Sunday, November 17, 2024
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मुरब्बा-पटाखा के बाद ‘चिकनकारी’ भी हुआ मुगलों का, 2500 साल पुराने अजंता-चन्द्रकेतुगढ़ को भूले: राजा हर्ष भी कढ़ाई की इस कला के थे शौकीन

सोचिए, महाराष्ट्र के औरंगाबाद में स्थित अजंता की गुफाओं के निर्माण का इतिहास 480 ईसापूर्व तक जाता है। राजा हर्षवर्धन भी ऐसे कपड़ों के शौकीन थे, जिन पर पैटर्न बनाया होता था और कलाकृतियाँ की होती थीं।

भारत हमेशा से फैशन के क्षेत्र में अग्रणी रहा है, वो अलग बात है कि कुर्ता-धोती को ‘गँवार’ और कोट-पैंट को आधुनिक मान लिया गया। वाराणसी से लेकर नाथद्वारा तक, देश के कोने-कोने में कई ऐसे इलाके हैं जहाँ की चित्रकला, कपड़ों पर काम और कढ़ाई की तकनीक खासी लोकप्रिय है। चिकनकारी का काम इन्हीं में से एक है। ‘चिकनकारी’ का मूल उद्भव उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ को माना जाता है। अब इस कला को भी मुगलों का देन बताया जा रहा है।

केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय ने हाल ही में एक ट्वीट किया, जिसमें उसने चिकनकारी कला का श्रेय इस्लामी आक्रांताओं को दे दिया, मुगलों को। इससे लोग भी खफा नज़र आए, क्योंकि भारत के लिबरल और सेक्युलर गिरोह के बीच ये चलन रहा है कि मुरब्बे से लेकर बिरयानी तक का श्रेय मुगलों को दे दिया जाए। वैसे भी इनका मानना है कि भारत के लोग असभ्य थे और इस्लामी आक्रांताओं ने ही उन्हें ठीक से रहना सिखाया। अपने उन्नत सभ्यता, भव्य इतिहास और समृद्ध संस्कृति के अलावा पूर्वजों की ज्ञान-संपदा पर भी उन्हें विश्वास नहीं।

तो, यहाँ बात हो रही है कढ़ाई की चिकनकारी कला की। ‘चिकनकारी’ कला का श्रेय नवाबों को दिया जाता है, जबकि ऐसा है नहीं। भगवान श्रीराम के भाई लक्ष्मण के नाम पर स्थापित लखनऊ को भी ऐसे ही उसकी सांस्कृतिक पहचान से दूर कर के ‘नवाबों का शहर’ बता दिया जाता है। कई अन्य कढ़ाई की कलाओं की तरह ‘चिकनकारी’ भी उद्भव, विकास, बदलाव और गिरावट के कई स्तरों से गुजरी है। जिस तरह की सत्ता और सभ्यता रही, ‘चिकनकारी’ कला को उसी के अनुरूप ढाला गया।

किसी खास समय में सत्ता में कौन लोग काबिज थे, इसे बनाने वाले कलाकार कहाँ के थे, उस समय की सभ्यता में किन चीजों का प्रचलन था और लोगों का रहन-सहन कैसा था – किसी भी कला या कढ़ाई की तकनीक पर इसका असर पड़ता है। ‘चिकनकारी’ हमेशा से बाजार पर आधारित कला रही है। जो इन उत्पादों को बनाते रहे हैं, वो अलग-अलग समुदाय में इसे बचते रहे हैं। ‘चिकनकारी’ का उद्भव कहाँ से हुआ, इसे सटीक तरीके से बताना संभव नहीं है।

केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय ने ‘चिकनकारी’ कढ़ाई कला के उद्भव का श्रेय मुग़ल शासनकाल को दे दिया

खासकर उस देश में, जो कला के मामले में इतना समृद्ध रहा है कि दक्षिण में तंजावुर के मंदिर और उत्तर में मार्तण्ड सूर्य मंदिर (अब ध्वस्त) के वैभव से इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है। जसलीन धमीजा अपनी पुस्तक ‘Asian Embroidery‘ में बताती हैं कि प्राचीन साहित्यों के अध्ययन और उनके अर्थ निकालने से पता चलता है कि ईसा से 300 वर्ष पूर्व भी ‘चिकनकारी’ कढ़ाई कला का अस्तित्व था। इस कला का नमूना अजंता की पेंटिंग्स में भी मिलता है।

सोचिए, महाराष्ट्र के औरंगाबाद में स्थित अजंता की गुफाओं के निर्माण का इतिहास 480 ईसापूर्व तक जाता है। राजा हर्षवर्धन भी ऐसे कपड़ों के शौकीन थे, जिन पर पैटर्न बनाया होता था और कलाकृतियाँ की होती थीं। उन्हें मलमल (Muslin/हलके वजन वाला कॉटन) के कपड़े पसंद थे। दिवंगत सामाजिक कार्यकर्ता कमलादेवी चट्टोपाध्याय ने भी माना है कि ऐसे कढ़ाई वाले सफ़ेद कपड़े हर्षवर्धन को पसंद थे, लेकिन वो सफ़ेद रंग के होते थे और उनमें बहुत खास कलाकारी नहीं की जाती थीं।

