उत्तराखंड का आदिकालीन सभ्यताओं से गहरा नाता रहा है। यहाँ ऐसे अनेक स्थान मौजूद हैं, जहाँ ऐतिहासिक एवं पौराणिक काल के अवशेष बिखरे पड़े हैं। इन्हीं में एक स्थल है देहरादून जिले के जौनसार-बावर का लाखामंडल गाँव। माना जाता है कि द्वापर युग में दुर्योधन ने पाँचों पांडवों और उनकी माता कुंती को जीवित जलाने के लिए यहाँ लाक्षागृह का निर्माण किया था। एएसआइ को खुदाई के दौरान यहाँ मिले सैकड़ों शिवलिंग व दुर्लभ मूर्तियाँ इसकी तस्दीक करती हैं। युवा पत्रकार आशीष नौटियाल की यह फोटो-फीचर रिपोर्ट लाखामंडल पर ही है।
यमुना नदी के उत्तरी छोर पर स्थित देहरादून जिले के जौनसार-बावर का लाखामंडल गाँव ऐतिहासिक ही नहीं पौराणिक दृष्टि से भी विशेष महत्व रखता है। समुद्रतल से 1372 मीटर की ऊँचाई पर स्थित लाखामंडल गाँव देहरादून से 128 किमी, चकराता से 60 किमी और पहाड़ों की रानी मसूरी से 75 किमी की दूरी पर है। लाखामंडल की प्राचीनता को कौरव-पांडवों से जोड़कर देखा जाता है।
मान्यता है कि कौरवों ने पांडवों व उनकी माता कुंती को जीवित जलाने के लिए ही यहाँ लाक्षागृह (लाख का घर) का निर्माण कराया था। स्थानीय लोग बताते हैं कि लाखामंडल में वह ऐतिहासिक गुफा आज भी मौजूद है, जिससे होकर पांडव सकुशल बाहर निकल आए थे। लोगों का कहना है कि इसके बाद पांडवों ने ‘चक्रनगरी’ में एक माह बिताया, जिसे आज चकराता कहते हैं। लाखामंडल के अलावा हनोल, थैना व मैंद्रथ में खुदाई के दौरान मिले पौराणिक शिवलिंग व मूर्तियाँ गवाह हैं कि इस क्षेत्र में पांडवों का वास रहा है।
कहते हैं कि पांडवों के अज्ञातवास काल में युधिष्ठिर ने लाखामंडल स्थित लाक्षेश्वर मंदिर के प्रांगण में जिस शिवलिंग की स्थापना की थी, वह आज भी विद्यमान है। इसी लिंग के सामने दो द्वारपालों की मूर्तियाँ हैं, जो पश्चिम की ओर मुँह करके खड़े हैं। इनमें से एक का हाथ कटा हुआ है। शिव को समर्पित लाक्षेश्वर मंदिर 12-13 वीं सदी में निर्मित नागर शैली का मंदिर है।