पंजाब में हुए जलियाँवाला नरसंहार के बारे में आप सभी ने पढ़ा होगा, लेकिन क्या आपको पता है कि ऐसा ही एक जलियाँवाला बाग़ राजस्थान में भी है? जिस तरह पंजाब का अमृतसर बलिदानियों के खून से सनी मिट्टी होने के कारण हर एक देशभक्त के लिए पवित्र स्थल है, ठीक उसी तरह का महत्व राजस्थान के मानगढ़ का भी है। मानगढ़ में अंग्रेजों ने निशाना बनाया था जनजातीय समाज को, भीलों को, जिन्हें 1000 से भी अधिक संख्या में क्रूरता से मार डाला गया था।
राजस्थान और गुजरात की सीमा पर ये नरसंहार जलियाँवाला बाग़ सामूहिक हत्याकांड से 6 वर्ष पहले हुआ था, नवंबर 1913 में। इस महीने की 17 तारीख़ को यहाँ की भूमि बलिदानी भीलों के खून से रंग गई थी। मानगढ़, अरावली की पहाड़ियों पर स्थित है। भील समाज के बारे में विख्यात है कि कैसे उन्होंने मेवाड़ के राणाओं के साथ मिल कर इस्लामी आक्रांताओं को धूल चटाई थी। महाराणा प्रताप की सेना में भील तीरंदाज़ होते थे, जो मातृभूमि के लिए धन और सत्ता का लालच छोड़ कर मेवाड़ का साथ देते थे।
भील समाज आपको राजस्थान और गुजरात के अलावा मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में भी मिल जाएँगे। जहाँ एक तरफ जमींदारी प्रथा के युग में भीलों के लिए समस्या खड़ी हो गई थीं, वहीं दूसरी तरफ अंग्रेजों के कानूनों ने उनके लिए चीजें और खराब कर दी। अंग्रेज जल, जंगल और जमीन से जनजातीय समाज का हक़ छीनने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते थे। भीलों का इस्तेमाल बंधुआ मजदूरों के तौर पर किया जाने लगा था।
1899-1900 में डेक्कन और बॉम्बे प्रेसिडेंसी में भयंकर सूखा पड़ा, जिससे लाखों लोगों की मौत हुई। 6 लाख मृतकों में जनजातीय समाज के लोगों की संख्या सबसे अधिक थी। बँसवारा और संतरामपुर जैसी रियासतों में इसका सबसे ज्यादा असर देखने को मिला था। इसके बाद भारत में कुछ ऐसे महान लोग हुए, जिन्होंने सामाजिक रूप से पिछड़े और हाशिए पर चले गए समाज को मुख्यधारा में लाने के लिए प्रयास शुरू किया।
महात्मा गाँधी और वीर विनायक दामोदर सावरकर जैसे नेताओं ने दलितों के उद्धार के लिए कई कार्य किए। लेकिन, इस सूची में एक और नाम आता है गोविंद गिरी का, जिन्हें सम्मान के साथ लोग गोविंद गुरु भी कहते थे। उनका जन्म राजस्थान के डूंगरपुर में सन् 1874 में एक बंजारा परिवार में हुआ था। वो संतरामपुर में एक बंधुआ मजदूर के रूप में काम करते थे। सूखे के दौरान वो भील समाज के साथ करीब से काम करने लगे।
क्रूरता और सूखे से तंग आकर भील समाज के कई लोगों को उस समय डाका का सहारा लेना पड़ता था। गोविंद गिरी का मानना था कि समाजिक-आर्थिक रूप से इस समाज का हाशिए पर चला जाना और शराब का व्यसन – ये दोनों समुदाय के पतन के मुख्य कारण थे। सिलिए, उन्होंने 1908 में ‘भगत अभियान’ शुरू किया। उन्होंने भील समाज के बीच उनकी सनातन जड़ों को मजबूत करने के लिए ये अभियान चलाया। उनकी पुरानी हिन्दू संस्कृति के माध्यम से ही उन्हें समस्या से निजात दिलाने की कोशिश होने लगी।
