Sunday, December 22, 2024
Homeविविध विषयभारत की बातमाँ काली के भक्त जिनमें जनजातीय समाज ने देखा 'राम', मिशनरियों की नाक में...

माँ काली के भक्त जिनमें जनजातीय समाज ने देखा ‘राम’, मिशनरियों की नाक में दम कर देने वाले साधु: अंग्रेजों ने पेड़ से बाँध कर दी थी हत्या

पनी माँ के साथ उन्होंने वाराणसी और ऋषिकेश से लेकर बद्रीनाथ और नेपाल तक की तीर्थयात्रा की। अल्लूरी सीताराम राजू के नेतृत्व में विद्रोह का एक बड़ा कारण था - 1882 का 'मद्रास फॉरेस्ट एक्ट'। इसके तहत आंध्र प्रदेश के एक बड़े इलाके में आने वाले जंगलों को बंद कर दिया गया।

भारत के सबसे उम्दा फिल्म निर्देशकों में से एक SS राजामौली की मूवी ‘RRR’ का वो दृश्य तो आपको याद ही होगा जब जंगल में अंग्रेजों से युद्ध के समय धनुष-तीरके साथ रामचरण तेजा की एंट्री होती है। इस दृश्य के दौरान थिएटर तालियों और सीटियों से गूँज उठता था, ‘जय श्री राम’ के नारे लगते थे। फिल्म में राम चरण का किरदार जनजातीय समाज के क्रांतिकारी अल्लूरी सीताराम राजू से प्रेरित था। ‘रामम्, राघवम्, रणधीरम्’ गाने के साथ राम चरण के वो दृश्य लोगों के दिलों में बस गए थे।

फिल्म की बात तो दुनिया भर में हुई और इसके गाने ‘नाटू-नाटू’ को ऑस्कर भी मिला। लेकिन, क्या आप जानते हैं कि जिन योद्धा अल्लूरी सीताराम राजू से ये किरदार प्रेरित था वो कौन थे? आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में उनका इतना सम्मान क्यों है? आखिर उन्होंने ऐसा क्या किया था कि अंग्रेज भी उनसे खौफ खाते थे और हाथ धो कर उनके पीछे पड़े थे? आइए, आज हम सशस्त्र जनजातीय विद्रोह के इस नायक के बारे में आपको बताते हैं, जिनके जीवन से हम सबको प्रेरणा लेनी चाहिए।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर अध्ययन करने वालों की मानें तो सन् 1769 से लेकर हमारे देश को आज़ादी मिलने तक जनजातीय समाज के 72 बड़े विद्रोह हुए। इन्हें इतिहास की पाठ्य पुस्तकों में उतना सम्मान नहीं मिला और न ही इनके नायकों को लोगों ने याद रखा। अंग्रेजों ने जल, जंगल और जमीन में दखल देकर जनजातीय समाज के जीवन पर बड़ा प्रहार किया था। ओडिशा में कोंध जनजाति के नेतृत्व में पहला बड़ा विद्रोह हुआ। सन् 1772 में झारखंड में पहाड़िया विद्रोह हुआ।

सन् 1785 से पहले तक बिहार के भागलपुर में तिलका माँझी ने क्रांति की ज्वाला थामे रखी थी। अगस्त 1922 में आंध्र प्रदेश की पहाड़ियों और जंगलों में अल्लूरी सीताराम राजू के नेतृत्व में विद्रोह उठ खड़ा हुआ। जनजातीय समाज के लोगों ने गुरिल्ला युद्धकला का उत्कृष्ट प्रदर्शन करते हुए अंग्रेजों से लोहा लिया। इसे दबाने के लिए अंग्रेजों को ‘मालाबार स्पेशल फोर्स’ को बुलाना पड़ा। आज भी तेलुगु राज्यों में अल्लूरी सीताराम राजू की वीरता की गाथाएँ सुनाई जाती हैं।

