जनजातीय गौरव दिवस के मौके पर आइए जानते हैं टुरिया के जंगल सत्याग्रह के बारे में…
टुरिया में जंगल सत्याग्रह का आरंभ 1930 में तब हुआ था जब एक ओर स्वतंत्रता पाने की इच्छा हिंदुस्तानियों में चरम पर थी, दूसरी ओर विदेशी अपने सख्त कानून बनाकर देश पर कब्जा करे रखना चाहते थे। उनकी नजर भारतीयों के नमक से लेकर जंगलों की लकड़ियों तक पर थी।
ऐसे में भारतीयों ने पहले नमक आंदोलन के दौरान अंग्रेजों के नमक कानून को तोड़ उनके आगे अपना विरोध दिखाया। बाद में इसी आंदोलन का एक विकसित रूप मध्य प्रदेश के जिलों में जंगल सत्याग्रह के तौर पर देखने को मिला।
जनजातीय नायकों को नमन”
— Jansampark MP (@JansamparkMP) November 12, 2021
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जानिए स्वतंत्रता आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले टुरिया सत्याग्रह के बारे में…#जनजाति_गौरव_दिवस pic.twitter.com/IsiEnfm4tC
अंग्रेज चूँकि नमक की भाँति ही जंगल में जाकर लकड़ी लेने वाले लोगों पर भी जुर्माना लगाते थे, इसलिए तय किया गया कि जिस तरह अंग्रेजों का बनाया नमक कानून समुद्र के पानी से नमक तैयार करके तोड़ा गया वैसे ही वो लोग उसी रास्ते पर चलते हुए जंगल कानून जंगल में जाकर घास काटकर तोड़ेंगे…।
इस तरह मध्य प्रदेश के सिवनी से जंगल-सत्याग्रह की शुरूआत 9 अक्टूबर 1930 को हुई। सत्याग्रह में जनजातीय लोगों की तादाद ज्यादा थी जिनका नेतृत्व मूकाजी सोनवाणे कर रहे थे। बैठकों में फैसला लिया गया कि सत्याग्रह के तौर पर वह लोग 16 किमी दूर स्थित चंदन बगीचे में घास काटेंगे।
काम शुरू हुआ तो ब्रिटिशों ने पहले तो अपने कानून के तहत सत्याग्रहियों पर जुर्माना लगाना शुरू किया, मगर जब जंगल जाकर घास काटने वालों की संख्या बढ़ने लगी, जब जनजातीय महिलाएँ और पुरुष हाथों में हँसिए लेकर एकत्रित होने लगे और वन कानून तोड़ने की ओर आगे बढ़ने लगे तब डिप्टी कमिश्नर सीमन ने इस आंदोलन को कुचलने का फैसला लिया। उसने ये आंदोलन रुकवाने के लिए पुलिस बल भेजा, जिसमें लगभग 100 हथियारबंद पुलिसकर्मी शामिल थे।
सीमेन का मकसद जनजातीय लोगों को सबक सिखाना था ताकि वो दोबारा अपनी आवाज न उठाएँ। इसके लिए उसने इंस्पेक्टर सदरुद्दीन को एक चिट दी जिसमें लिखा था- टीच देम लेसन। आदेश पाने के बाद सदरुद्दीन ने पहले आंदोलन का नेतृत्व कर रहे मूका लहर को गिरफ्तार किया। बाद में जनजातीय लोगों की भीड़ पर खुलेआम गोली चलवाई, सिर्फ इसलिए क्योंकि वे अपने नेता को बचाने के लिए विरोध करने उतरे थे।
इस गोलीकांड के बाद वहाँ भगदड़ मची। गोलीबारी में कई लोग घायल हुए जबकि 4 लोग मारे भी गए। इनमें विरझू भाई के साथ तीन जनजातीय महिलाएँ – मुड्डे बाई, रेनो बाई, देभो बाई का नाम शामिल था। कहा जाता है कि अंग्रेजों की फौज ने इन बलिदानियों के अंतिम संस्कार तक के लिए इनके शव घरवालों को वापस नहीं किए थे। वहीं इतना का खून बहाने के बावजूद सीमेन शांत नहीं था। उसने ग्रामीणों पर मुकदमे चलवाए।
केस अदालत तक पहुँचा, मगर वहाँ खुलासा हुआ कि सीमेन ने सत्याग्राहियों पर किस तरह के संदेश के साथ हमला कराया था। इसके बाद कोर्ट में हुए बवाल के बाद सीमेन का ट्रांसफर कराया गया। वहीं टुरिया सत्याग्रह आग की तरह पूरे प्रांत में फैल गई।
लोग गोलीकांड की घटना सुनने के बाद ब्रिटिश प्रशासन की क्रूरता से अधिक वाकिफ हो गए। इस तरह पैदा हुआ जनआक्रोश स्वतंत्रता की लड़ाई में काम आया। टुरिया जंगल सत्याग्रह ने ये साबित किया जनजातीय समुदाय ने आजादी की लड़ाई में कम भूमिका नहीं निभाई। उनका बलिदान साहसिकता की मिसाल है। इस बलिदान के बाद ब्रिटिश सरकार को अपनी नीतियों पर पुनर्विचार करना पड़ा, वहीं कई अन्य आंदोलनों को प्रेरणा मिली और जनजातीय समुदाय की आवाज राष्ट्रीय स्तर पर उठने लगी।
आज किताबों में हमें इस टुरिया जंगल सत्याग्रह से जुड़ी कम ही जानकारियाँ जानने को मिलती हैं, लेकिन भारत सरकार की इंडियन कल्चर साइट पर, ब्लॉग्स में इस ऐतिहासिक घटना के बारे में पढ़ने को मिलता है। इसके साथ लेखक, घनश्याम सक्सेना अपनी किताब ‘जंगल सत्य और जंगल सत्याग्रह’ में भी इस पूरी घटना का जिक्र करते हैं।