इसके तहत कई भील शाकाहारी बन गए। साथ ही कइयों ने शराब का व्यसन भी छोड़ दिया। गोविंद गिरी ने न सिर्फ उन्हें बतौर बंधुआ मजदूर काम न करने की सलाह दी, बल्कि उनके भीतर और अधिकारों के लिए लड़ाई का जज्बा भी भरा। डूंगरपुर, बँसवारा और संतरामपुर की रियासतों को भील समाज का ये उत्थान पसंद नहीं आया। भील समाज ने रियासतों और अंग्रेजों से अपनी मजदूरी का उचित मेहनताना माँगना शुरू कर दिया।
कइयों ने संघर्ष के लिए हथियार उठाया और काम भी रोक दिया, जिससे अर्थव्यवस्था को भी नुकसान पहुँचा। अक्टूबर 1913 में गोविंद गिरी भील साथियों के साथ मानगढ़ पहुँचे। ये बँसवारा और संतरामपुर की रियासतों के बीच घने जंगल में स्थित स्थान था। कार्तिक महीने में एक हिन्दू त्योहार के लिए उन्होंने होने अनुयायियों को वहाँ बुलाया। ये 13 नवंबर का दिन था। उस दिन कार्तिक पूर्णिमा था। इसे त्रिपुरारी पूर्णिमा भी कहते हैं। इसी दिन देव-दीपावली का त्योहार भी मनाई जाती है।
उस दिन एक बड़ा हवन होने वाला था, जिसे स्थानीय लोग धुनी भी कहते हैं। उस दिन मानगढ़ की पहाड़ियों पर 50,000 से लेकर 1 लाख तक के बीच में भीलों का जमावड़ा हुआ। अफवाह ये फ़ैल गई कि भील लोग रियासतों को उखाड़ फेंक कर अपना अलग राज्य बनाना चाहते हैं। रियासतों ने अंग्रेजों से मदद माँगी, क्योंकि वो उनके ही टट्टू थे। उस ब्रिटिश अधिकारी का नाम RE हैमिलटन था, जिसे इस घटना के निरीक्षण के लिए भेजा गया।
उसने बल-प्रयोग का निर्णय लिया। बँसवारा, डूंगरपुर, और संतरामपुर की संयुक्त सेनाएँ अंग्रेजों के नेतृत्व में हिन्दू भीलों का दमन करने पहुँच गई। मेवाड़ स्टेट के ‘भील कॉर्प्स’ को भी पहाड़ी को घेर लेने का आदेश दे दिया गया। ब्रिटिश सैन्य अधिकारी कर्नल शेरटन और मेजर एस बेली के अलावा कैप्टन ई स्टीली इस दमनकारी अभियान में सबसे आगे थे। मशीनगन और बंदूकें लहरा उठीं। भीलों से कहा गया कि वो 15 नवंबर तक इस जगह को खाली कर दें।
भील समाज के लोगों ने वहाँ से हटने और आत्म-समर्पण करने से साफ़ इनकार कर दिया। इसके बाद मशीनगन और बंदूकों से गोलीबारी शुरू कर दी गई, चारों तरफ से। खच्चरों और गदहों पर रख कर ऑटोमैटिक मशीनगन ले जाए गए थे। उन्हें भी बिना रुके गोलीबारी के आदेश दिए गए। आँकड़ों की मानें तो 1000-1500 भीलों की उस दिन सामूहिक हत्या कर दी गई। गोविंद गिरी समेत कई भील नेताओं को भी गिरफ्तार कर लिया गया।
फरवरी 1914 में उन्हें अदालत द्वारा सरकार के विरुद्ध बगावत का दोषी पाया गया। उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई। हालाँकि, उनके अच्छे व्यवहार और लोकप्रियता के कारण उन्हें 1919 में ही जेल से छोड़ना पड़ा। लेकिन, जिन रियासतों में उनके सबसे ज्यादा अनुयायी थे, वहाँ उनके घुसने पर ही प्रतिबंध लगा दिया गया। सन् 1931 में गुजरात के लिम्बडी के नजदीक उनका निधन हुआ। गुजरात के गोधरा में उनकी याद में 2015 में ‘गोविंद गुरु यूनिवर्सिटी’ की स्थापना की गई।
मानगढ़ का नरसंहार ब्रिटिश इंडिया के सबसे खौफनाक चैप्टर्स में से एक है। इसमें अंग्रेजों के अलावा रियासतों का भी दोष था। बँसवारा-पंचमहल-डूंगरपुर के भील आज भी उस खौफनाक वारदात की कहानी सुनाते हैं। जलियाँवाला बाग़ में 1000 की हत्या की गई थी, मानगढ़ में इससे डेढ़ गुना से भी अधिक संख्या में लोगों को मारा गया। लेकिन, इसने उन सभी को देशवासियों के दिलों में अमर कर दिया, वेडसा गाँव के गोविंद गिरी के साथ ही।
