Tuesday, November 5, 2024
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पुणे में बैठ कर दिल्ली चलाने वाला मराठा: 16 की उम्र में सँभाली कमान, निज़ाम और मैसूर को किया चित

पेशवा माधवराव ने मराठा साम्राज्य को फिर उसी स्वर्णयुग में वापस पहुँचा दिया, जहाँ वो पानीपत के युद्ध के पहले था। 16 साल के बच्चे ने एक दशक में भारत का मानचित्र बदल कर रख दिया। दुर्भाग्यवश 1772 में माधवराव का मात्र 27 वर्ष की उम्र में निधन हो गया।

पानीपत का तीसरा युद्ध मराठा साम्राज्य और अफ़ग़ानिस्तान के बादशाह अहमद शाह दुर्रानी के बीच हुआ था। वह युद्ध इतना भीषण था कि उसमें 1 लाख मराठा सैनिकों के मारे जाने की बात कही जाती है। इस युद्ध में मराठा सेना का नेतृत्व सदाशिव राव भाउ ने किया था। वो छत्रपति और पेशवा के बाद तीसरे स्थान पर आते थे। युद्ध में सदाशिव राव का साथ श्रीमंत विश्वास राव पेशवा ने दिया था। वो पेशवा बालाजी बाजीराव भट्ट के बेटे थे। युद्ध में उनकी मृत्यु हो गई। इससे आहत सदाशिव अपने हाथी को छोड़ कर घोड़े पर सवार हुए और दुर्रानी की सेना पर प्रलय बन कर टूट पड़े। मराठा सेना ने हाथी के ऊपर सदाशिव का स्थान खाली देख कर सोचा कि उनके सेनापति मारे गए हैं। सेना में भगदड़ मच गई और दुर्रानी ने इसका फ़ायदा उठाया। सदाशिव भी वीरगति को प्राप्त हुए।

ये कहानी यहीं से शुरू होती है। जनवरी 1761 में हुए इस युद्ध के बाद उसी साल जून में एक 16 वर्ष के लड़के ने राजाराम भोंसले के छत्र तले मराठा साम्राज्य की कमान सँभाली। वो विश्वास राव के भाई थे। उन्होंने पानीपत के युद्ध की हार को क़रीब से देखा था। उन्हें पता था कि ये लड़ाई अहमद शाह दुर्रानी से नहीं, बल्कि अवध के नवाब शुजाउद्दौला और अफ़ग़ान रोहिल्ला के साथ भी थी। इन सभी ने गठबंधन बना कर मराठा साम्राज्य को चुनौती दी थी। उस 16 वर्ष के लड़के का नाम था माधवराव। माधवराव मराठा साम्रज्य के 8वें पेशवा थे। पानीपत के तीसरे युद्ध ने न सिर्फ़ उनके भाई विश्वासराव, बल्कि उनके चाचा सदाशिव राव की भी बलि ले ली थी। यह बहुत ही कठिन समय था।

उनके पेशवा बनने के एक महीने पहले ही उनके पिता नानासाहब की मृत्यु हो गई थी। हैदराबाद का निज़ाम मराठा साम्राज्य पर बुरी नज़र रखे हुए था। सदाशिव के नेतृत्व में मराठों ने उसे फ़रवरी 1760 में धूल चटाई थी, पानीपत के तीसरे युद्ध के लगभग 1 वर्ष पहले। वह अपनी खोई ज़मीन वापस पाने को बेचैन था। निज़ाम ने उस युद्ध में अहमदनगर, दौलताबाद, बुरहानपुर और बीजापुर जैसे बड़े क्षेत्र गँवा दिए थे। ऐसी कठिनाइयों के बीच मराठा को पुनर्जीवित करने का श्रेय माधवराव को दिया जाता है। भले ही नवंबर 18, 1772 में कम उम्र में ही उनकी मृत्यु हो गई, लेकिन उससे पहले उन्होंने ऐसे-ऐसे कारनामे किए कि इतिहास में उनका नाम दर्ज हो गया।

