भारत की आम जनता की खासियत ये है कि वो भूलती बहुत जल्दी है। अब देखिए, जिस कोरोना वायरस ने देश में 5.31 लाख लोगों की जान ली, उसे हम कितनी जल्दी भूल गए? वैसे गम को जितनी जल्दी भूल जाएँ उतना ही अच्छा है, वरना व्यक्ति फिर उसी सोच में डूबा रहेगा और उसकी उत्पादकता जाती रहेगी। लेकिन, दुःख की घड़ी में किन लोगों ने अपने फायदे के लिए आपका और ज़्यादा नुकसान किया और आपके दुःख को बढ़ाने के लिए कई जतन किए – ये सब हमें नहीं भूलना चाहिए। ‘The Vaccine War’ भारत के महिला वैज्ञानिकों की उपलब्धियों को दुनिया के सामने लाने के साथ-साथ ही उन चेहरों को भी बेनकाब करती है जिन्होंने दुःख की घड़ी में देश विरोधी एजेंडा चलाया।
यहाँ मैं ‘The Vaccine War’ की कहानी के बारे में कुछ बताए बिना ही इसकी समीक्षा को आपके सामने रख रहा हूँ। अगर आप सीधे शब्दों में पूछेंगे कि आपको ‘The Vaccine War’ क्यों देखना चाहिए, तो मेरा जवाब होगा कि अपने आसपास घट रही उस वास्तविकता से रूबरू होने के लिए इसे ज़रूर देखिए, जिसका आपको भान भी नहीं होता और उसका अच्छा-बुरा असर भी आप पर पड़ जाता है। ये हुआ सीधा जवाब, अब आपको बताते हैं कि आखिर इस फिल्म को क्यों देखें।
ये फिल्म इसीलिए देखिए, ताकि आपको पता चले कि केवल रॉकेट उड़ाने वाले ही वैज्ञानिक नहीं होते। ये फिल्म इसीलिए देखिए, ताकि आपको पता चले कि असली सेलेब्रिटी कौन लोग होने चाहिए। ये फिल्म इसीलिए देखिए, ताकि आपको पता चले कि परंपरागत भारतीय परिधान पहनने वाली महिलाएँ विज्ञान के शिखर पर पहुँच सकती हैं। ये फिल्म इसीलिए देखिए, ताकि आपको पता चले कि जिन्हें आप पत्रकार समझते हैं वो हैं नहीं। ये फिल्म इसीलिए देखिए, ताकि पता चले कि हमारे देश में हर अच्छे कार्य को रोकने के लिए कुछ गद्दार भी हैं।
‘The Vaccine War’: निर्देशन, फिल्म की कहानी और एक्टिंग परफॉर्मेंस
‘The Vaccine War’ फिल्म की कहानी के बारे में इतना समझ लीजिए कि ये कहीं भी आपको बोर नहीं होने देती। फर्स्ट हाफ में फिल्म तेज़ गति से आगे बढ़ती हुई प्रतीत होती है और आपको अपनी सीट से बाँधे रखती है। कहानी सेकेंड हाफ में किरदारों से उनका सर्वश्रेष्ठ निकलवा लाती है। 2008 मुंबई हमलों पर 2013 में बनी रामगोपाल वर्मा की फिल्म ’26/11′ के बाद ये नाना पाटेकर का सर्वश्रेष्ठ पर परफॉर्मेंस है। फिल्म के क्लाइमैक्स में उनका ‘Vintage’ अवतार देखने को मिलता है।
फिल्म में बहुत ज़्यादा नाटकीयता नहीं है, इसे ‘सच्ची कहानी’ बोल कर प्रचारित किया था और ये इस तमगे के साथ न्याय भी करती है। विवेक अग्निहोत्री इससे पहले भी घटनाओं को जैसा है वैसे ही दर्शकों के सामने पेश करने की कला का प्रदर्शन कर चुके है, ये हमें ‘The Kashmir Files’ में भलीभाँति देखा था। यहाँ वो अपनी इस कला का और अच्छे से प्रदर्शन करते हैं। बतौर निर्देशक, फिल्म के कुछ शॉट्स उनके सर्वश्रेष्ठ दृश्यों में गिने जाएँगे, खासकर ओपनिंग दृश्य – पुलिसकर्मी, कुत्ते और वैज्ञानिक वाला।
फिल्म के एक दृश्य में अगर आप गौर करेंगे तो पाएँगे कि पूर्व राष्ट्रपति एवं वैज्ञानिक APJ अब्दुल कलाम की तस्वीर दीवार पर टँगी दिखती है। ऐसी छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखा गया है। ‘India Can Do It’ की थीम पर बनी इस फिल्म में नाना पाटेकर को देख कर ऐसा लगता है कि उन्होंने खुद को ही प्ले किया है। ICMR के मुखिया के रूप में उनका अभिनय वास्तविक है, लेकिन साथ ही नाना पाटेकर का जो पुराना स्टाइल रहा है वो भी बरकरार है।
