Monday, November 4, 2024
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‘किसान विद्रोह’, ‘मालगाड़ी में नरसंहार’, पर्यटन सर्किट: मालाबार में मोपला मुस्लिमों ने हिंदुओं का किया था कत्लेआम, लीपापोती कर रही केरल सरकार

सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी अब फिर इतिहास लिखना चाहती है ताकि जब दोबारा ऐसी कोई स्थिति सामने आए तो आँख पर पट्टी बाँधे रखने वाले हिंदू उससे भी गुरेज न करें। ये सब हैरान करने वाला नहीं है बल्कि एक चेतावनी जैसा है- जब हिंदू काफिरों का जिहादी नरसंहार करेंगे, तो कम्युनिस्ट उनके साथ खड़े होंगे और....

मोपला मुस्लिमों द्वारा मालाबार में किए गए हिंदू नरसंहार को साल 2021 में 100 वर्ष पूरे हो गए हैं। मोपला हिंदू नरसंहार इतिहास के पन्नों में सबसे बर्बर नरसंहारों में से एक है। इस दौरान केरल के मालाबार में हजारों हिंदुओं को मोपला मुस्लिमों द्वारा मारा गया था। इसकी शुरुआत तुर्की में खलीफा की पुन: स्थापना की माँग करने वाले खिलाफत आंदोलन को लेकर हुई थी जिसे व्यापक स्तर पर कॉन्ग्रेस नेताओं का समर्थन प्राप्त था, खासतौर से एमके गाँधी का। गाँधी जी को जहाँ लग रहा था कि ये ‘राष्ट्रवादी मुसलमान’ ब्रिटिशों से लड़ने में मदद करेंगे। वहीं वो इस तथ्य को सहज तौर पर नकार रहे थे मोपला मुसलमानों की लड़ाई तो इसलिए थी कि वो ब्रिटिशों को निकाल कर इस्लामी हुकूमत कायम कर सकें।

ब्रिटिश रिकॉर्ड गवाही देते हैं कि 10000 हिंदुओं को कट्टर मोपला मुस्लिमों ने मारा था जिसकी शुरुआत 1921 से हुई थी। कम्युनिस्ट फिर भी दशकों से हिंदू नरसंहार पर लीपापोती करने का काम करते रहे हैं और अब जब भाजपा/आरएसएस ने मालाबार हिंदू नरसंहार पर बात करने के लिए प्रोग्राम आयोजित किया तो उन्होंने फिर जख्मों पर नमक छिड़कने का काम किया है।

दरअसल, केरल में कम्युनिस्ट पार्टी अब एक ‘पर्यटन सर्किट’ विकसित करने की योजना बना रही है, जो ‘किसान विद्रोह’ की याद में मालाबार ‘विद्रोह’ के स्थलों को जोड़ती है। राज्य के पर्यटन मंत्री मोहम्मद रियास ने अलाप्पुझा में कहा कि पर्यटन विभाग मलप्पुरम में विद्रोह से संबंधित सभी महत्वपूर्ण स्थलों को जोड़ने वाला एक सर्किट विकसित करेगा। उन्होंने कहा कि यह बहुत सारे पर्यटकों और इतिहास के छात्रों को आकर्षित करेगा। उन्होंने यह भी कहा कि ‘मालगाड़ी त्रासदी’ को एक त्रासदी कहना गलत है, क्योंकि यह अंग्रेजों द्वारा जानबूझकर किया गया ‘नरसंहार’ था।

रियास ने कहा कि इसे त्रासदी कहना ऐसा होगा जैसे ये कोई आपदा है जबकि ये एक जानबूझकर किया गया नरसंहार था जिसे ब्रिटिशों ने कराया था। उन्होंने कहा, “हम त्रासदी शब्द का उपयोग कर रहे हैं जिसका इस्तेमाल अंग्रेजों ने किया था और ये करना अभागे पीड़ितों के साथ बहुत गलत है।” पूरे नरसंहार को किसान विद्रोह बताते हुए उन्होंने कहा कि भाजपा ने जो नरसंहार कहा, वो गलत था।

मालगाड़ी त्रासदी का सच जिसे कम्युनिस्ट पार्टी ने ‘बेचारे मोपला पीड़ितों’ का नरसंहार कहा है