अल्लूरी सीताराम राजू जब बच्चे थे, तभी उनके पिता वेंकटराम राजू का देहांत हो गया है, ऐसे में अन्याय के खिलाफ लड़ने की शिक्षा उन्हें उनकी माँ सूर्यनारायणअम्मा से मिली। उनका जन्म विशाखापत्तनम के पंडरंगी गाँव में 4 जुलाई, 1897 को हुआ था। जंगल से लकड़ियाँ तोड़ कर लाना और काश्तकारी या मजदूरी का कार्य करना – यही उनके परिवार का पेशा था। माँ-बेटे जब हिमालय की तीर्थयात्रा के लिए निकले, तो रास्ते में अल्लूरी सीताराम राजू की मुलाकात क्रांतिकारी पृथ्वीसिंह आज़ाद से हुई।

यहीं उन्हें चटगाँव के क्रांतिकारियों के बारे में भी पता चला। ‘ग़दर पार्टी’ के संस्थापकों में से एक पृथ्वीसिंह आज़ाद से अंग्रेज इतना खार खाए रहते थे कि उन्हें कलकत्ता और मद्रास से लेकर सेल्युलर जेल तक में डाला गया था। 1977 में उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। जहाँ तक चटगाँव क्रांति की बात है, ये बंगाल में अप्रैल 1930 को हुआ था। उस समय अल्लूरी सीताराम राजू जीवित नहीं थे, लेकिन वहाँ सक्रिय क्रांतिकारियों के बारे में उन्हें अपने जीवन काल में जानकारी मिली थी।

अपनी माँ के साथ उन्होंने वाराणसी और ऋषिकेश से लेकर बद्रीनाथ और नेपाल तक की तीर्थयात्रा की। अल्लूरी सीताराम राजू के नेतृत्व में विद्रोह का एक बड़ा कारण था – 1882 का ‘मद्रास फॉरेस्ट एक्ट’। इसके तहत आंध्र प्रदेश के एक बड़े इलाके में आने वाले जंगलों को बंद कर दिया गया। जनजातीय समाज को वहाँ से लकड़ियाँ लाने या फिर वहाँ अपने पशु चराने से भी मना कर दिया गया। उन्हें वहाँ खेती भी नहीं करने दी जाती थी।

कुल मिला कर बात ये है कि सदियों से जो जंगल जनजातीय समाज का घर हुआ करते थे, वहाँ अब उनके लिए घूमना-फिरना भी प्रतिबंधित हो गया। अल्लूरी सीताराम राजू के नेतृत्व में हुए विद्रोह को ‘मन्यम क्रांति’ या फिर ‘राम्पा क्रांति’ के रूप में भी जाना जाता है। इसका मुख्य केंद्र आज के आंध्र प्रदेश का गोदावरी जिला था। इसकी शुरुआत चिंतापल्ली, कृष्णदेवीपेट और राजावोम्मांगी के पुलिस थानों को लूटने के साथ हुई थी। अल्लूरी सीताराम राजू ने जनजातीय समाज को असहयोग और स्वराज के बारे में शिक्षित किया।

मालाबार फोर्स बुलाए जाने से पहले क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों को 5 बार हराया था। 2 साल तक उन्होंने आक्रांताओं की नाक में दम कर के रखा। भड़के अंग्रेजों ने गाँव वालों पर टैक्स का बोझ बढ़ा दिया और मार्शल लॉ लागू कर दिया। 7 मई, 1924 का वो काला दिन था जब अंग्रेजों ने अल्लूरी सीताराम राजू की निर्मम हत्या कर दी थी। बचपन से ही अल्लूरी सीताराम राजू क्रांतिकारी स्वभाव के थे, क्योंकि 13 साल की उम्र में जब उन्हें उनके किसी दोस्त ने किंग जॉर्ज की तस्वीर वाले कुछ बैज दिए थे, तो उन्होंने सबको फेंक दिया था, सिवाए एक के।

