‘रामचरितमानस’ के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास आज किसी पहचान के मोहताज नहीं हैं क्योंकि अंग्रेजी साहित्य में जो स्थान शेक्सपियर का है और संस्कृत में कालिदास का, वही स्थान उनका खरी बोली में है। उनका जन्म श्रवण महीने में शुक्ल पक्ष के सप्तमी को हुआ था। माना जाता है कि वो मुग़ल बादशाह अकबर के सामानांतर थे। खुद पर गोस्वामी तुलसीदास ने कोई पुस्तक तो लिखी नहीं लेकिन हाँ, उस समय के बारे में थोड़ी-बहुत बातें इशारों में ज़रूर कही हैं।
अकबर जब गद्दी पर बैठा, तब तुलसीदास अपने युवाकाल में ही थे। अकबर भी किशोरावस्था में ही गद्दी पर बैठा था। उससे पहले दिल्ली में सूरी वंश का शासन था। बीच में हेमचन्द्र विक्रमादित्य के नाम से हेमू ने शासन किया था, लेकिन मजबूत सेना और बड़ा लड़ाका होने के बावजूद युद्ध में बनी परिस्थितियों की वजह से उन्हें अकबर और बैरम खान की फ़ौज से हार मिली थी। अकबर की तरफ से शुरुआत में बैरम खान ही शासन चलाता था।
कहा जाता है कि अकबर ने ज़रूर हिन्दुओं पर लगने वाला जजिया कर समाप्त किया था और गोहत्या को प्रतिबंधित किया था लेकिन उसने राजपूत राजाओं पर आक्रमण शुरू कर दिया था और वो हिन्दुओं को हिन्दुओं से लड़ाने में महारत रखता था। वो दिखावा कर के सभी मजहब-धर्मों को खुश रखना चाहता था और साथ ही इस्लाम की रीति अनुसार काम करता था लेकिन उसका मुख्य उद्देश्य था साम्राज्य विस्तार और सत्ता में लम्बे समय तक टिके रहना।
मालवा, गोड़वाना, पंजाब, चित्तौर, रणथम्भौर, गुजरात और कालिंजर पर जब उसके आक्रमण पर आक्रमण हो रहे होंगे और वो खुद को ‘महाबली’ घोषित कर रहा होगा, तब भारत के जनमानस और जनकवियों ने उसके बारे में न लिखा हो, ये असंभव है। हाँ, अत्याचार की पराकाष्ठा का इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि किसी ने खुल कर उसके अत्याचारों पर लिखने की बजाए इशारों में लिखा।
लेखक रामचंद्र तिवारी ने अपनी पुस्तक ‘तुलसीदास‘ में गोस्वामी द्वारा रचित एक दोहे का जिक्र किया है, जो उनके हिसाब से तत्कालीन सत्ताधीश और उसके शासन काल में उपजी परिस्थितियों को दर्शाता है। इस श्लोक में राजा को गोस्वामी तुलसीदास ने ‘गँवार’ कहा है और कहा है कि वो साम-दाम-भेद की जगह पर केवल डरावने दंड देने में विश्वास रखता है। आप भी उनके इस श्लोक को देखें:
गोड़ गँवार नृपाल महि,
यमन महा महिपाल ।
साम न दाम न भेद कलि,
केवल दंड कराल ।।
इस श्लोक में वो तत्कालीन राजा को चोर और लुटेरा कह रहे हैं। ये किसी से छिपा नहीं है कि बादशाह अकबर के हरम में 5000 से भी अधिक महिलाएँ थीं और विभिन्न इतिहासकारों ने इस सम्बन्ध में लिखा भी है। बावजूद इसके किसी मुस्लिम राजा को ‘महान’ बना कर अशोक के सामानांतर खड़ा करने की सेक्युलर गैंग की चाहत ने अकबर को अच्छा बना कर पेश किया। ये एक षड्यंत्र ही तो था।
रामचंद्र तिवारी पूछते हैं कि 5000 सुंदरियों के रख-रखाव के लिए धन की ज़रूरत पड़ती होगी और ये धन किसानों पर अत्याचार कर के भू-राजस्व वसूल कर लाया जाता होगा, इसमें कोई शक नहीं है। यही कारण है कि अकबर के समय को भले ही लिबरल गैंग समृद्धि का काल बताता हो लेकिन क्या ये समृद्धि सत्ताधीशों, सामंतों, बड़े व्यापारियों और जागीरदारों की विलासिता के अलावा कुछ और भी नहीं?
