, करीब आठ साल की घनघोर साधना के बाद सिद्धार्थ गौतम बेहद कमजोर हो चुके थे।
इन आठ सालों में चार साल तक वह समाना (श्रमण) की स्थिति में रहें। समाना के लिए मुख्य साधना बस घूमना और उपवास रखना था, इसमें वे कभी भोजन की तलाश नहीं करते थे। इससे गौतम का शरीर इतना कमजोर हो गया कि वह मृत्यु के काफी करीब पहुँच गए। बाकी समय तक वह तमाम ज्ञात-अज्ञात साधना पद्धतियों से गुजरे अंततः जब वह निरंजना नदी के पास पहुँचे, जो प्राचीन भारत की कई अन्य नदियों की तरह सूख चुकी है और अब लगभग विलुप्त हो चुकी है। कहते हैं, उस वक्त यह नदी एक बड़ी जलधारा थी, जिसमें घुटनों तक पानी तेज गति से बह रहा था। सिद्धार्थ ने नदी पार करने की कोशिश की, लेकिन आधे रास्ते में ही उन्हें इतनी कमजोरी महसूस हुई कि उन्हें लगा कि अब एक कदम भी आगे बढ़ा पाना संभव नहीं है। लेकिन उन्होंने हार नहीं माना। उन्होंने वहाँ पड़ी पेड़ की एक शाखा को पकड़ लिया और बस ऐसे ही खड़े रहे।
कहा जाता है, इसी अवस्था में वो घंटों खड़े रहे, कब तक खड़े रहे इस पर मतभेद है। हो सकता है कि कुछ पल ही हों, कमजोरी की हालत में एक पल भी बहुत भारी होता है। अचानक से उन पलों में ही उन्हें एहसास हुआ कि जिस बोध की उन्हें तलाश है, वह तो उनके भीतर ही है। फिर इतना संघर्ष क्यों? ऐसी जागृति के लिए जो आवश्यक है वह है अपने भीतर पूर्ण रूप से राजी हो जाना, हर तरह के विरोध का मिट जाना, और ऐसा तो अभी और यहीं हो सकता है, फिर ये भटकाव क्यों, मैं बाहर क्या खोजता फिर रहा हूँ।
जब उन्हें इस बात का एहसास हुआ तो उन्हें थोड़ा सम्बल मिला, थोड़ी ताकत मिली और उन्होंने कदम-कदम बढ़ाते हुए नदी पार कर ली। इसके बाद वह पास के ही एक वृक्ष के नीचे बैठ गए जो अब बोधि वृक्ष के नाम से जाना जाता है। कहा जाता है कि वहाँ वह इस चेतना के साथ बैठे कि जब तक मैं उस परम ज्ञान को, उस परम बोध को प्राप्त नहीं कर लूँगा, यहाँ से उठूँगा नहीं। या तो अब मैं यहाँ से एक प्रबुद्ध बन कर उठूँगा या फिर इस जर्जर शरीर को इसी अवस्था में त्याग दूँगा। उनका यह संकल्प इतना सघन था कि अगले ही पल उन्हें परम ज्ञान की प्राप्ति हो गई। शायद इसके लिए उस अवस्था में उन्हें इसी चीज की ज़रूरत थी।
तो वह दिव्य घटना बस एक पल में घटित हुई, जीवन की हर बड़ी घटना किसी न किसी क्षण में ही घटित होती है। जिस वक्त पूर्ण चन्द्रमा का उदय हो रहा था। उसी वक्त गौतम को परम ज्ञान की प्राप्ति हुई। कहा जाता है वह उसी स्थान पर आनंद मुद्रा में कुछ घंटों के लिए बैठे रहें फिर उठें और इस बोध से उपजे ज्ञान का प्रथम सन्देश देने के लिए अपने उन्ही साथियों की तलाश में निकल पड़े जो समाना (श्रमण) के रूप में उनकी साधना पद्धति से प्रभावित होकर उनके साथ थे। यह भी कहा जाता है, परम बोध घटित होने के बाद जो बात सबसे पहले उन्होंने कही वह थी ‘चलो भोजन करें’ यह सुनकर वह उनके पाँचों साथी जो कालांतर में उनके प्रथम पाँच शिष्य हुए, निराश हो गए, उन्हें लगा गौतम का पतन हो चुका है। इस पर बुद्ध ने कहा, “आप गलत समझ रहे हैं, उपवास रखना महत्वपूर्ण नहीं है, जीवन में महत्वपूर्ण है जानना और आत्मसाक्षात्कार, मेरे भीतर पूर्ण चन्द्रमा उदित है, मुझे देखो, मेरे अंदर आए रूपांतरण को देखो, बस यहीं रहो।” लेकिन वे रुके नहीं उन्हें भ्रष्ट मान चले गए, कालांतर में बुद्ध ने कई सालों बाद उन्हें एक-एक करके ढूँढ निकाला और वाराणसी के सारनाथ में उन्हें ज्ञान प्राप्ति का मार्ग बताया। यही उनके पहले शिष्य हुए जिनकी प्रतीक प्रतिमा आज भी सारनाथ में मौजूद है।
