त्योहार और उत्सव का मौसम हो और इसमें उत्तराखंड का ज़िक्र न आए यह संभव ही नहीं है। दीपावली के त्यौहार को लेकर देशभर में तैयारियाँ जोरों पर हैं। लेकिन उत्तराखंड में यह प्रकाशपर्व यानी दीपावली बिना पटाखे, आतिशबाजियों और वैचारिक प्रदूषण के ही ख़ास तरीके से मनाया जाता है। देवभूमि कहे जाने वाले इस राज्य में दीपावली को इगास और बग्वाल कहा जाता है। यह बग्वाल राज्य के अलग-अलग स्थानों में दिवाली से 11 दिन बाद और ठीक एक महीने बाद मनाई जाती है। इसके पीछे कारण उत्तराखंड का इतिहास और जनजातीय परम्पराएँ हैं।
दरअसल, उत्तराखंड के पर्वतीय अंचलों में दीवाली मनाने के तौर-तरीके देश के अन्य इलाकों से काफी अलग हैं। गढ़वाल में एक नहीं बल्कि चार-चार दीपावली मनाने की परम्परा है। स्थानीय भाषा में इन्हें अलग-अलग नाम दिया गया है। गढ़वाल में कार्तिक दीपावली के अतिरिक्त विभिन्न क्षेत्रों में इगास, राज और मार्गशीर्ष दीपावली भी धूमधाम से मनाई जाती हैं। इन्हें भी लोग कार्तिक दीपावली की तरह मनाते हैं।
राज दिवाली
टिहरी जनपद में इस दीपावली से एक दिन पूर्व ‘राज’ दीपावली को मनाने की अनोखी परम्परा है। इस दीपावली को सिर्फ एक ख़ास जाति के लोग, यानी केवल डोभाल जाति के लोग मनाते हैं। इन्हें इस दीपावली को मनाने का अधिकार रियासत के समय से मिला था, इसलिए यह प्रथा डोभाल जाति में आज भी प्रचलित है।
इगास
इसी तरह से कार्तिक दीपावली के ठीक ग्यारह दिन बाद आकाश दीवाली मनाई जाती है जिसे स्थानीय भाषा में ‘इगास’ कहते हैं। इसे मनाने के पीछे यह मान्यता है कि वनवास के बाद पांडवों में से चार भाई घर वापस लौट गए, लेकिन भीम कहीं युद्ध में फँस गए थे। माना जाता है कि ग्यारह दिन बाद ही भीम घर लौटे और इस तरह तब से आज तक यह आकाश दीपावली या इगास दिवाली मनाई जाती है।
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दूसरी मान्यता उत्तराखंड के इतिहास से जुड़ी है। महाराजा के सेनापति माधो सिंह भंडारी एक बार तिब्बत के युद्ध में तिब्बतियों को खदेड़ते हुए दूर निकल गए। वह दीपावली के समय अपने घर नहीं लौट पाए थे। उस वक्त अनहोनी की आशंका के कारण पूरी रियासत में दीपावली नहीं मनाई गई थी। बाद में रियासत का यह सेनापति युद्ध में विजयी बनकर लौटा। यह खबर रियासत में दीपावली के ग्यारह दिन बाद पहुँच पाई थी। जिसके पश्चात् टिहरी के समीपवर्ती इलाकों में इगास का त्योहार मनाया जाता है।
बग्वाल: मार्गशीर्ष दीपावली
उत्तराखंड में कार्तिक दीपावली के ठीक एक माह पश्चात् मार्गशीर्ष की दीपावली मनाई जाती है, जिसे स्थानीय भाषा में ‘रिख बग्वाल’ कहते हैं। इस दिन उत्तराखंड के जनजातीय इलाकों जैसे- रवांई जौनपुर, जौनसार व बावर क्षेत्र में सीड़े, अरसे, पूरी-पकोड़े आदि पकवानों सहित चूड़ा कूटने की भी परम्परा है। ग्रामीण रात भर तांदी, गीत, राधे व पांडव नृत्य करते हुए उत्सव मनाते हैं। मार्गशीर्ष की इस दीपावली या बग्वाल पर आतिशबाजी का शोर नहीं होता और ना ही बारूद के प्रदूषण का खतरा।
इसे मनाने के लिए देवदार के पुराने पेड़ों की लकड़ियाँ और छाल इस्तेमाल किए जाते हैं। जिन्हें जलाकर पारंपरिक उत्सव मनाए जाते हैं।
उत्तराखंड में दीपावली के 11 दिन या एक माह बाद माने जाने के पीछे एक और मान्यता बताई जाती है। कहा जाता है कि गढ़वाल क्षेत्र में भगवान राम के अयोध्या पहुँचने की खबर दीपावली के ग्यारह और कुछ स्थानों में एक माह बाद मिली और इसीलिए ग्रामीणों ने अपनी खुशी जाहिर करते हुए बाद दीपावली का त्योहार मनाया था और इसी परंपरा को निभाते गए।
लेकिन इन सबसे अलग इन त्योहारों को मनाने का तर्क यह माना जाता है कि जनजातीय इलाकों में लोग अपनी खेती में इस समय इतने व्यस्त होते हैं कि वो किसी त्यौहार की तैयारियाँ कार्तिक माह में नहीं कर पाते हैं। इसी वजह से मार्गशीर्स के माह अपने समस्त कार्यों को निपटाने के बाद ही ग्रामीण लोग इस दीपावली को मनाते आए हैं।
उत्तराखंड भिन्न-भिन्न संस्कृतियों का एक अनोखा संगम है और अब इन्ही परम्पराओं को सुरक्षित रखना भी यहाँ के स्थानीय लोगों के लिए एक गंभीर विषय बनता जा रहा है। अक्सर सरकार द्वारा भी इन परम्पराओं को बचाए रखने के लिए प्रयास किए जाते हैं। हालाँकि, पलायन जैसे संक्रामक रोग का असर फिर भी पूरे उत्तराखंड को लील रहा है और गाँव खाली होते जा रहे हैं। सवाल अब भी यही है कि जब गाँव में लोग ही नहीं रहेंगे तो फिर संस्कृति को सुरक्षित किसके लिए और आखिर कैसे रखा जा सकेगा?