Sunday, November 17, 2024
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जब अंग्रेज सावरकर को कोल्हू में बैल की जगह जोतते थे, जब गाँधी अफ्रीका से भारत लौटे भी नहीं थे: कहानी कालापानी की

महात्मा गाँधी 1915 में दक्षिण अफ्रीका में 21 वर्ष बीता कर भारत लौटे थे। इसके उलट सावरकर को 1911 में ही सेल्युलर जेल में भेज दिया गया था, जब उनकी उम्र महज 28 वर्ष की थी। गाँधी जब भारत लौटे थे, तब उनकी उम्र 45 वर्ष थी। सावरकर को 50 साल के कारावास की सजा सुनाई गई थी। उससे पहले वो लन्दन में रहे थे।

विनायक दामोदर सावरकर, यानी वीर सावरकर। ये महज एक नाम नहीं है बल्कि संघर्ष की एक ऐसी गाथा है, जिसका वर्णन शब्दों से परे है। जिस व्यक्ति ने एक दशक से भी ज्यादा समय तक कालापानी की सज़ा भुगती, आज उसे अपमानित किया जाता है। जिसने रानी लक्ष्मीबाई, पेशवा नाना और वीर कुँवर सिंह जैसों की वीरता को दुनिया के सामने लाया, उसके योगदानों पर हँसा जाता है। क्यों? क्योंकि वो एक हिन्दू राष्ट्रवादी थे।

क्या होता है कालापानी? क्या आपके जेहन में किसी भी अन्य स्वतंत्रता सेनानी का नाम आता है, जिन्होंने कालापानी की सज़ा इतने लम्बे वक़्त तक भुगती हो? या फिर किसी ऐसे ही नेता का नाम, जिन्होंने कालापानी की सज़ा भुगती हो। दिमाग पर जोर डालना पड़ेगा। खोजना पड़ेगा। आज़ादी में नेहरू और गाँधी का भी योगदान था लेकिन उन्हें कभी कालापानी नहीं हुई। कालापानी मतलब यातना। कालापानी मतलब नरक। कालापानी मतलब क्रूर अत्याचार। कालापानी मतलब 24 घंटे त्रासदी वाला जीवन। क्या ये सबके वश की बात थी?

कालापानी में कक्ष कारागारों को सेल्युलर जेल कहा जाता था। वहाँ कड़ा पुलिस पहरा रहता था। सावरकर अपनी पुस्तक ‘काला पानी’ में इस नारकीय यातना का वर्णन करते हैं। 750 कोठरियाँ, जिनमें बंद होते ही कैदी के दिलोदिमाग पर घुप्प अँधेरा छा जाता था। अंडमान के सुन्दर द्वीप पर ये अंग्रेजों का नरक था। यद्यपि ‘काला पानी’ एक गद्य उपन्यास की तरह है, जिसे सावरकर ने अपनी जीवनी के रूप में नहीं लिखा है और इसके तमाम पात्र भी काल्पनिक हैं, लेकिन यातनाओं और जेल का जो विवरण है, वो समझने वाले समझ जाते हैं कि सत्य है।

इस पुस्तक के बारे में कहा जाता है कि इस पर फ़िल्म बनाने के लिए सावरकर के पास ऑफर आया था। उनके निजी सचिव बाल सावरकर लिखते हैं कि सुधीर फड़के इस पर फिल्म बनाना चाहते थे लेकिन उनकी माँग थी कि रफीउद्दीन नामक किरदार को बदल दिया जाए और उसकी जगह किसी हिन्दू पात्र को दे दी जाए। सावरकर को ये स्वीकार्य नहीं था। उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि वो इस तरह एक दूसरे मजहब के किरदार का नाम हिन्दू का करने की अनुमति कभी नहीं दे सकते।

सावरकर ने कह दिया कि अगर उन लोगों को समुदाय विशेष को शिष्ट और साधु प्रवृत्ति का दिखाने की इतनी ही हूल मची है तो कोई एक नया किरदार गढ़ लें लेकिन वो इस तरह से पहले से बने हुए किरदार के नाम में परिवर्तन की अनुमति नहीं देंगे। आज भी बॉलीवुड का यही ट्रेंड है। समुदाय विशेष के किरदार को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया जाता है। उन्हें एक इमानदार दोस्त, त्यागी व्यक्ति और भोले-भाले इंसानों के रूप में चित्रित किया जाता है जबकि पंडितों को चुंगला, बातें इधर-उधर करने वाला और शोषणकर्ता के रूप में दिखाया जाता है।

वीर सावरकर ने जिक्र किया है कि किस तरह वहाँ इंसानों को जानवरों से भी बदतर समझा जाता था। अंग्रेज उन्हें कोल्हू के बैल की जगह जोत देते थे। पाँव से चलने वाले कोल्हू में एक बड़ा सा डंडा लगा कर उसके दोनों तरफ दो आदमियों को लगाया जाता था और उनसे दिन भर काम करवाया जाता था। जो काम बैलों का था, वो इंसानों से कराए जाते थे। जो टालमटोल करते, उन्हें तेल का कोटा दे दिया जाता था और ये जब तक पूरा नहीं होता था, उन्हें रात का भोजन भी नहीं दिया जाता था। उन्हें हाँकने के लिए वार्डरों तक की नियुक्ति की गई थी।