एक ओर जहाँ कम्युनिस्ट पार्टी उस मालगाड़ी त्रासदी को ब्रिटिशों द्वारा किया गया नरसंहार कहने का दबाव बना रही है और ये बता रही है कि ब्रिटिशों ने अभागे पीड़तों को मारा…सच्चाई इन सबसे अलग है। कम्युनिस्ट इतिहासकार बताते हैं कि ये त्रासदी जलियाँवाला बाग नरसंहार जैसी थी जिसमें ब्रिटिशों ने भारतीय सिखों को गोली मारी और उनकी हत्या की। यहाँ तक कि अपने कालीकट में दिए गए भाषण में महात्मा गाँधी ने भी अंग्रेजों के व्यवहार की तुलना जलियाँवाला बाग से की थी। मगर ऐसी तुलना के समय ये ध्यान रखना जरूरी है कि जलियाँवाला बाग नरसंहार में मारे गए सभी निहत्थे सिख राष्ट्रवादी थे।

वहीं मोपला मुसलमान, हत्यारे थे, दंगाई थे जिन्होंने हिंदू नरसंहार को अंजाम दिया। सैंकड़ों महिलाओं का रेप किया। इस भयावह नरसंहार के दौरान 70 से 90 मुसलमान पकड़े गए थे जिन्होंने हिंदू महिलाओं को मारा या उनका बलात्कार किया था। मोपला मुसलमानों में से 56 की मौत 19 नवंबर 1921 को तिरुर से कोयंबटूर के पास पोद्दानूर सेंट्रल जेल ले जाने के लिए एक मालगाड़ी में दम घुटने से हुई थी। इसके बाद 6 और कैदियों की मौत अस्पातल ले जाते वक्त हुई थी जबकि 8 की मौत अस्पताल में हुई थी।

अब यह तो दिलचस्प है कि कट्टरपंथी मोपला मुसलमानों द्वारा मारे गए 10000 से अधिक हिंदुओं के नरसंहार को जमींदारों के ख़िलाफ़ छेड़ा गया किसानों का विद्रोह बताने वाले दम घुटने से होने वाली मौत को नरसंहार कह रहे हैं। आप देख लीजिए कि यही वो सबूत है जो बताता है कि कैसे मुस्लिम वोट बैंक को खुश करने की आदत हिंदुओं के जीवन को कोई मोल नहीं रहने देती।

क्या मालाबार हिंदू नरसंहार जमींदारों के विरुद्ध छेड़ा गया किसान ‘विद्रोह’ था?

कम्युनिस्ट पार्टी ने केवल मालगाड़ी त्रासदी में मारे गए मोपला मुस्लिमों को अभागे पीड़ित कहने का काम नहीं किया बल्कि हिंदुओं के सारे नरसंहारों पर हमेशा से पर्दा डालती रही है। ये सब कम्युनिस्ट और उनके इतिहासकार व राजनेताओं की मदद से हुआ जिन्होंने इस पूरे नरसंहार को जमींदारों के विरुद्ध शुरू हुआ एक किसान विद्रोह कहा। मार्क्सवादी इतिहासकारों ने दशकों से दावा किया है कि नरसंहार की वास्तविक उत्पत्ति के बारे में बात करने का कोई भी प्रयास संघ द्वारा ‘विद्रोह’ को सांप्रदायिक बनाने का एक प्रयास है और इसकी शुरुआत में कोई हिंदू-मुस्लिम उपक्रम नहीं था।

हालाँकि, वह कम से कम कभी-कभी ये स्वीकार कर लेते हैं कि हिंदुओं की वास्तविकता में हत्या की गई थी। लेकिन उनका दावा कुछ अलग ढंग से होता है जैसे वह कहते हैं कि उस समय के जमींदारों ने किसानों के साथ बुरा व्यवहार किया और इसीलिए 1921 में किसानों ने जमींदारों के ख़िलाफ़ विद्रोह किया था। हिंदुओं के नरसंहार को सही बताने के लिए उन्होंने बड़ी आसानी से कह दिया कि जमींदार जो थे वो हिंदू थे और जो किसान थे वो मुसलमान थे। आगे इसी पाखंड में वो हिंदुओं के बलात्कार और हत्याओं को जस्टिफाई करते हैं। ऐसा लगता है कि जैसे कोई दैवीय प्रतिशोध था और अमीर, अभिमानी, शोषक हिंदू जमींदारों के खिलाफ दलितों और उत्पीड़ितों का विद्रोह था।