इस प्रकार गौतम परम बोध के घटित होते ही बन गए बुद्ध और जिस दिन यह घटना घटी वह कहलाया ‘बुद्ध पूर्णिमा’। यहाँ एक महत्वपूर्ण सन्देश छिपा है। जो भी चीज जीवन में आप चाहते हैं, वह आपकी पूरी सघनता के साथ प्राथमिकता बन जानी चाहिए। फिर उसे मूर्त रूप लेने से कोई भी नहीं रोक सकता। प्राचीन काल से लेकर आज तक आध्यात्मिक दुनियाँ में पूरी की पूरी साधना पद्धति बस इसी बोध तक पहुँचने की तैयारी होती है। चूँकि, लोग अपने ही बनाए जंजालों में इतने उलझे हैं कि खुद को समेट कर उस एकाग्रचित बिंदु तक पहुँचने में ही उन्हें काल-कालांतर का समय लग जाता है। इस बिखराव की सबसे बड़ी वजह है हमारा हर छोटी-बड़ी चीज से खुद को जोड़ लेना। इस लिए ऐसे अवसर हैं इस जागरण को जीवन का हिस्सा बना लेने की खुद के अनावश्यक बिखराव को रोकना है। हर जगह इन्वॉल्व होने से बचना है। खुद को समेट कर परम बोध की तरफ मोड़ देना है। तभी ऐसी परम सम्भावना घटित हो सकती है।
प्राचीन काल से ही तमाम महापुरुषों ने जिन्होंने सत्य का साक्षात्कार किया उनके लिए बुद्ध सदैव मार्गदर्शक रहे। एक प्रश्न के जबाब में सद्गुरु जग्गी वासुदेव ने भी कहा, “गौतम मात्र खोज रहे थे, यह जाने बगैर कि क्या खोज रहे हैं, लेकिन खोज रहे थे। अपना राज्य, अपनी पत्नी और एक नवजात शिशु को छोडक़र एक चोर की भाँति रात में महल से भाग गए। शायद उनके परिवार ने उन्हें सबसे निष्ठुर आदमी के रूप में देखा होगा, लेकिन हम कितने खुश हैं कि अगर उन्होंने एक ऐसा कदम नहीं उठाया होता, तो यह संसार और भी गरीब होता और वे लोग जो उनके साथ रहते थे, कुछ ज्यादा बेहतर नहीं हो जाते। यह भी हो सकता था कि कुछ समय के बाद उन लोगों को कोई और दुख मिल जाता। कई भीषण परिस्थितियों से गुजरती और भयानक मोड़ लेती उनकी यह खोज एक दिन समाधान की दहलीज पर पहुँच गई।”
वैशाख पूर्णिमा की मध्य रात्रि में सिद्धार्थ गौतम, बुद्ध में रूपांतरित हो गए। वह अपनी परम चेतना में खिल उठे। अपने परम स्रोत से जुडक़र निहाल हो उठे। उनको एक ठौर मिला और वे अपने अंदर ठहर गए। उनके जीवन के सभी प्रश्न विलीन हो गए, समाधान दिन के सूरज की तरह दिखने लगा। कहते हैं, एक इंसान का अपनी परम चेतना में खिलना, उस इंसान के लिए ही नहीं, बल्कि संपूर्ण जगत के लिए बेहद मूल्यवान है। आज से ढाई हजार साल पहले जो रोशनी बुद्ध के अंदर फूटी, वो आज भी इस संसार को सही राह दिखाने के लिए पर्याप्त है।
यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते शायद आपको भी लग सकता है कि आपके ज़ेहन में भी अक्सर जीवन से जुड़े ऐसे ही सवाल आते हैं, हम भी तो जिंदगी, सुख-दुख के साथ जी रहे हैं और रोज ऐसे और इससे भी कहीं ज़्यादा भयानक दृश्यों को देखते हैं, फिर हमारे साथ ऐसा कुछ क्यों नहीं घटता। यहाँ एक चीज तो हमें माननी ही होगी कि सिद्धार्थ कोई साधारण इंसान नहीं रहे होंगे। वे चेतना, जागरूकता, बोध और बुद्धि के एक खास स्तर तक विकसित हो चुके होंगे। एक ऐसा इंसान जीवन के हर पहलू को बहुत गहराई से परखता है, उसका निरीक्षण करता है, उस पर चिंतन-मनन करता है; परिणामस्वरूप कई गहन और गंभीर सवाल खड़े हो जाते हैं, लेकिन वह सवालों पर ही नहीं रुक जाता। फिर उसके लिए समाधान की खोज पूरी निष्ठा और लगन के साथ करना स्वाभाविक हो उठता है।
गौतम बुद्ध के साथ जो घटित हुआ, वो इस संसार के हर इंसान के साथ घट सकता है। बस इसके लिए हमें अपने जीवन में गहराई लानी होगी। आज बुद्ध पूर्णिमा पर बुद्ध के मानवता को दिए गए महत्वपूर्ण योगदान के न सिर्फ स्मरण बल्कि उसे आत्मसात कर खुद भी उसी जागरण की दिशा में अग्रसर करने की चेतना जागृत करने का दिन है। बुद्ध ने मानवीय चेष्टा और खुद के खोज को एक नई दिशा जरूर दी। अगर जीवन में सच्ची चेष्टा और खोज हो तो हम सब अपनी साधारण जिंदगी को भव्य और विराट बना सकते हैं, यह है उनका बेबाक संदेश।
भारत की इसी पावन धरा से बुद्ध का शांति और उन्नति का सन्देश उनके अनुयायियों द्वारा पूरी दुनिया में प्रसारित किया गया। बुद्ध को एशिया का प्रकाश पुंज भी कहा जाता है। ज्ञान का यह प्रकाश भारत ही नहीं बल्कि चीन, जापान, कोरिया, थाईलैंड, कंबोडिया, श्रीलंका, नेपाल और भूटान जैसे कई देशों में फैला। जो चिर काल तक मानवता को आलोकित करता रहेगा।