एक बैज कोउन्होंने अपने शर्ट पर लगा कर अपने दोस्तों से कहा था कि वो इसे इसीलिए नहीं फेंक रहे हैं ताकि सबको याद रहे कि एक विदेशी आक्रांता हम पर शासन कर रहा है, हमें रौंद रहा है। बचपन में पढ़ाई-लिखाई छूट जाने के कारण उन्हें माँ के साथ तीर्थयात्रा पर जाना पड़ा था। जिस चटगाँव के क्रांतिकारियों से उन्हें प्रेरणा मिली, वो आज बांग्लादेश में है। इसके बाद उन्होंने ईस्टर्न घाट के जनजातीय समाज को एकजुट करने की ठानी। उस समय अंग्रेजों की पुलिस जंगल से जनजातीय लोगों को भगा रही थी।

अपनी यात्रा के दौरान उन्हें जो ज्ञान प्राप्त हुआ था, उसका इस्तेमाल करते हुए उन्होंने अपने समाज के लोगों को शिक्षित करना शुरू किया, उन्हें मेडिकल सुविधाएँ दिलाने का भी प्रयास किया। ‘मन्यम (जंगल)’ के क्षेत्र में जनजातीय समाज को प्रताड़ित करने वाली पुलिस और राजस्व अधिकारियों के विरुद्ध उन्होंने संघर्ष छेड़ दिया। उन्होंने अपने जीवन में मात्र एक रिपोर्टर को इंटरव्यू दिया था, जिसमें उन्होंने बड़े गर्व के साथ ऐलान किया था कि वो 2 वर्षों में अंग्रेजों की सत्ता को उखाड़ फेंकेंगे।

जंगल और पहाड़ियों की भौगोलिक स्थिति को समझने के कारण उन्हें गुरिल्ला युद्ध में आसानी हुई। वो एक जगह साथियों के साथ आते, अपना काम कर के कहीं और निकल लेते। अंग्रेजों की नींद हराम हो गई। तीर-धनुष और बरछे – यही उनलोगों के हथियार थे। उनकी कहानियाँ लोकप्रिय होने लगीं। सीटियों और ड्रम पीटने का इस्तेमाल किया गया, क्रांतिकारियों को आपस में संदेशों का अदन-प्रदान करने के लिए। परंपरागत तौर-तरीकों को उन्होंने अपने हिसाब से ढाला।

जब उन्हें लगने लगा कि तीर-धनुष या भालों से अंग्रेजों से युद्ध नहीं जीता जा सकता, तब जाकर उन्होंने पुलिस थानों को लूटने की योजना बनाई। 22 अगस्त, 1922 को 300 साथियों के साथ चिंतापल्ली पुलिस थाने को लूटना पहला ऐसा हमला था जो सफल रहा। फिर दो ऐसे बड़े हमले और किए गए। 24 सितंबर, 1922 को स्काउट और हीटर नाम के दो अंग्रेज अधिकारियों को उन्होंने मौत की नींद सुला दी, कई अन्य घायल हुए।

एजेंसी कमिश्नर जेआर हिग्गिन्स ने उनके ऊपर 10, 000 रुपए का इनाम रखा। साथ ही उनके करीबी साथियों गणतम डोरा और मल्लू डोरा पर एक-एक हजार रुपए का इनाम रखा गया। अप्रैल 1924 में अंग्रेजों ने अपने अधिकारी टीजी रदरफोर्ड को जनजातीय विद्रोह से निपटने की जिम्मेदारी सौंपी, जिन्होंने अल्लूरी सीताराम राजू और उनके साथियों का पता लगाने के लिए निर्दोषों को प्रताड़ित करना शुरू कर दिया। उस ज़माने में उन्हें पकड़ने के लिए अंग्रेजों को 40 लाख रुपए खर्च करने पड़े थे।

