केरल की भूतपूर्व स्वास्थ्य मंत्री केके शैलजा आगामी 10 जुलाई को कोरोना संक्रमण की रोकथाम पर भारतीय प्रबंधन संस्थान (IIM) बेंगलुरु के छात्रों के सामने एक लेक्चर देंगी। एक ट्वीट में आईआईएम बेंगलुरु ने बताया है कि संस्था की ओर से सेंटर फॉर पब्लिक पॉलिसी ने फाउंडेशन डे लेक्चर सीरीज में केके शैलजा को छात्रों के सामने सफलतापूर्वक कोविड नियंत्रण के उनके तरीके और अनुभव की बात करने के लिए चुना है। यह चुनाव तब हुआ है जब केरल में कोरोना संक्रमण रुकने का नाम नहीं ले रहा और राज्य पिछले एक वर्ष में कोरोना से बुरी तरह प्रभावित राज्यों की सूची में महाराष्ट्र के साथ सबसे ऊपर है और यह अव्यवस्था राज्य के लिए महँगी पड़ती दिखाई दे रही है।
IIM Bangalore’s Centre for Public Policy to host the third lecture in the CPP Foundation Day Lecture Series on July 10 at 07:00 PM by K. K. Shailaja, former Minister for Health, Social Justice, and Woman & Child Development, Govt. of Kerala, (1/2) pic.twitter.com/sxTW252b7Y
— IIM Bangalore (@iimb_official) July 7, 2021
कोरोना की पहली लहर के समय से ही केके शैलजा की तथाकथित सफलता को लेफ्ट लिबरल ग्रुपों द्वारा खूब फैलाया गया। इसका यह असर हुआ कि उनकी चर्चा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी हुई और उन्हें कुछ पुरस्कारों के लिए भी चुना गया। पर आश्चर्य की बात यह रही कि इतनी सफल स्वास्थ्य मंत्री को राज्य के मंत्रियों की नई सूची में जगह नहीं मिली। यहाँ कई प्रश्न उठते हैं पर उनमें से दो महत्वपूर्ण प्रश्न यह हैं कि यदि कोरोना संक्रमण पर काबू पाने का उनका मॉडल सचमुच सफल था तो केरल कोरोना की पहली लहर पर भी काबू क्यों नहीं कर सका और दूसरा प्रश्न यह है कि यदि उनका यह मॉडल कारगर था तो फिर स्वास्थ्य मंत्री के रूप में उन्हें मंत्रिमंडल में बरकरार क्यों नहीं रखा गया?
ऐसा नहीं है कि कोरोना संक्रमण पर नियंत्रण की केके शैलजा की ‘सफलता’ पर प्रश्न पहले नहीं उठाए गए हैं पर तब ये प्रश्न मूलतः ऐसे लोगों द्वारा उठाए गए थे जिनके हर सवाल को ‘संघी है’ कहकर टाल दिया जाता है। मजे की बात यह कि इधर केरल में फैलते संक्रमण को लेकर सवाल उठते रहे और उधर शैलजा की ‘सफलता’ का प्रोपेगेंडा जोर पकड़ता गया। इस चर्चा का आलम यह था कि लोगों के प्रश्नों को नजरअंदाज कर ब्रिटेन की एक पत्रिका ने उन्हें साल 2020 के Top Thinkers की सूची में जगह दी। इसी तरह हाल में ही जॉर्ज सोरोस फंडेड एक विश्वविद्यालय ने शैलजा को सार्वजनिक स्वास्थ्य के प्रति समर्पण के लिए पुरस्कृत किया।
प्रश्न यह है कि शैलजा का ऐसा कौन सा मॉडल है जो सफल भी रहा और संक्रमण भी नहीं रोक सका? मॉडल में ऐसा क्या है जिसे उस पर प्रश्न उठाने वाले समझ नहीं सकते? प्रश्न यह भी उठता है कि संक्रमण रोकने के जिस मॉडल को सफल बताया जा रहा है और जिसके लिए शैलजा को पुरस्कृत किया जा रहा है, उस मॉडल को और किसी राज्य ने क्यों नहीं अपनाया? शैलजा के मौलिक मॉडल की सफलता आखिर में इसी बात से आँकी जाएगी कि उसका प्रयोग और कितने राज्यों की सरकारों ने किया? यदि यह मॉडल इतना ही कारगर था तो वह जिस राज्य में सबसे पहले प्रयोग में लाया गया उसमें संक्रमण क्यों नहीं रुका और जिन राज्यों ने इसे नहीं अपनाया, वहाँ संक्रमण पर काबू कैसे पाया गया? ये ऐसे प्रश्न हैं जिनका उत्तर मिलना चाहिए।
आईआईएम जैसी संस्थाओं में ‘सफलता’ के ऐसे लेक्चर की डिलीवरी की बात नई नहीं है। भूतपूर्व रेल मंत्री लालू प्रसाद द्वारा रेलवे की क्षमता को बढ़ाने और उसे घाटे से उबारने की भी एक गाथा लिखी गई थी, जिसका पाठ करने लालू आईआईएम अहमदाबाद गए थे। इस बात की चर्चा भी देश-विदेश में हुई थी। साथ ही लालू अपने प्रबंधन क्षमता के साथ अपने आईआईएम लेक्चर की बात जगह-जगह करते पाए गए थे। यह अलग बात है कि उनकी इस तथाकथित सफलता की सच्चाई उभरते देर नहीं लगी।
देश में विचारधारा केंद्रित विमर्श का यह हाल है कि जब वाम के विरोधी विचारधारा का कोई विद्वान कुछ कहता या करता है तो उसके काम को बिना किसी मूल्यांकन के सीधा ठुकरा दिया जाता है। दूसरी तरफ वाम बुद्धिजीवियों, नेताओं, मंत्रियों या अर्थशास्त्रियों के प्रबंधन का कोई मॉडल हो, आर्थिक मॉडल हो या व्यक्तिगत सफलता की कहानी, इन पर उठने वाले हर प्रश्न को नकार कर उसे सेलिब्रेट करने की लेफ्ट लिबरल मीडिया और इकोसिस्टम की संस्कृति पुरानी हो चुकी है।
पर आईआईएम जैसे विश्व प्रसिद्ध संस्थान की क्या मजबूरी है कि वे ‘सफलता’ की इस कहानी को एक तरह की वैधता प्रदान करें? इतने बड़े संस्थान के लिए यह देखना आवश्यक क्यों नहीं कि केके शैलजा के इस मॉडल पर उठने वाले प्रश्नों को बिना किसी तर्क या बिना किसी उत्तर के नकार दिया जाता रहा है? यह ऐसा प्रश्न है जिस पर केवल आईआईएम ही नहीं, बल्कि देश के संस्थानों और प्रबुद्ध नागरिकों को विचार करने की आवश्यकता है।