विनायक दामोदर सावरकर भारत के उन स्वतंत्रता सेनानियों में से एक रहे हैं, जिनकी विचारधारा आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी आज से कई दशक पहले थी। उन्हें हिंदुत्व का पुरोधा माना जाता है लेकिन क्या आपको पता है कि अंग्रेजों के अलावा कोई और भी था, जिसने सावरकर पर प्रतिबन्ध लगाया? अंग्रेजों के अलावा कोई और भी था, जिसने सावरकर को चुप कराना चाहा? अंग्रेजों के अलावा कोई और भी था, जिसने सावरकर के मुँह पर ताला मारने की कोशिश की थी? विडंबना यह है कि जिस भारत को आज़ाद कराने में सावरकर ने अपना तन-मन-धन सब कुछ न्यौछावर किया, उसी आज़ाद भारत की सरकार ने सावरकर को प्रतिबंधित किया। भारत की परिकल्पना सावरकर ने की थी, जिस स्वतंत्रता के लिए उन्होंने कालापानी की सज़ा काटी थी, उसी स्वतंत्र भारत में उनका मुँह सील दिया गया।
सावरकर 1960 के दशक में अक्सर अस्वस्थ रहते थे। उससे कई वर्ष पहले 1948 में, जैसा कि हमें पता है, नाथूराम गोडसे ने राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की हत्या कर दी थी, जिसके बाद सावरकर गिरफ़्तार हुए थे। तब गुस्साई भीड़ ने उनके घर के ऊपर पत्थरबाज़ी की थी। हालाँकि, सावरकर सभी आरोपों से बरी हुए और क़ानून ने उन्हें दोषी नहीं माना। उस समय देश में प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में कॉन्ग्रेस की सरकार चल रही थी। नेहरू सरकार को सावरकर के भाषणों से दिक्कतें थीं। नेहरू सरकार को सावरकर के भाषणों से समस्याएँ थी। इसलिए आज़ाद भारत में सावरकर को फिर से प्रतिबंधित किया गया।
वीर सावरकर को गिरफ़्तार किया गया, उन पर हिन्दू-मुस्लिम एकता का विरोधी होने का आरोप लगा। सावरकर पर हिन्दुओं और मुस्लिमों के बीच तनाव पैदा करने का आरोप लगा। सभी स्वतन्त्रता सेनानियों को मानदेय मिलता था लेकिन सावरकर को शायद नेहरू सरकार स्वतन्त्रता सेनानी नहीं मानती थी, तभी उन्हें इससे वंचित रखा गया। हालाँकि, सावरकर के अनुयायी उनके लिए वित्त से लेकर अपना समय और परिश्रम तक, सब कुछ न्यौछावर करने को तैयार रहते थे, लेकिन भारत की सरकार ने उन्हें किसी भी प्रकार के वित्तीय मदद से वंचित रखा। बढ़ते दबाव के बाद सरकार ने उन्हें रिहा तो किया लेकिन उसके लिए भी एक शर्त लगाई।
सावरकर को इस शर्त पर रिहा किया गया कि वह अब अपनी राजनीतिक गतिविधियों पर लगाम लगाएँगे। सावरकर की राजनीतिक गतिविधियों से किसे भय था? सावरकर की राजनीतिक सक्रियता किसके लिए परेशानी और समस्या का कारण बन रही थी? खैर, सावरकर ने राजनीतिक सक्रियता तो बंद कर दी लेकिन वह सामाजिक कार्यक्रमों में जाते रहे, पुस्तकें लिखते रहे और सामाजिक सेवा में अपना योगदान देना जारी रखा। हाँ, उन्हें कॉन्ग्रेस सरकार से थोड़ा-बहुत सम्मान मिला, लेकिन वह प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के शासनकाल में मिला। शास्त्री ने प्रधानमंत्री बनने के बाद सावरकर को प्रति महीने 2000 रुपए का मानदेय देना शुरू किया, लेकिन इससे भी कई लोगों को दिक्कतें थीं।
संसद में सावरकर को पेंशन दिए जाने को लेकर आवाज़ उठी। कॉन्ग्रेस नेता आबिद अली जाफरभाई ने सरकार को सवालों के कटघरे में खड़ा किया। उन्होंने पूछा कि “सावरकर जैसे व्यक्ति” को पेंशन क्यों दिया जा रहा है? इस पर लाल बहादुर शास्त्री के नेतृत्व वाली कॉन्ग्रेस सरकार ने स्वीकार किया कि सावरकर इस देश के स्वतन्त्रता सेनानी हैं और उन्हें इसीलिए पेंशन दी जा रही है। हालाँकि, नेहरू सरकार के दौरान 2 वर्षों बाद सावरकर पर से राजनीतिक प्रतिबन्ध हटा दिया गया था, जिसके बाद वह फिर से सक्रिय हो सके लेकिन तब तक उनके स्वास्थ्य ने जवाब देना शुरू कर दिया था।
We bow to Veer Savarkar on his Jayanti.
— Narendra Modi (@narendramodi) May 28, 2019
Veer Savarkar epitomises courage, patriotism and unflinching commitment to a strong India.