अपनी मृत्यु के वर्ष ही जनवरी में उन्होंने मुग़ल बादशाह शाह आलम II को फिर से दिल्ली में स्थापित किया। इससे पहले आलम इलाहबाद में निर्वासन की ज़िंदगी जी रहे थे। लेकिन माधवराव की पहली बड़ी परीक्षा हुई दिसंबर 1761 में, जब निज़ाम ने मौके की ताक में पुणे की ओर कूच किया। रघुनाथराव के नेतृत्व में मराठों ने फिर से निज़ाम को धूल चटाई। हालाँकि, इस युद्ध में सेना का नेतृत्व करने वाले माधवराव के चाचा रघुनाथराव भी पेशवा बनना चाहते थे और एक तरह से पुणे में आंतरिक कलह चल रहा था। लेकिन, निज़ाम इसका फ़ायदा नहीं उठा पाया। उधर, जयपुर का राजपूत राजा माधव सिंह भी मराठा के ख़िलाफ़ मोर्चा खोले हुए था।

अगस्त 1763 में निज़ाम और मराठा एक बार फिर आमने-सामने थे। रघुनाथराव भी मराठा सेना का नेतृत्व कर रहे थे। निज़ाम ने पुणे की ओर बढ़ते समय मंदिरों को तोड़ा था। माँ पार्वती की प्रतिमा को खंडित कर दिया था। क्रोधित रघुनाथराव ने बदला लेने की ठान रखी थी। लेकिन उन्हें अपने भतीजे का प्रभुत्व भी नहीं पसंद था। गोदावरी के दक्षिणी किनारे पर स्थित राक्षसभुवन क्षेत्र में दोनों सेनाएँ भिड़ीं। निज़ाम का वजीर विट्ठल सुन्दर हैदराबाद की सेना का नेतृत्व कर रहा था। मराठा इतिहास पर कई पुस्तकें लिख चुके उदय कुलकर्णी के अनुसार, युद्ध के बीच में अचानक से रघुनाथराव दुश्मनों से घिर गए थे। तब माधवराव की रणनीतिक चपलता के कारण उनकी जान बची और हैदराबाद का वज़ीर मारा गया। इसके बाद चाचा भी समझ गए कि भतीजे में कुछ बात है और आंतरिक कलह भी कम हो गई।

अमरनाथ डोगरा अपनी पुस्तक ‘दत्तोपंत ठेंगड़ी जीवन दर्शन (वॉल्यूम 3)’ में एक घटना का जिक्र करते हैं, जिससे हमें माधवराव पेशवा के व्यवहार और सोच का पता चलता है। एक बार हाथियों की लड़ाई आयोजित की गई थी, जिसे देखने के लिए पेशवा भी मौजूद थे। तभी एक हाथी पागल हो उठा और वो दर्शक दीर्घा में पेशवा की ओर दौड़ पड़ा। उनका अंगरक्षक खंडेराव बहुत बहादुर था। बावजूद इसके वह वहाँ से भाग खड़ा हुआ। माधवराव बाल-बाल बचे। बाद में लोगों ने उनसे अनुरोध किया कि भाग खड़े होने वाले अंगरक्षक को कार्यमुक्त कर दें। लेकिन, पेशवा माधवराव ने ऐसा नहीं किया। उनका मानना था कि वीर से वीर व्यक्ति भी असमंजस की स्थिति में भयाक्रांत हो जाता है।

रघुनाथ राव भी बहादुर थे। उन्होंने सिंध के पार तक भगवा ध्वज लहराया था। माधवराव द्वारा जान बचाए जाने के 4 वर्षों बाद उन्होंने फिर से बगावती तेवर तेज़ कर दिए। इन कलह के कारण पेशवा को कर्नाटक और उत्तर भारत के कई हिस्सों में सैन्य अभियान का विचार त्यागना पड़ा। एमएस नरवणे अपनी पुस्तक ‘Battles of the Honourable East India Company: Making of the Raj‘ में लिखते हैं कि पेशवा माधवराव उदार थे और परिवार के बीच युद्ध को टालने के लिए उन्होंने बहुतों बार प्रयास किया। वो बड़ों का सम्मान करते थे। अंततः युद्ध हुआ और थोड़प के युद्ध में रघुनाथराव की हार हुई। उन्हें पुणे लाया गया। लेकिन पेशवा ने उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई नहीं की। बस उनकी सक्रियता कम की गई। नरवणे लिखते हैं कि पेशवा की अति-उदारता एक ग़लती थी, क्योंकि रघुनाथ राव सुधरने वाले लोगों में से नहीं थे।