ऐसा करके, वे न केवल हिंदुओं पर थोपे गए जिहाद को धो पोंछते हैं, बल्कि यह भी दावा करते हैं कि हिंदुओं की मृत्यु इसलिए हुई क्योंकि हिंदुओं ने मुसलमानों पर अत्याचार किया। यह उनकी गलती है। उन्होंने वही काटा जो उन्होंने बोया था।

What the CPIM wrote about the Moplah Massacre of Hindus on their website
कम्युनिस्टों ने क्या लिखा है मोपला मुस्लिमों के लिए अपनी वेबसाइट पर

पूरे नरसंहार का सच बिलकुल अलग है। हिंदुओं के मोपला नरसंहार को बामुश्किल हमारी इतिहास की किताबों में पढ़ाया जाता है लेकिन खिलाफत आंदोलन जिसने इसे भड़काया उस पर लीपापोती की जाती है। हमारी इतिहास की किताबों में हमें ये जानकारी दी जाती है कि हिंदू मुस्लिम जब एक साथ ब्रिटिशों के ख़िलाफ़ लड़ने आगे आए उसे खिलाफत आंदोलन कहा गया। जबकि हकीकत ये है कि तुर्की में खलीफा के पद की पुन: स्थापना के लिए खिलाफत आंदोलन किया जा रहा था न कि स्वराज्य की माँग को लेकर। वो ब्रिटिश को भगाना चाहते थे लेकिन इसलिए ताकि इस्लामी हुकूमत काबिज हो सके। महात्मा गाँधी ने ऐसे समय में उनको समर्थन दिया और हिंदुओं से बिन लड़े मर जाने को कहा।

ऐसा करके गाँधी ने कट्टर इस्लाम को और बढ़ावा दे दिया। गाँधी मानते थे कि खिलाफत को उनका समर्थन भारतीय मुसलमानों में ब्रिटिश विरोधी जज्बात को भड़काएँगे। इस आंदोलन को पहला आंदोलन कहा गया जिसने ब्रिटिशों के विरुद्ध असहयोग आंदोलन को मजबूत किया।

कट्टरवादियों को गाँधी के समर्थन ने हिंदुओं की मौत, हिंदू महिलाओं के रेप, उनके सिर कलम और धर्मांतरण जैसी घटनाओं को जन्म दिया। जिन्होंने परिवर्तित होने से मना किया उन्हें काट दिया गया। कहा जाता है कि प्रेगनेंट महिलाएँ भी नहीं छोड़ी गईं थी। हिंदुओं के खून से सड़कें रंगी थीं और बिन पैदा हुआ नवजात सड़क पर खुला मरा पड़ा था।

मोपला मुसलमानों द्वारा किए गए अत्याचार के बारे में यह तथ्य कि यह किसान विद्रोह नहीं था, पर इतिहास में इसे सावधानीपूर्वक दर्ज किया गया है, हालाँकि इसका एक बड़ा हिस्सा केरल में कम्युनिस्टों द्वारा मिटा दिया गया था। 

जहाँ मार्क्सवादी इतिहासकारों ने 1921 में हिंदुओं के नरसंहार को मुस्लिम किसानों द्वारा हिंदू जमींदारों के खिलाफ एकतरफा विद्रोह के रूप में चित्रित किया, वहीं कई अन्य अपराधों ने मोपला मुसलमानों और मालाबार हिंदुओं के बीच संघर्ष को चिह्नित किया। 50 से अधिक ऐसी घटनाएँ जहाँ मोपला मुसलमानों ने हिंदुओं का नरसंहार किया था, दीवान बहादुर सी गोपालन द्वारा लिखित पुस्तक द मोपला विद्रोह, 1921 में दर्ज की गई थी, जो कालीकट, मालाबार के डिप्टी कलेक्टर थे। इस पुस्तक को मालाबार में हुई घटनाओं के सबसे प्रामाणिक लेखों में से एक माना जाता है।

ध्यान देने योग्य बात है कि जब मोपला मुसलमान ऐसे ऐतिहासिक अपराध को अंजाम दे रहे थे। उससे कहीं पहले अंग्रेजों ने 1852 में एक विशेष आयुक्त नियुक्त किया था, उनका नाम टीएल स्ट्रेंज था जिनका काम था कि पता लगाएँ कि आखिर मोपला मुसलमान नियमित रूप से हिंदुओं को मारते क्यों हैं।

