राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर एक ऐसे लेखक थे, जो गद्य और पद्य – दोनों ही विधाओं में समान रूप से पारंगत थे। विद्रोह और क्रांति हो या फिर श्रृंगार और प्रेम, उन्होंने कविता की हर विधा में साहित्य रचे और अपनी कुशलता दिखाई। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर को इतिहास का अच्छा ज्ञान था और द्वापर युग से उनका लगाव इतना था कि उन्होंने खुद स्वीकारा है कि वो समसामयिक समस्याओं के समाधान के लिए दौड़े-दौड़े हमेशा वहीं चले जाते हैं।
बेगूसराय के सिमरिया में जन्मे दिनकर संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी और उर्दू – हिंदी के अलावा इन चार भाषाओं के भी जानकार थे। मुजफ्फरपुर कॉलेज में बतौर हिंदी विभागाध्यक्ष और भागलपुर कॉलेज में बतौर उपकुलपति काम करने के बाद उन्होंने भारत सरकार के हिंदी सलाहकार के रूप में सेवाएँ दीं। स्वाधीनता के बाद वो बिहार विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष रहे। 12 वर्षों तक सांसद रहे। फिर वो भागलपुर यूनिवर्सिटी में वो बतौर कुलपति लौटे।
यहाँ हम उन रामधारी सिंह दिनकर की बात करेंगे, जो राज्यसभा सांसद थे और जिन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान सत्ता से सवाल पूछने और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की गलतियों पर ऊँगली उठाने में कभी झिझक महसूस नहीं की। भारत-चीन युद्ध इतिहास का एक ऐसा ही प्रसंग है, जब नेहरू के मन से ये भ्रम मिट गया था कि अब अहिंसा का युग आ गया है और भारत को हथियारों व सेना की ज़रूरत ही नहीं है।
फ़रवरी 21, 1963 में राज्यसभा में दिए अपने भाषण में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने समझाया था कि अहिंसा का अर्थ क्या होता है। उन्होंने बताया था कि गाँधी की अहिंसा मात्र अहिंसा ही नहीं थी बल्कि उसमें आग थी, क़ुर्बानी का तेज था और आहुति-धर्म की ज्वाला थी।
उन्होंने कहा था कि हम अहिंसा के मार्ग पर चलेंगे, लेकिन साथ ही हम हथियारों से लैस होकर भी चलेंगे, ताकि हम उन भेड़ियों से अपनी प्राण-रक्षा कर सकें, जो राह चलते साधुओं पर भी अकारण झपट्टा मारते हैं।
ऐसा नहीं है कि राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने ये बात सिर्फ संसद में ही कही थी, बल्कि उनकी कविताओं में भी ये भाव दिखता है। शांति और अहिंसा की उन्होंने हमेशा प्रशंसा की है लेकिन साथ ही खुद की रक्षा के लिए, आत्म-सम्मान की रक्षा के लिए और राष्ट्र के लिए हथियार उठाने के भी उन्होंने प्रेरित किया है।
उन्होंने ये स्वीकार करने में हिचक महसूस नहीं की कि भारत ने आज़ादी के बाद 15 वर्षों तक इस व्यावहारिक-धर्म की उपेक्षा की। ‘कुरुक्षेत्र’ की ये पंक्तियाँ देखिए, जो उनके संसद में कही गई बातों से एकदम मिलती-जुलती है:
छीनता हो सत्व कोई, और तू
त्याग-तप के काम ले यह पाप है।
पुण्य है विच्छिन्न कर देना उसे
बढ़ रहा तेरी तरफ जो हाथ हो।
बद्ध, विदलित और साधनहीन को
है उचित अवलम्ब अपनी आह का;
गिड़गिड़ाकर किन्तु, माँगे भीख क्यों
वह पुरुष, जिसकी भुजा में शक्ति हो?