सावरकर जहाँ भी जाते थे, वहाँ उनके ‘अपने लोग’ मिल ही जाते थे। इसी तरह अंडमान में ही कुछ ऐसे वयोवृद्ध स्वतंत्रता सेनानी रह रहे थे, जो 1857 के युद्ध में अपने रोल के कारण यहाँ बंद थे। ये ऐसे लोग थे, जो बुढ़ापे तक सज़ा काटने के बाद वहीं बस गए थे। ऐसे देशभक्तों ने सावरकर से संपर्क किया था और उन लोगों की बातचीत होते रहती थी। उनके अनुभवों से सावरकर ने कई चीजें सीखीं। तभी उन्होंने अंडमान में कागज़-कलम न मिलने पर दीवारों पर कीलों, काँटों और अपने नाखूनों तक से साहित्य रचे। कई पंक्तियों को कंठस्थ किया और आमजनों तक पहुँचाया।

भले ही ‘काला पानी’ में सावरकर ने काल्पनिक पात्र गढ़ें हों लेकिन वो सभी वास्तविक पात्रों से ही प्रेरित थे। उनके नाम बदले हुए थे। अंडमान में कई छँटे हुए बदमाश भी थे, जिनका जिक्र किया गया है। सावरकर अपनी एक अन्य पुस्तक ‘मेरा आजीवन कारावास‘ में लिखते हैं कि उन्हें भी कोल्हू के बैल का काम दिया गया था। उससे पहले उनसे छिलका कूटवाने का काम लिया जाता था। अचानक एक दिन अंग्रेजों ने कहा कि ये करते-करते उनके हाथ कठोर हो गए होंगे, इसीलिए अब उन्हें कोल्हू वाला काम दिया जा रहा है।

सिर चकराता था। लंगोटी पहन कर कोल्हू में काम लिया जाता था। वो भी दिन भर। शरीर इतना थका होता था कि उनकी रातें करवट बदलते-बदलते कटती थी। अन्य बंदीगण सावरकर से प्रेम करने लगे थे, इसीलिए वो आकर उनकी मदद कर देते थे। उनके कपड़े तक धो देते थे और बर्तन माँज देते थे। सावरकर के रोकने के बाद वो मिन्नतें करने लगते थे, जिसके बाद सावरकर ने उन्हें मना करना छोड़ दिया क्योंकि उन बंदियों को इसमें ही ख़ुशी होती थी। धीरे-धीरे यातनाएँ और भी असह्य होती चली गईं।

स्थिति ये आ गई कि सावरकर को आत्महत्या करने की इच्छा होती। इतनी भयंकर यातनाएँ दी जातीं और वहाँ से निकलने का कोई मार्ग था नहीं, भविष्य अंधकारमय लगता- जिससे वो सोचते रहते कि वो फिर देश के किसी काम आ पाएँगे भी या नहीं। एक बार कोल्हू पेरते-पेरते उन्हें चक्कर आ गया और फिर उन्हें आत्महत्या का ख्याल आया। सावरकर लिखते हैं कि उनके मन और बुद्धि में उस दौरान तीव्र संघर्ष चल रहा था और बुद्धि इसमें हारती हुई दिख रही थी।

सावरकर के बारे में क्या कहते थे वाजपेयी

सावरकर काफी देर तक उस खिड़की को देखते रहते, जहाँ से लटक कर पहले भी कैदियों ने आत्महत्या की थी। कई दिनों तक सोचने के बाद उन्होंने निश्चय किया कि अगर मरना ही है तो एक ऐसा कार्य कर के मरें, जिससे लगे कि वो सैनिक हैं। सोच-विचार के बाद उन्होंने न सिर्फ अपने बल्कि कई अन्य कैदियों के मन से भी आत्महत्या का ख्याल निकालने में सफलता पाई। वहाँ उन्होंने कोल्हू पर ही संगठन का काम शुरू किया, बंदियों को शिक्षित करने का बीड़ा उठाया, उन्हें देशप्रेम सिखाया। अंग्रेज उन्हें बाकी बंदियों से दूर रखना चाहते थे। उन्हें बाद में रस्सी बाँटने का काम दे दिया गया था।

वहाँ अंडमान में कई राजबंदी रहा करते थे। सावरकर उनसे जब पहली बार मिले, तभी उन्हें उनके दुखों का अंदाज़ा हो गया था। उन्होंने अंग्रेजों के भय को दरकिनार कर के उनसे सबका परिचय लिया। उसी समय उन्होंने उन सभी से कहा था कि देखना, एक दिन जब भारत आज़ाद होगा तो इसी जेल में हम सबके पुतले लगे होंगे। सावरकर ने कहा-