राजा हर्षवर्धन का शासनकाल सातवीं शताब्दी के पहले 50 वर्षों का रहा है। उस समय इस्लाम की स्थापना ही हुई थी और तलवार के बल पर वो फैलने की कोशिश में था। लेकिन, इतना साफ़ है कि एक अच्छी चिकन कलाकारी भारत में सातवीं शताब्दी में अस्तित्व में थी। सफ़ेद फूलों वाले मलमल के कपड़ों पर चिकनकारी के कई प्राचीन सबूत आज भी मौजूद है। हालाँकि, चिकनकारी कला के अधिकतर सबूत 19वीं शताब्दी के हैं।

हो सकता है कि नवाबों के समय में ये ज़्यादा फ्ला-फूला हो, लेकिन इससे ये नहीं मान लिया जा सकता कि उनके समय में ही इसका उद्भव हुआ और इस्लामी आक्रांताओं ने इसका अविष्कार किया। मुगलों के दरबारियों की तस्वीरों में वो चिकनकारी कला वाले कपड़े पहने हुए ज़रूर दिखते हैं। ‘चिकन’ शब्द कहाँ से आया, इस संबंध में भी कुछ खास आकलन नहीं हो सका है। बस अंदाज़ा लगाया जा सका है कि ये बंगाली भी हो सकता है, जहाँ ‘चिकन’ का मतलब ‘बहुत उत्कृष्ट चीज’ होता है।

वैमपैंठी इतिहाकारों ने मुगलों और खासकर जहाँगीर की बीवी नूरजहाँ को ‘चिकनकारी’ कढ़ाई कला का श्रेय दे डाला। पर्सिया में ‘चिकनकारी’ का मूल खोजने वालों को पता होना चाहिए कि सिलाई की वहाँ की तकनीक और भारत की तकनीक में खासा अंतर रहा है। डोरे से सीने की तकनीक में भी अंतर रहता है। नूरजहाँ ने जहाँगीर के लिए टोपी सिली – इस कहानी का एक वर्जन लखनऊ में भी मौजूद है, बस किरदार अलग हैं।

कई विशेषज्ञ जमदानी तकनीक को ‘चिकनकारी’ से जोड़ कर देखते हुए ये अंदाज़ा भी लगाते हैं कि बंगाल में ही इसका जन्म हुआ होगा। मुस्लिमों द्वारा कहा जाता है कि लखनऊ में नवाब नजीरुद्दीन हैदर के काल में 19वीं सदी में ‘चिकनकारी’ का काम ज्यादा लोकप्रिय हुआ। इसमें सच्चाई हो सकती है, लेकिन ये भी सच ये कि ये कला पहले से भारत में मौजूद थी। ‘Indian Art At Delhi, 1903’ में जॉर्ज वाट ने स्पष्ट लिखा है कि ‘चिकनकारी’ पूरी तरह भारत में जन्मी सिलाई की तकनीक पर आधारित है।

पश्चिम बंगाल में एक 2500 वर्ष पुराना ऐतिहासिक स्थल है चन्द्रकेतुगढ़, जो कोलकाता से 35 किलोमीटर उत्तर-पूर्व में बिद्याधरी नदी के किनारे स्थित है। नॉर्थ 24 परगनास जिले में स्थित इस स्थल पर एक महिला की टेराकोटा की प्राचीन मूर्ति भी है, जिसके वस्त्रों पर ‘चिकनकारी’ की तरह कढ़ाई की गई है। विशेषज्ञों का ऐसा ही कहना है। 300 ईसापूर्व में भारत में आए मेगस्थनीज ने भी ‘चिकनकारी’ जैसी कढ़ाई कला के उस समय भारत में मौजूद होने की बात कही है।

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अनुपम कुमार सिंह
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भारत की सनातन परंपरा के पुनर्जागरण के अभियान में 'गिलहरी योगदान' दे रहा एक छोटा सा सिपाही, जिसे भारतीय इतिहास, संस्कृति, राजनीति और सिनेमा की समझ है। पढ़ाई कम्प्यूटर साइंस से हुई, लेकिन यात्रा मीडिया की चल रही है। अपने लेखों के जरिए समसामयिक विषयों के विश्लेषण के साथ-साथ वो चीजें आपके समक्ष लाने का प्रयास करता हूँ, जिन पर मुख्यधारा की मीडिया का एक बड़ा वर्ग पर्दा डालने की कोशिश में लगा रहता है।

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