इसी तरह जानोजी भोंसले भी पेशवा के ख़िलाफ़ था। वो रघुनाथराव की तरफ़ था। माधवराव ने उसे ठीक करने के लिए निज़ाम का इस्तेमाल किया। इसके बाद भोंसले आजीवन पेशवा के प्रति वफादार बना रहा। उसने 8 लाख रुपए के मूल्य के क्षेत्र भी पेशवा के हवाले किया। मैसूर का हैदर अली भी मराठा का दुश्मन था। सन 1771 में उसे भी पराजित किया गया। रुहेलों, राजपूतों और जाटों को भी मराठा साम्राज्य के आधीन लाने का श्रेय माधवराव को ही जाता है। असल में माधवराव ने हैदर अली को कई बार हराया था। उसे 1762 में भी पराजित किया गया था, लेकिन वो जंगलों में भाग गया। अगर उस वक़्त बीमारी की वजह से पेशवा को वापस पुणे नहीं लौटना होता तो शायद न मैसूर का राज रहता और न ही टीपू सुल्तान।

मई 1764 में हैदर अली को जंगलों से खींच कर निकाला गया और उसे पराजित किया गया। प्रोफ़ेसर एआर कुलकर्णी अपनी पुस्तक ‘The Marathas‘ में लिखते हैं कि इस युद्ध के बाद हैदर अली और उसका खानदान मराठा नाम सुन कर ही काँप उठता था। इसके बाद 1765 में माधवराव ने हैदर अली के ख़िलाफ़ फिर से मोर्चा खोला और स्वयं सेना का नेतृत्व किया। हैदर अली को फिर पराजित किया गया और बदले में उसने जो भी मराठा क्षेत्र कब्जा रखे थे, वो वापस आ गए। जब अंग्रेजों और मैसूर के बीच युद्ध हुआ, तब दोनों पक्ष पेशवा को अपनी तरफ करना चाह रहे थे। लेकिन बदले में पेशवा ने निज़ाम को उखाड़ फेंकने की शर्त रख दी, जिसने अंग्रेजों को सहमा दिया। अंग्रेजों को लगा कि इससे मराठा साम्राज्य की शक्ति दुगुनी हो जाएगी।

ऐसी कठिन परिस्थितियों में भी मराठा दिल्ली की तरफ़ बढ़े। वहाँ पहुँच कर उन्होंने मुग़ल बादशाह को उसका खोया हुआ सिंहासन दिलाया। इससे पहले माधवराव ने दिल्ली भेजे सेनानियों को पत्र लिख कर कहा था कि उस क्षेत्र में उपस्थित 50,000 मराठा सैनिकों का फायदा उठाया जाए और दिल्ली सहित आसपास के क्षेत्रों में ऐसे लोगों को बिठाया जाए, जो मराठा के अधीन कार्य करें। मुग़ल बादशाह ऐसा करने के लिए राजी हुआ और इसीलिए उसकी ताजपोशी कर दी गई। माधवराव ने अपने पूर्वजों की ग़लतियों से सीख ली। उन्होंने मराठा कमांडरों से कहा कि स्वार्थी होने से बात बिगड़ जाती है। इससे पहले मराठा सरदार एक-दूसरे की खामियाँ निकाल कर जीती हुई बाज़ी हार जाते थे। माधवराव ने इस समास्या की ओर ध्यान देते हुए इसे ख़त्म किया।

पेशवा माधवराव ने मराठा साम्राज्य को फिर उसी स्वर्णयुग में वापस पहुँचा दिया, जहाँ वो पानीपत के युद्ध के पहले था। हजारों सैनिकों के मारे जाने और लाखों लोगों के तबाह होने के बाद एक 16 साल के बच्चे ने कमान अपने हाथ में ली और एक दशक में भारत का मानचित्र बदल कर रख दिया। दुर्भाग्यवश 1772 में माधवराव का मात्र 27 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। उन्हें क्षय रोग (टीबी) हो गया था। माधवराव 11 साल की अवधि में ही वो कर गए, जिसे करने में बड़े बड़े-बड़े योद्धाओं को दशकों लगे। छत्रपति शिवाजी के सम्राज्य को उन्होंने चारों ओर फैलाया। पारिवारिक कलह और चारों ओर दुश्मनों से घिरे रहने के बावजूद इतनी कम उम्र में दिल्ली में भगवा लहराना आसान काम नहीं था।

ये भी पढ़ें: अयोध्या, प्रयाग, काशी, मथुरा: ‘हिन्दू पद पादशाही’ के लिए मराठों की संघर्ष गाथा

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अनुपम कुमार सिंह
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