1852 की यह रिपोर्ट भी ‘किसान विद्रोह’ वाले दावों को झुठलाती है। इसमें टीएल स्ट्रेंज ने कहा था,

“किसी भी खतरे को जमींदारों द्वारा किसानों के उत्पीड़न के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। बावजूद इसके दक्षिणी तहसील में मोपला आबादी इन प्रकोपों का दोष जमींदारों पर मढ़ने की कोशिश कर रही है। वे इसके लिए खूब कोलाहल कर रहे थे। मैंने इस मामले में पूरा ध्यान दिया है और मुझे विश्वास है कि हालाँकि किसानों की व्यक्तिगत कठिनाई के उदाहरण हो सकते हैं, लेकिन हिंदू जमींदार अपने किसानों के प्रति सामान्य चरित्र, चाहे मोपला या हिंदू, नरम, न्यायसंगत और सहनशील हैं। मैं इस बात को लेकर आश्वस्त हूँ कि मोपला के काश्तकारों का आचरण ठीक नहीं है। वो सामान्यतः अपने दायित्वों से बचने के लिए झूठी और कानूनी दलीलों का सहारा लेते हैं। ऐसे में इसको लेकर कड़े उपाय किए जाते हैं।”

उन्होंने आगे कहा:

“इन सभी मामलों में एक विशेषता सामान्य रही है कि उन्हें सबसे निश्चित कट्टरता द्वारा सभी को चिह्नित किया गया है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि इसके लिए उन्हें प्रोत्साहित किया जाता था। इस तरह की घटनाएँ जिन हिस्सों में है, वहाँ हिंदू मोपलाओं के डर में जी रहे हैं। अधिकतर अपने अधिकारों के लिए वहाँ के हिंदू मोपलाओं के इस तरह के डर में खड़े हैं कि ज्यादातर उनके खिलाफ अपने अधिकारों के लिए दबाव बनाने की हिम्मत नहीं करते हैं। कई मोपला यहाँ किराएदार हैं, लेकिन वे अपना किराया नहीं देते हैं। इसके अपने रिस्क भी हैं और इसीलिए अच्छा है कि वहाँ से बेदखल हो जाएँ।”

इसके अलावा भी कई ऐसे सबूत हैं जो बताते हैं कि उस समय हिंदुओं को इस्लामी कट्टरता की भेंट चढ़ना पड़ा था न कि किसी किसान विद्रोह का।

हालाँकि, (पाकिस्तान या भारत का विभाजन, पृष्ठ 146, 147 पर) डॉ अम्बेडकर कहते हैं:

“(खिलाफत) आंदोलन मुसलमानों द्वारा शुरू किया गया था। जिसे गाँधी द्वारा दृढ़ता और विश्वास के साथ अपना लिया गया। इसने शायद कई मुसलमानों को आश्चर्यचकित कर दिया होगा। ऐसे कई लोग थे जिन्होंने खिलाफत आंदोलन के नैतिक आधार पर संदेह किया और गाँधी को आंदोलन में भाग लेने से रोकने की कोशिश की, जिसका नैतिक आधार ही इतना संदिग्ध था।

उन्होंने कहा, “ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ ऐसा विद्रोह समझ आता। लेकिन सबसे ज्यादा हैरानी हिंदुओं के साथ हुए व्यवहार के कारण होती है।” उन्होंने लिखा, “मोपलाओं के हाथों हिंदुओं की दुर्दशा हुई। नरसंहार, जबरन धर्मांतरण, मंदिरों की अपवित्रता, महिलाओं पर अत्याचार, जैसे कि गर्भवती महिलाओं को चीरना, लूटपाट, आगजनी और विनाश। संक्षेप में, क्रूर और पूरी बर्बरता का प्रयोग मोपलाओं द्वारा हिंदुओं पर स्वतंत्र रूप से किया गया….ये कोई हिंदू मुस्लिम दंगा नहीं था। बल्कि ये नरसंहार था। कितने हिंदुओं को मारा गया, चोट पहुँचाई गई, उनका धर्मांतरण करवा दिया गया, इसकी सीधे-सीधे कोई गणना नहीं है। लेकिन संख्या बहुत बड़ी है।”