युद्ध को तुम निन्द्य कहते हो, मगर,
जब तलक हैं उठ रहीं चिनगारियाँ
भिन्न स्वर्थों के कुलिश-संघर्ष की,
युद्ध तब तक विश्व में अनिवार्य है।
रामधारी सिंह दिनकर ने ‘कुरुक्षेत्र’ में भीष्म के शब्दों में आज के सत्ताधीशों को शासन करने का तरीका सिखाया है और शत्रु से निपटने का गुर बताया है। भला इसके लिए उन्हें शरशैया पर पड़े भारतवर्ष के उस बूढ़े महावीर से अच्छा कौन मिलता, जिसने महाभारत जैसे पूरे युद्ध को देखा हो, उसमें हिस्सा लिया हो और कुरुवंश की कई पीढ़ियों को अपना मार्गदर्शन दिया हो। कुरुक्षेत्र में दिनकर शांति की वकालत करते हैं लेकिन ऐसी परिस्थितियों की भी बात करते हैं, जब युद्ध को टाला ही नहीं जा सके।
संसद में जब वो हथियारों से लैस होने की बात करते हैं तो ‘कुरुक्षेत्र’ में भीष्म पितामह के मुँह से भी यही कहलवाते हैं कि अपनी तरफ बढ़ रहे हाथ को विछिन्न कर देना पुण्य है, इसमें कोई पाप नहीं है। जिसकी भुजा में शक्ति है, उसे भला गिड़गिड़ा कर भीख माँगने की क्या आवश्यकता है? अगर कोई आपके साथ हिंसा कर रहा हो और आप त्याग-तप से ही काम चलाते रहें तो ये पाप है, ये ठीक नहीं है।
आज जब भारत-चीन का तनाव चरम पर है, हमें रामधारी सिंह दिनकर के इस भाषण को ज़रूर पढ़ना चाहिए। बल्कि आज सरकार पर सवाल उठा रहे विपक्ष को भी इससे सीख लेनी चाहिए। उन्होंने बड़े ही आसान तरीके से समझा दिया कि भारत ने क्या गलतियाँ कीं। दिनकर ने कहा कि दुनिया भर के देश अपने खाने के दाँत अलग और दिखाने के दाँत अलग रखते हैं लेकिन हमने सिधाई में आकर अपने दिखाने के दाँत को ही असली मान लिया।
रामधारी सिंह दिनकर ने तब के सत्ताधीशों को समझाया कि जो बातें हम नहीं समझ सके, उन्हें चीन ने हमारी आँखों में उँगली डाल कर समझा दिया। आखिर रामधारी सिंह दिनकर ने क्यों कहा था कि महात्मा गाँधी, सम्राट अशोक और तथागत बुद्ध, ये सभी इस देश के रक्षक नहीं है, बल्कि ये सब तो खुद रक्षणीय हैं। दिनकर इन तीनों को देश की शोभा, संस्कार, गौरव और अभिमान तो मानते थे लेकिन उनका कहना था कि इस संस्कार की रक्षा तभी होगी, जब गुरु गोविन्द सिंह, छत्रपति शिवाजी, रानी लक्ष्मीबाई और भगत सिंह जैसे बटालियन हर वक़्त तैयार रहें।
दिनकर मानते थे कि हमारी सीमा पर हमें खतरा है लेकिन वो ये भी कहते थे कि खतरा हमारे प्रजातंत्र और जीवन-पद्धति पर भी है। उन्होंने सरकार से कहा था कि शारीरिक बल और बाहुबल की रक्षा के लिए हमने कुछ नहीं किया। उनका जोर था कि दंड, कुश्ती, बैठक और गदका, तलवार, पट्टा, भाल इत्यादि का युवाओं और बच्चों को प्रशिक्षण दिया जाए। विश्व शांति की वो पैरवी करते थे लेकिन कहते थे कि ये किसी एक देश की जिम्मेदारी थोड़े है।