“आज भले ही पूरे विश्व में हमारा अपमान हो रहा हो लेकिन देखना, एक दिन यही जगह एक तीर्थस्थल बन जाएगा और लोग कहेंगे कि देखों यहाँ हिन्दुस्तानी कैदी रहा करते थे। ऐसा ही होगा। ऐसा होना चाहिए।”

आज वो कमरा किसी तीर्थस्थल से कम नहीं है, जहाँ सावरकर रहा करते थे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी वहाँ जाकर काफी देर तक ध्यान धरा था। सेल्युलर जेल में सावरकर की प्रतिमा लगी हुई है। वहाँ लोग जाते ही अभिभूत हो जाते हैं और सावरकर के त्याग को याद करते हैं। पोर्ट ब्लयेर विमानक्षेत्र का नाम ही वीर सावरकर अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा है। सावरकर का सपना तभी पूर्णतया सच होगा, जब हिन्दुओं के भीतर जाग्रति आएगी और भारत पुनः विश्वगुरु बनेगा। दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी हमेशा कहा करते थे कि हमें सावरकर को ठीक से समझने की ज़रूरत है।

महात्मा गाँधी 1915 में दक्षिण अफ्रीका में 21 वर्ष बीता कर भारत लौटे थे, जिसके बाद उन्होंने कॉन्ग्रेस की सभाओं में दिलचस्पी लेनी शुरू की थी। इसके उलट सावरकर को 1911 में ही सेल्युलर जेल में भेज दिया गया था, जब उनकी उम्र महज 28 वर्ष की थी। गाँधी जब भारत लौटे थे, तब उनकी उम्र 45 वर्ष थी। सावरकर को 50 साल के कारावास की सजा सुनाई गई थी। उससे पहले वो लन्दन में रहे थे। उन्हें वहाँ भी गिरफ्तार किया गया था। आज़ादी के बाद भी उन्हें नेहरू सरकार ने सम्मान नहीं दिया।

सावरकर ने ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ नामक पुस्तक लन्दन में ही गहन अध्ययन कर के लिखा था। वो एक लाइब्रेरी का एक्सेस पाने में कामयाब रहे थे और उन्होंने एक के बाद एक दस्तावेजों का अध्ययन कर के ये साबित किया कि वो प्रथम स्वतंत्रता संग्राम था, कोई साधारण सिपाही विरोध नहीं। महारानी लक्ष्मीबाई से लेकर पेशवा नाना तक को इतिहास में अमर बनाने का श्रेय सावरकर को भी जाता है, जिन्होंने उन महापुरुषों के बलिदानों के बारे में जनता को अवगत कराया। उनकी किताब को भगत सिंह सहित कई क्रन्तिकारी पढ़ते ही नहीं थे बल्कि उसका अनुवाद भी करते थे।

सावरकर 1960 के दशक में अक्सर अस्वस्थ रहते थे। उससे कई वर्ष पहले 1948 में, जैसा कि हमें पता है, नाथूराम गोडसे ने राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की हत्या कर दी थी, जिसके बाद सावरकर गिरफ़्तार हुए थे। तब गुस्साई भीड़ ने उनके घर के ऊपर पत्थरबाज़ी की थी। हालाँकि, सावरकर सभी आरोपों से बरी हुए और क़ानून ने उन्हें दोषी नहीं माना। नेहरू सरकार द्वारा आज़ाद भारत में सावरकर को फिर से प्रतिबंधित किया गया, 60 के दशक में भी गिरफ्तार किया गया।

आज ये कह देना बिलकुल आसान है कि सावरकर ने माफ़ी माँगी थी। दरअसल, ये सब इसीलिए किया जाता है ताकि लोग उनका योगदान भूल जाएँ हिंदुत्व की बातें न करें, सावरकर को सम्मान देने में हीन भावना का शिकार हो जाएँ और राष्ट्रवाद के लिए देश में कोई जगह न बचे। ऐसे लोगों को अंडमान की उस कालकोठरी में बंद होकर एक सप्ताह बिताना चाहिए, यातनाएँ सहनी तो दूर की बात है। असल बात तो ये है कि सावकार ने देश के लिए जो सहा, वो सबके बूते की बात नहीं।

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अनुपम कुमार सिंह
अनुपम कुमार सिंहhttp://anupamkrsin.wordpress.com
भारत की सनातन परंपरा के पुनर्जागरण के अभियान में 'गिलहरी योगदान' दे रहा एक छोटा सा सिपाही, जिसे भारतीय इतिहास, संस्कृति, राजनीति और सिनेमा की समझ है। पढ़ाई कम्प्यूटर साइंस से हुई, लेकिन यात्रा मीडिया की चल रही है। अपने लेखों के जरिए समसामयिक विषयों के विश्लेषण के साथ-साथ वो चीजें आपके समक्ष लाने का प्रयास करता हूँ, जिन पर मुख्यधारा की मीडिया का एक बड़ा वर्ग पर्दा डालने की कोशिश में लगा रहता है।

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