जिन दृश्यों में वो थके हुए दिखाई दे रहे हैं वो हो, या फिर जिनमें पत्रकारों के सवालों के जवाब दे रहे हैं वो हों, या फिर वो दृश्य हों जिनमें वो एक खड़ूस लेकिन दिल के ईमानदार बॉस के रूप में अपने मातहतों से बात करते हैं – उनका अभिनय प्रभावशाली है। नाना पाटेकर जिस भी दृश्य में हैं, उसमें आपकी नज़रें उन पर ही टिकी रहेंगी। इस फिल्म को देख कर लगता है कि बॉलीवुड ने नाना पाटेकर की प्रतिभा का सही इस्तेमाल नहीं किया है, उनके पास काफी कुछ है देने के लिए मनोरंजन जगत को।
जिस दृश्य में वो कोरोना वैक्सीन के निर्माण को युद्ध बताते हुए इसे एक्सप्लेन करते हैं, वो फिल्म की रिलीज के बाद सोशल मीडिया पर जम कर वायरल होने वाला है। भारतीय फिल्मों में हमेशा से बैकग्राउंड म्यूजिक को लेकर शिकायतें रही हैं, लेकिन विवेक रंजन अग्निहोत्री की इस कम बजट की फिल्म में जिस तरह से पार्श्व संगीत का इस्तेमाल किया गया है, वो काबिल-ए-तारीफ़ है। खासकर कोरोना वायरस के लिए जिस तरह की डरावने बैकग्राउंड साउंड का इस्तेमाल किया गया है, वो बहुत ही अच्छा है।
फिल्म एकदम से गंभीर न हो, इसीलिए टुकड़ों में कॉमेडी भी है। खासकर एक दृश्य है जहाँ वैज्ञानिकों को बंदरों की ज़रूरत पड़ती है वैक्सीन की वैक्सीन के लिए, वो इस गंभीर फिल्म में थोड़े हल्के क्षण लेकर आती है। फिल्म की सबसे बड़ी विशेषताओं में से हैं इनके डायलॉग्स। डायलॉग्स ऐसे हैं जो अलग-अलग पात्रों को उनके किरदार और परिस्थिति के हिसाब से दिए गए हैं, जिनकी हम आगे चर्चा करेंगे। तकनीकी रूप से फिल्म इतने कम बजट में बनने के बावजूद समृद्ध है।
‘The Vaccine War’ समीक्षा: महिला वैज्ञानिकों का सम्मान, गद्दारों की पोल-खोल
‘The Vaccine War’ के अन्य किरदारों की बात करें तो सबसे प्रमुख है पल्लवी जोशी का किरदार। आपने उन्हें ‘The Tashkent Files’ और ‘द कश्मीर फाइल्स’ में नकारात्मक किरदारों में देखा होगा, लेकिन इस बार उन्होंने NIV (नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ वायरोलॉजी) की निदेशक डॉ प्रिया अब्राहम का किरदार निभाया है। हिंदी स्पष्ट न बोल पाने वाले किरदार में उन्होंने जान फूँक दी है। इसे देख कर उनके अनुभव और उनकी प्रतिभा का पता चलता है, साथ ही उनके अभिनय की विविधता का भी।
फिल्म में एक और रोचक किरदार है – राइमा सेन का, जिन्होंने ‘रोहिणी सिंह धुलिया’ नामक पत्रकार का किरदार निभाया है। विदेश से फंडिंग लाने वाली पत्रकार, स्वदेशी वैक्सीन को बदनाम करने वाली पत्रकार, भारत पर ‘विश्वगुरु’ का तंज कसने वाली पत्रकार, भारत के हर मोर्चे पर फेल होने की कामना करने वाली पत्रकार, दंगों पर रोटी सेंकने वाली पत्रकार, आतंकियों की हिमायत करने वाली पत्रकार, अपने एजेंडे के आगे किसी की भी नहीं सुनने वाली पत्रकार।