दिनकर को इस बात से दिक्कत थी कि जब नेता लोग विश्व शांति पर बोलने लगते हैं तो वो ऐसी बातें बोल जाते हैं, जो कवियों और संतों को बोलनी चाहिए। रामधारी सिंह दिनकर ने अपने उस ऐतिहासिक भाषण में कहा था कि अहिंसा और शांति बड़े ही श्रेष्ठ गुण हैं, लेकिन शरीर के आभाव में ये दुर्गति को प्राप्त होती है। तभी तो उन्होंने कहा था कि जिसके हाथ में बन्दूक नहीं है, वो शांति का समर्थ रक्षक सिद्ध नहीं हो सकता है। उन्होंने कहा था:
“एक और बीमारी जो हमारे देश में पनप रही है, वो है अंतरराष्ट्रीयता की अति आराधना की बीमारी। जिसके भीतर राष्ट्रीयता नहीं है, वो अंतरराष्ट्रीय भी नहीं हो सकता। धरती की दो गतियाँ हैं। पृथ्वी अपनी धुरी के चारों ओर घूमती है, जो मनुष्य के राष्ट्रीय भाव का द्योतक है। पृथ्वी सूर्य के भी चारों भी परिक्रमा करती है, ये मनुष्य के अंतरराष्ट्रीय भाव का पर्याय है। जिस दिन ये पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमना बंद कर दे, उस दिन उसका सूर्य के चारों ओर घूमना भी अपने-आप बंद हो जाएगा। जिस व्यक्ति ने अपनी राष्ट्रीयता को तिलांजलि दे दी, उसकी अंतरराष्ट्रीयता छूछी है। देश को उन लोगों से सावधान रहना चाहिए, जो ये कहते फिरते हैं कि वो राष्ट्रीयता नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीयता के प्रहरी हैं। मैं उस विचारधारा का भी समर्थन नहीं करता, जो कहता है कि चीन के आक्रमण से जो व्यथित हैं, वो प्रतिक्रियागामी है और जो अपमान पीकर जीन के लिए तैयार है, वो प्रगतिशील है।”
तो ये थी रामधारी सिंह दिनकर की राष्ट्रवाद को लेकर सोच। उनके कहने का मतलब था कि जो अपने देश का नहीं हुआ, वो विश्व का कैसे हो सकता है? पृथ्वी का उदाहरण देकर उन्होंने इसे भली-भाँति समझाया। आज जब अरुंधति रॉय जैसे लोग और उनके अनुयायी खुद को ‘वैश्विक नागरिक’ साबित करने की होड़ में भारत को हर मंच से भला-बुरा कहते हैं, आज दिनकर होते तो ऐसे लोगों को ज़रूर देश के लिए सबसे बड़ा ख़तरा बताते।
उनका सीधा मानना था कि अपमान पीकर जीने की बात करने वाले जो कथित ‘प्रगतिशील’ हैं, वो चीन की करतूतों पर पर्दा डालना चाहते हैं। आज भी कॉन्ग्रेस और वामपंथी दल हैं, जो अपने बयानों में चीन की निंदा करना तो दूर की बात, अपने सरकार और सेना के बयानों तक का साथ नहीं देते। दिनकर कहते थे कि ऐसे लोग भारत को उसी हालत में ले जाना चाहते हैं, जो चीन के साथ फिर से भाई-भाई का नाता बैठा लें। ये तंज नेहरू पर था।
उनका कहना था कि जब बात देश की रक्षा की हो तो कैसी विचारधारा? कैसा दक्षिणपंथ और कैसा वामपंथ? आपकी विचारधारा दाएँ की हो या बाएँ की, देश की सेवा करने की तो इन दोनों को ही ज़रूरत है न? आज जब भारत-चीन तनाव के बीच ऐसी शक्तियाँ फिर से प्रबल होने की कोशिश में लगी हैं, याद कीजिए – शांति और अहिंसा के लिए भी बन्दूक रखना ज़रूरी है वरना भेड़िये तो अकारण राह चलते साधुओं पर भी झपट्टा मारते हैं।