अल्लूरी सीताराम राजू आज़ादी की लड़ाई में महात्मा गाँधी से भी प्रेरित थे, लेकिन उनकी अहिंसा उन्हें समझ में नहीं आती थी। वो कहते थे कि हिंसा ज़रूरी है ऐसी परिस्थिति में। वो कहते थे कि कई बार वो सिर्फ इसीलिए आक्रांता यूरोपियनों को मारने में सफल नहीं हो पाते हैं, क्योंकि अंग्रेजों के इर्दगिर्द कई भारतीय रहते थे जिन्हें वो नुकसान नहीं पहुँचाना चाहते थे। सितंबर 2022 में दमरापल्ली में उन्होंने सभी भारतीयों को जाने दिया था, तब अंग्रेजों पर गोली चलाई थी।

उस समय ईसाई मिशनरियों ने भी जनजातीय समाज को निशाना बनाना शुरू कर दिया था, लेकिन अल्लुरी सीताराम राजू धर्मांतरण के खिलाफ थे। अंग्रेजों ने गनतम डोरा को मार डाला था और मल्लू डोरा को पकड़ कर आजीवन कारावास की सज़ा सुना दी थी। बाद में मल्लू डोरा लोकसभा सांसद भी बने। अल्लुरी सीताराम राजू की शुरू में एक साधु की छवि थी, जो आयुर्वेद से लोगों को ठीक भी करते थे। 7 मई, 1924 को बिना किसी सुनवाई वगैरह के एक पेड़ से बाँध कर अंग्रेजों ने उनकी हत्या कर दी थी।

जनजातीय समाज के लोग अल्लूरी सीताराम राजू के नाम और उनकी युद्धकला के कारण उन्हें भगवान श्रीराम के रूप में भी देखा करते थे। उनकी हत्या के बाद महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस – सभी ने उनकी प्रशंसा की थी। गोंड और कोया जनजातीय समाज ने उन्हें अपना नायक माना। आंध्र प्रदेश ही नहीं, बल्कि ओडिशा में भी उनकी गाथा प्रचलित हुई, क्योंकि आंध्र-ओडिशा सीमा पर वो खासे सक्रिय रहे थे। वो काली के पुजारी थे।

Join OpIndia's official WhatsApp channel

  सहयोग करें  

एनडीटीवी हो या 'द वायर', इन्हें कभी पैसों की कमी नहीं होती। देश-विदेश से क्रांति के नाम पर ख़ूब फ़ंडिग मिलती है इन्हें। इनसे लड़ने के लिए हमारे हाथ मज़बूत करें। जितना बन सके, सहयोग करें

अनुपम कुमार सिंह
अनुपम कुमार सिंहhttp://anupamkrsin.wordpress.com
भारत की सनातन परंपरा के पुनर्जागरण के अभियान में 'गिलहरी योगदान' दे रहा एक छोटा सा सिपाही, जिसे भारतीय इतिहास, संस्कृति, राजनीति और सिनेमा की समझ है। पढ़ाई कम्प्यूटर साइंस से हुई, लेकिन यात्रा मीडिया की चल रही है। अपने लेखों के जरिए समसामयिक विषयों के विश्लेषण के साथ-साथ वो चीजें आपके समक्ष लाने का प्रयास करता हूँ, जिन पर मुख्यधारा की मीडिया का एक बड़ा वर्ग पर्दा डालने की कोशिश में लगा रहता है।

संबंधित ख़बरें

ख़ास ख़बरें

कानपुर में 120 मंदिर बंद मिले: जिन्होंने देवस्थल को बिरयानी की दुकान से लेकर बना दिया कूड़ाघर… वे अब कह रहे हमने कब्जा नहीं...

कानपुर की मेयर प्रमिला पांडेय ने एलान किया है कि सभी मंदिरों को कब्ज़ा मुक्त करवा के वहाँ विधि-विधान से पूजापाठ शुरू की जाएगी

नाम अब्दुल मोहसेन, लेकिन इस्लाम से ऐसी ‘घृणा’ कि जर्मनी के क्रिसमस मार्केट में भाड़े की BMW से लोगों को रौंद डाला: 200+ घायलों...

भारत सरकार ने यह भी बताया कि जर्मनी में भारतीय मिशन घायलों और उनके परिवारों से लगातार संपर्क में है और हर संभव मदद मुहैया करा रहा है।
- विज्ञापन -