नहीं, ये आम जनता की समृद्धि तो बिलकुल ही नहीं थी। गोस्वामी तुलसीदास दूरदर्शी थे। किसानों पर हो रहे अत्याचार पर भी वो चुप नहीं रहे और उन्होंने लिखा। जिन किसानों को उपज का एक तिहाई हिस्सा कर के रूप में देना पड़े, वो बेचारे ख़ुश रहते होंगे क्या? अकबर ने तो किसानों से लगान के रूप में अनाज की जगह नकद धन वसूलने की प्रक्रिया शुरू कर दी थी। तुलसीदास इस सम्बन्ध में देखिए क्या लिखते हैं:
खेती न किसान को,
भिखारी को न भीख, बलि,
वनिक को बनिज न,
चाकर को चाकरी ।
जीविका विहीन लोग
सीद्यमान सोच बस,
कहैं एक एकन सों
कहाँ जाई, का करी ।।
इस श्लोक से स्पष्ट पता चलता है कि किसानों को खेती नहीं करने दी जा रही है। यहाँ तक कि भिखारियों तक को भीख माँगने नहीं दिया जा रहा है। नौकर-चाकर तक जीविका से रहित हो गए हैं। गोस्वामी तुलसीदास पूछते हैं कि आजीविका विहीन लोग आखिर जाएँ तो कहाँ जाएँ, करें तो क्या करें? क्या ये उस समय की तत्कालीन परिस्थिति को नहीं दर्शाता? क्या इसके पीछे तथाकथित ‘महाबली’ अकबर नहीं होगा?
श्रीरामचरितमानस जैसे महाकाव्य के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास जी की जयन्ती पर कोटि कोटि नमन। pic.twitter.com/niUJ9wCLJH
— ABVP (@ABVPVoice) July 27, 2020
लेकिन, आज हम ‘जोधा अकबर’ फिल्म में और उसके गानों में जिस अकबर को दिखाया गया है, उसे सत्य मानते हैं और गोस्वामी तुलसीदास ने हमें जो बताया, उसे भूल बैठे हैं। ‘जोधा अकबर’ में एआर रहमान द्वारा तैयार किए गए गानों में अकबर को कुछ ज्यादा ही महान बना कर पेश कर दिया गया। जावेद अख्तर ने इसका लिरिक्स लिखा। इसमें जीत आज तुम्हारी..महाबली है..देश में सुख की..पवन चली है..” पंक्तियाँ लिखी गईं। आप भी गौर कीजिए:
देता है हर दिल यह गवाही, दिल वाले हैं जिल-इ-इलाही
जाऊँ कही भी निकलों जिधर से, गलियों गलियों सोना बरसे
तेरे मज़हब है जो मोहब्बत, कितने दिलों पर तेरी हुकूमत
जितना कहें हम उतना कम है, तहजीबों का तू संगम है
इन पंक्तियों का मतलब समझाने की हमें ज़रूरत नहीं है क्योंकि ‘अज़ीम-ओ-शाह शहंशाह’ गाने में आप इसे कई बार सुन चुके हैं और साथ ही इसका अर्थ भी समझते ही हैं। इसमें अकबर को ‘तहजीबों का संगम’ कहा गया है, अर्थात हर धर्म-मजहब का प्रतीक। साथ ही उसे मोहब्बत के मजहब को मानने वाला कहा गया है। गली-गली में सोना बरसने की बात करते हुए भारत की समृद्धि के लिए मुगलों को कारण बताया गया है।
लेकिन तुलसीदास तो ‘बनिक को बनिक न चाकर को चाकरी’ कह कर इन छद्म बुद्धिजीवियों की पोल खोल देते हैं। यहाँ बनिक का मतलब गाँव के उन बनियों से है, जो किसानों का अनाज खरीद कर उसे बाजार तक ले जाता है। इसमें बड़े व्यापारियों की बात नहीं की गई है। इसीलिए, आज ज़रूरत है कि हम तत्कालीन भारत को समझने के लिए हम गोस्वामी तुलसीदास को पढ़ें, कट्टर इस्लामी जावेद अख्तर को नहीं।