ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कॉन्ग्रेस क्या छोड़ी, कॉन्ग्रेस की पूरी फौज उनके परिवार की कुंडली खगालने लगी। उनके विकिपीडिया से छेड़छाड़ की गई। सन् 1957 की उस घटना का हवाला दे उन्हें ‘गद्दार’ कहने की कोशिश की गई जिस पर इतिहासकार एकमत नहीं हैं। लेकिन, हम आपको आज उस इतिहास में ले चलते हैं जो सन् 57 से भी पुराना है। जिसके लिखित और प्रमाणिक दस्तावेज हैं। जिसे अपनी सत्यता की पुष्टि के लिए लिबरल वामपंथियों के प्रभाव वाले विकिपीडिया प्रोपेगेंडा की दरकार नहीं है। इस इतिहास की रोशनी में आप सिंधिया राजपरिवार और मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के राघोगढ़ घराने की अदावत को भी बेहतर तरीके से समझ पाएँगे। जान सकेंगे कि क्यों ज्योतिरादित्य और उनके दिवगंत पिता माधराव सिंधिया का कॉन्ग्रेस में सीढ़ी चढ़ते जाना दिग्विजय को खटकता रहा है। मध्य प्रदेश के राजनीतिक उठापठक के बीच यह जानना बेहद जरूरी है, क्योंकि ज्योतिरादित्य के कॉन्ग्रेस से मोहभंग का सबसे बड़ा कारण पर्दे के पीछे दिग्विजय सिंह के तीन-तिकड़म ही बताए जाते हैं।
आज याद दिलाया जा रहा है कि 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में सिंधिया के पूर्वजों ने अंग्रेजों का साथ दिया था। लेकिन, क्या किसी खानदान में किसी एक व्यक्ति की भूल के कारण पूरी वंशावली को बदनाम किया जा सकता है? ज्योतिरादित्य सिंधिया के अंदर महादजी शिंदे का भी तो रक्त है, जिन्होंने पानीपत की तीसरी लड़ाई के एक दशक बाद दिल्ली जीत कर पूरे हिंदुस्तान पर मराठा साम्राज्य का झंडा लहराने में अहम किरदार निभाया था। महादजी शिंदे एक ऐसा नाम है, जिनकी वीरता की गाथाओं के सामने ज्योतोरादित्य सिंधिया को गाली देने वाले एकदम तुच्छ नज़र आते हैं।
महादजी शिंदे के पिता राणोजी राव शिंदे ग्वालियर के सिंधिया राजवंश के संस्थापक थे। उत्तर भारत में मराठा परचम लहराने का श्रेय सिंधिया राजवंश को ही दिया जाता है। पेशवा के सबसे विश्वस्त सिपहसालारों में से एक थे वे। सम्पूर्ण भारतवर्ष पर अपना अधिपत्य कायम करने वाला मराठा महासाम्राज्य जब अपने शबाब पर था तो इसके तीन प्रमुख स्तम्भ थे- पेशवा माधवराव, उनके मंत्री नानाजी फडणवीस और तीसरे सिंधिया महादजी। ये वो समय था जब मुग़ल भी मराठाओं के तलवे चाट रहे थे और दिल्ली भी पुणे के इशारे पर नाचती थी।
सन् 1771 में दिल्ली पर भगवा फहराने वाले के खानदान को सिर्फ़ क्या इसीलिए गाली दी जानी चाहिए क्योंकि उनके वंश में कथित तौर पर कोई एक अंग्रेजों का साथी निकल गया? इतिहास 1857 से तो शुरू नहीं होता। राम मंदिर मामले में भी वामपंथियों का इतिहास बाबरी मस्जिद बनने से ही शुरू होती है। महादजी शिंदे ने 1771 में दिल्ली की तरफ कूच किया और वहाँ भगवा लहराया। इसके बाद उन्होंने मिर्ज़ा जवान बख्त को दिल्ली की गद्दी के लिए चुना और उसके सामने ही मुगलों की सारी सम्पत्ति जब्त की।