आप ज़रूर ऐसे किरदारों को वास्तविकता में भी जानते हैं, खासकर अगर आप ट्विटर या यूट्यूब का इस्तेमाल करते हैं तो। ये पत्रकार दिखने में तो सुन्दर होती है, लेकिन उसके भीतर बड़ी मात्रा में ज़हर भरा होता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई मौकों पर विज्ञान को बढ़ावा देने की बातें कर चुके हैं और साइंस बजट भी उनकी सरकार में बढ़ाया गया है, फिल्म में उनकी वैज्ञानिक सोच भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से आपको जानने को मिलेगी। अब सरकारी दफ्तरों की, सरकारी बाबुओं की और सरकारी विभागों की कार्यशैली बदल गई है – इस बदलाव को ‘The Vaccine War’ सामने लेकर आती है।
फिल्म में ऋग्वेद के नासदीय सूक्त का हिन्दू अनुवाद ‘सृष्टि से पहले कुछ भी नहीं था’ का एकदम सटीक मोड़ पर इस्तेमाल किया गया है। इससे पहले श्याम बेनेगल की ऐतिहासिक टीवी सीरीज ‘भारत – एक खोज’ (1988-89) में इसका इस्तेमाल किया गया था। ये आपको इसमें ज़बरदस्ती ठूँसा हुआ नहीं लगेगा, बल्कि खास-खास एवं सटीक मौकों पर ये बजता है और फिल्म में चार चाँद लगाता है। फिल्म में आपको भारतीय वैज्ञानिकों के आम जीवन के बारे में भी जानने को मिलेगा, उनका भी परिवार है, उनके भी व्यक्तिगत संघर्ष हैं।
‘The Vaccine War’ की समीक्षा: अंतिम टिप्पणी
अगर आप कोरोना काल याद करेंगे तो पाएँगे कि पत्रकारों और बुद्धिजीवियों के एक बड़े गिरोह ने विदेशी वैक्सीन के लिए पैरवी की। उन्होंने एक व्यापक दुष्प्रचार के जरिए भारतीय वैक्सीन को नीचा दिखाया। जबकि भारत ने न सिर्फ अपने लोगों को वैक्सीन की 200 करोड़ डोज लगाने में कामयाबी पाई, बल्कि 101 देशों को भी स्वदेशी वैक्सीन की सप्लाई की। इसी बीच दिल्ली जैसे राज्य थे, जहाँ की AAP सरकार ने उस कठिन समय में केंद्र सरकार को परेशान किया और ज़रूरत से ज़्यादा मात्रा में ऑक्सीजन लेकर उसकी होर्डिंग की।
यही वो समय था, जब WHO पर भी उँगलियाँ उठीं। चीन के खिलाफ ये संस्था कुछ भी कहने से बचती रही, जबकि इसने बार-बार दुनिया को डराने का प्रयास किया और कोवैक्सीन को मान्यता देने में देरी की। कोरोना को चीनी वायरस बताने वाले डोलैंड ट्रम्प अमेरिका में राष्ट्रपति का चुनाव हार गए। चीन के वुहान लैब से वायरस के लीक होने की बात करने वाले गायब कर दिए गए। भारत में हिन्दुओं के अंतिम संस्कार की तस्वीरें अंतरराष्ट्रीय मीडिया को बेचीं गईं, वीडियो बनाए गए श्मशान में बैठ कर।
इन वास्तविकताओं को बड़े पर्दे पर ‘The Vaccine War’ न सिर्फ दिखाती है, बल्कि कई सवालों के जवाब देती हुई भी दिखती है। ये देख कर आपको पता लगेगा कि वो गरीब और अनपढ़ ज़्यादा अच्छे हैं उनसे, जो पढ़े-लिखे होने के बावजूद विदेशी एजेंडा चलाते हैं। चीनपरस्त वामपंथी गिरोह की पोल खोलने वाली ये फिल्म दिखाती है कि कैसे वैक्सीन निर्माण में कदम-कदम पर अपने ही लोगों द्वारा खड़ी की जाने वाली बाधाओं पर पाए कर हमारे वैज्ञानिकों ने ये कर दिखाया।
जहाँ ‘The Kashmir Files’ एक समाज को न्याय दिलाने के लिए एक अभियान थी, वहीं ‘The Vaccine War’ देश की एक उपलब्धि और उसके पीछे काम करने वालों को पहचान देने का प्रयास है। वहाँ दर्द था, यहाँ गर्व है। वहाँ इस्लामी आतंकवाद पर खुल कर प्रहार किया गया था, यहाँ पत्रकारों के एक गिरोह को लेकर लोगों को सजग किया गया है। ‘The Vaccine War’ इसीलिए भी देखिए, ताकि आप इसके साक्षी बनें कि हर फिल्म के साथ विवेक अग्निहोत्री के निर्देशन की धार और पैनी होती चली जा रही है।