वो गोविंद गिरी ही थे, जिन्होंने व्यसनों से दूर रहने और भक्ति में भील समाज के उत्थान का उपाय देखा। ‘इंडिया टुडे’ में सितंबर 2012 में प्रकाशित एक लेख में स्थानीय भीलों के हवाले से बताया गया था कि कैसे उन्होंने अपने पूर्वजों से सुना था कि एक अंग्रेज अधिकारी ने थोड़ी देर के लिए गोलीबारी तभी रोकी, जब उसने देखा कि एक शिशु अपनी मरी हुई माँ के स्तनों से दूध पीने की कोशश कर रहा है। गदहों पर मशीनगन रख कर उन्हें चारों तरफ घुमाया जाता था, ताकि तबाही ज्यादा से ज्यादा हो।
कई लोग तो पहाड़ी से भागने की कोशिश में फिसल कर गिरे और उनकी मृत्यु हो गई। भील समाज के बीच इस नरसंहार ने ऐसा खौफ का आलम बिठा दिया कि आज़ादी के वर्षों बाद तक वो मानगढ़ नहीं गए। ‘भगत अभियान’ की सफलता के लिए गोविंद गिरी के नेतृत्व में हर गाँव में ‘सम्फ सभा’ का आयोजन किया जाता था। वहाँ ‘जगमंदिर सत का चोपड़ा’ नाम से एक स्मारक भी लोगों ने बनाया। गोविंद गुरु ने 1890 के दशक में ही भील उत्थान का कार्य शुरू कर दिया था।
इसके तहत भील समाज वैदिक देव अग्नि की पूजा करते थे। हवन किया जाता था। धुनी रमय जाता था। सन् 1910 में उनसे प्रभावित भीलों ने अंग्रेजों के सामने अपने अधिकार के लिए 33 माँगें रखी थीं, जो बंधुआ मजदूरी से संबंधित थीं। भील समाज पर उस समय कर भी काफी ज़्यादा लगा दिया गया था। अंग्रेजों ने माँगें नकारते हुए आंदोलन को खत्म करने में बल लगा दिया। अंग्रेज इससे भी नाराज़ थे कि संतरामपुर में एक पुलिस थाने पर हुए हमले में उनका एक अधिकारी गुल मोहम्मद मारा गया था।
#Gujarat has a Jallianwala Bagh like dark page of history too.
— Desh Bhakt 🇮🇳 (@DeshBhaktReva) June 8, 2021
It was when Govind Guru had launched a movement called “Bhagat movement” in the late 19th century among Bhil tribes, which aimed to ’emancipate’ them by prescribing, among other things, adherence to vegetarianism… pic.twitter.com/Ady2IvV0Yr
इस हमले का नेतृत्व गोविंद गिरी के शिष्य धीरजी पाघरी ने किया था। भीलों का एक ही नारा था – ‘ओ भूरेटिया नई मानू रे, नई मानू (ओ अंग्रेजों, हम तुम्हारे सामने नहीं झुकेंगे।)’ भील समाज के पास देशी बंदूकें और तलवारे थीं, लेकिन ब्रिटिश मशीनगनों के सामने ये कहाँ तक टिकतीं। इसके बाद 900 भीलों को गिरफ्तार किया गया था। गुजरात के कम्बोई में गोविंद गुरु समाधि मंदिर है, जहाँ उन्हें मानने वाले आज भी जाते हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब से ही उन्होंने इस नरसंहार को ध्यान में रखते हुए इसे इतिहास में स्थान दिलाने की कोशिश की और भीलों को सम्मान दिया। उन्होंने 2013 में इस घटना के 100 वर्ष पूरे होने पर श्रद्धांजलि कार्यक्रम का आयोजन करवाया। गोविंद गुरु के पोते मानसिंह को इस समरोह में सम्मानित किया गया। एक बॉटनिकल गार्डन का उद्घाटन हुआ। 31 जुलाई, 2013 को हुए उस कार्यक्रम में 80,000 भील पहुँचे थे।