हालाँकि, बाद में मुग़ल बादशाह शाह आलम मराठाओं के तलवे चाटने लगा। जब बादशाह ने सारी शर्तें मान ली तो महादजी ने उसे दिल्ली की गद्दी वापस दे दी और पानीपत के युद्ध में जो मराठाओं का खोया गौरव था, उसे हासिल किया। इसके बाद मराठा का एक ही दुश्मन बचा और वो था रोहिल्ला शासक। रोहिल्ला नजीब ख़ान ने सिंधिया खानदान को बड़ा नुकसान पहुँचाया था। क्रोधित महादनी ने नजीब ख़ान की कब्र को तहस-नहस कर डाला। माधवराव पेशवा जब तक ज़िंदा रहे, महादजी उनके विश्वस्त बने रहे। पेशवा पुणे में बैठ कर अन्य कार्यों पर अपना ध्यान केंद्रित रख सकते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि उत्तर भारत का कामकाज देखने के लिए सिंधिया परिवार है। उन्होंने अपना ध्यान निज़ाम और हैदर को सबक सिखाने में लगाया।
उस दौरान राघोगढ़ के राजा थे बलवंत सिंह। पहले तो वो पेशवा के सामने सिर झुकाते थे, लेकिन बाद में उन्होंने गद्दारी का रास्ता चुना। जब अंग्रेजों और महादजी शिंदे के बीच युद्ध हुआ (पहला मराठा-अंग्रेजी युद्ध), तब बलवंत ने ब्रिटिश का पक्ष लिया। गुस्साए महादजी शिंदे ने 1785 में अम्बाजी इंगले के नेतृत्व में एक भारी सेना राघोगढ़ भेजी और गद्दारी का सबक सिखाया। राजा बलवंत सिंह और उनके बेटे जय सिंह को बंदी बना लिया गया। इसके बाद जयपुर और जोधपुर के राजपुर घराने लगातार महादजी पर दबाव बनाने लगे कि वो राघोगढ़ राजपरिवार को पुनर्स्थापित करें। दोनों राजघराने राघोगढ़ राजपरिवार के रिश्तेदार थे। महादनी ने आखिर में उनकी माँगें मान ली।
बाद में दौलत राव सिंधिया ने भी राघोगढ़ को हराया और उसे ग्वालियर स्टेट के अंतर्गत ले आए। उस समय तक अंग्रेजों और ग्वालियर के बीच समझौते पर हस्ताक्षर हो चुके थे। जय सिंह अंग्रेजों के प्रति काफ़ी अच्छी राय रखता था। कहता था कि अंग्रेज जहाँ भी जाएँगे, सफल होंगे और सिंधिया का विनाश हो जाएगा। लेकिन, सच्चाई ये है कि महादजी शिंदे और दौलत राव सिंधिया, दोनों ने ही अपने-अपने समय में राघोगढ़ के राजाओं को परास्त किया। ये वही राजघराना है, जिससे मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ताल्लुक रखते हैं।
1760 में मराठा योद्धा दत्ताजी सिंधिया नें बुरारी घाट के युद्ध में अफगानी आतंकियों से लड़ते हुए अपने प्राणों का बलिदान किया था।
— प्रशान्त पटेल उमराव (@ippatel) March 11, 2020
1780 में मराठा योद्धा महादजी सिंधिया नें राघोगढ़ पर हमला करके उसे पछाड़ा था और 1818 में अंग्रेजों की सहायता से राघोगढ़ का उत्तराधिकार विवाद सुलझा था।
राघोगढ़ राजपरिवार के वंशज आजादी के बाद भी सिंधिया राजघराने से मिली हार का ठीस नहीं भूल पाए। इसलिए कहा जाता है कि सियासत में उन्हें जब भी मौका मिला सिंधिया घराने के लोगों को किनारे धकेलने का प्रयास किया। चाहे 1993 में माधवराव सिंधिया को पीछे छोड़ दिग्विजय सिंह का मुख्यमंत्री बनना हो। या फिर 2018 में ज्योतिरादित्य सिंधिया को दरकिनार करने के लिए कमलनाथ का समर्थन करना। यही कारण है कि कमलनाथ के सीएम रहते दिग्विजय सिंह को ‘सुपर सीएम’ कहा जाता रहा। कई मंत्रियों का कहना था कि पर्दे के पीछे से सरकार वही चला रहे हैं।
(सोर्स 1: The Great Maratha Mahadaji Scindia By N. G. Rathod)
(सोर्स 2: History of the Marathas By R.S. Chaurasia)