He inspired many people to devote themselves towards nation building. pic.twitter.com/k1rmFHz250
सावरकर और कॉन्ग्रेस के रिश्ते अच्छे नहीं थे, इसका प्रमुख कारण जवाहरलाल नेहरू थे जिन्होंने प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के 100 वर्ष पूरे होने के पश्चात आयोजित कार्यक्रम में उनके साथ मंच साझा करने से इनकार कर दिया था। लेकिन, क्या आपको पता है कि कॉन्ग्रेस में सभी कोई नेहरू की तरह ही सोच नहीं रखते थे। हालाँकि, सावरकर की मृत्यु के बाद कोई कॉन्ग्रेस का मंत्री उनके अंतिम क्रिया-कर्म में शामिल होने या उन्हें श्रद्धांजलि देने नहीं गया लेकिन कभी एक समय ऐसा भी आया था, जब सावरकर के हिन्दू महासभा के साथ कॉन्ग्रेस के गठबंधन की बातें चल रही थीं। इसके लिए देश के प्रथम गृहमंत्री सरदार वल्लवभाई पटेल ने प्रयास भी किया था।
सरदाल पटेल और सीडी देशमुख जैसे नेता यह चाहते थे कि सावरकर और उनकी हिन्दू महासभा कॉन्ग्रेस के भीतर ‘कंजर्वेटिव ताक़तों’ का साथ दें और इसके लिए दोनों नेताओं ने प्रयास भी किया लेकिन सावरकर और नेहरू के बीच की तल्खी के कारण यह संभव नहीं हो सका। इसका अर्थ यह है कि सरदार पटेल के मन में सावरकर के लिए सॉफ्ट कॉर्नर था। सरदार पटेल ने कॉन्ग्रेस और सावरकर को साथ जोड़ने की कोशिश की। लाल बहादुर शास्त्री ने सावरकर को पेंशन देना शुरू किया। लेकिन, जवाहर लाल नेहरू आजीवन सावरकर के विरोधी रहे और कभी भी उन्हें सम्मान नहीं दिया।
महात्मा गाँधी की हत्या के बाद न सिर्फ़ सावरकर बल्कि हिन्दू महासभा पर भी प्रतिबन्ध लगाया गया। हिन्दू महासभा के कई नेताओं की गिरफ्तारियाँ हुईं और संगठन को नेस्तनाबूद करने की हर कोशिश की गई। लेकिन, हिन्दू महासभा को सावरकर की तरह ही सभी आरोपों से बरी किया गया और राष्ट्रपिता की हत्या में संगठन का कोई रोल नहीं साबित हुआ। सावरकर भीमराव अम्बेडकर के भी बड़े प्रशंसक थे। कई विशेषज्ञ और इतिहासकार मानते हैं कि सावरकर के पास एक मास नेता होने की क्षमता नहीं थी क्योंकि वह जल्दी गुस्सा हो जाते थे और दूसरे नेताओं के साथ समझौता करने में उन्हें दिक्कतें आती थीं।
तमाम आलोचनाओं के बावजूद हमें सोचना चाहिए कि जिस व्यक्ति ने देश के लिए कालापानी की सज़ा काटी हो, उसकी निष्ठा पर संदेह करते हुए उसे उसके ही देश में परेशान कैसे किया जा सकता है? कॉन्ग्रेस में सुभाषचंद्र बोस, सरदार पटेल और राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन को कॉन्ग्रेस अध्यक्ष का पद लोकतान्त्रिक तरीके से जीतने के बावजूद सिर्फ़ इसीलिए छोड़ना पड़ा, क्योंकि जवाहरलाल नेहरू से उनके मतभेद थे। यह मान कर चला जा सकता है कि आज़ादी के बाद देश और पार्टी पर एकछत्र राज कर रहे नेहरू को किसी अन्य नेता के उदय का भय सताता था। क्या नेहरू को यह लगता था कि फलाँ नेता उनसे ज्यादा लोकप्रिय होकर उनका सिंहासन हिला सकता है?
लाल बहादुर शास्त्री की संदिग्ध परिस्थितियों में मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु या हत्या के पीछे की साज़िश को बेनक़ाब करने की कोशिश में ‘द ताशकंद फाइल्स‘ नामक फिल्म भी आई, जिसमें इस बात पर भी ज़ोर दिया गया कहीं हमें सिर्फ़ शास्त्री जी की मृत्यु की गुत्थी में उलझ कर नहीं रह जाना चाहिए बल्कि उनके द्वारा किए गए कार्यों, उनके योगदानों को भी याद करना चाहिए। नेहरू सरकार द्वारा सौतेला व्यवहार किए जाने के बाद शास्त्रीजी द्वारा सावरकर को उचित सम्मान देते हुए उनके लिए अन्य स्वतन्त्रता सेनानियों की तरह पेंशन की व्यवस्था करने के लिए राष्ट्र उनका कृतज्ञ रहेगा।
References:
1.) ‘Divine Enterprise: Gurus and the Hindu Nationalist Movement‘ By Lise McKean
2.) ‘Veer Vinayak Damodar Savarkar: An Immortal Revolutionary of India‘ By Bhawan Singh Rana