नई दिल्ली में आईसीएचआर के पूर्व अध्यक्ष डॉ एम जी एस. नारायणन ने इस संबंध में लिखा,

“गाँधीजी उस समय राजनीतिक रूप से अपरिपक्व थे कि वो ब्रिटिश भारत के संदर्भ में यह मान रहे थे कि भारत में गरीब और अनपढ़ मुस्लिम समुदाय को आसानी से ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ एक सक्रिय राजनीतिक संघर्ष में खींचा जा सकता है। मुसलमानों को खुश करने के लिए, उन्होंने… खिलाफत आंदोलन का समर्थन किया, जिसे अंग्रेजों ने प्रथम विश्व युद्ध के अंत में तुर्की में समाप्त कर दिया था। बाद में महात्मा गाँधी ने खिलाफत आंदोलन को समर्थन देने की अपनी इस मूर्खता पर खेद व्यक्त किया, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी- नुकसान हो चुका था। मुसलमानों को सामाजिक सुधार और आधुनिक शिक्षा के लिए मनाने के बजाए, खिलाफत ने उनकी रूढ़िवादी धार्मिक प्रवृत्ति को वैध बनाया और बाहरी दुनिया के बारे में उनके डर और संदेह को जगाया। इसने उनकी सांप्रदायिकता को और मजबूत किया, जो अलाउद्दीन खिलजी और औरंगजेब के दिनों से निष्क्रिय पड़े हिंदू काफिरों के खिलाफ नफरत के रूप में पनपी थी।”

न केवल भारतीय नेता और इतिहासकार, बल्कि एनी बेसेंट, जो एक ब्रिटिश थियोसोफिस्ट, समाजवादी और सुधारक थीं, उन्होंने हिंदुओं के मालाबार नरसंहार के बारे में विस्तार से लिखा था।

एनी बेसेंट, जिन्होंने 1921 के वसंत में मालाबार में पहले ‘सुधार सम्मेलन’ की अध्यक्षता की थी, ने भी इस घटना के बारे में विस्तार से लिखा था।

एनी बेसेंट ने फ्यूचर ऑफ इंडियन पॉलिटिक्स (थियोसोफिकल पब्लिशिंग हाउस, 1922, पृष्ठ 252) में लिखा था,

“चौथा कार्यक्रम औपचारिक रूप से 1 अगस्त 1920 को शुरू किया गया था; एक साल में स्वराज की प्राप्ति होनी थी और 1 अगस्त 1921 को मालाबार विद्रोह में पहला कदम उठाया गया। उस जिले के मुसलमान (मोपला) हथियार तैयार करने के तीन सप्ताह के बाद, विद्रोह के लिए एक निश्चित क्षेत्र में लक्ष्य के साथ आगे बढ़े, वो भी यह विश्वास करते हुए कि ब्रिटिश शासन समाप्त हो गया है और वो आजाद हैं।”

वह कहती हैं, “उन्होंने खिलाफत राज की स्थापना की, एक राजा का ताज पहनाया, हत्याएँ की और भारी मात्रा में लूटपाट की, और उन सभी हिंदुओं को मार डाला या भगा दिया जो धर्मांतरण को तैयार नहीं थे। कहीं न कहीं लगभग एक लाख लोगों को उनके घरों से निकाल दिया गया था, और उनके पास जो कपड़े थे, सब कुछ छीन लिया गया।”

मालाबार में हिंदुओं के खिलाफ मोपला मुसलमानों द्वारा किए गए नरसंहार के इतने व्यापक रिकॉर्ड होने के बाद किसी के मन में यह संदेह नहीं है कि वो वास्तव में जिहादी तत्व थे जिनके कारण हजारों हिंदुओं का नरसंहार हुआ। ये नरसंहार स्पष्ट तौर पर उस इच्छा का परिणाम था जो मोपला मुस्लिम चाहते थे कि ब्रिटिशों के जाने के बाद इस्लाम की स्थापना हो। और इसी प्रक्रिया में, वो सच्चे खलीफा स्टाइल में हिंदू काफिरों को बेरहमी और निर्दयता से मार रहे थे।

इतना सबके बावजूद कम्युनिस्ट सरकार आज टूरिज्म सर्किट बनाकर हिंदुओं के जख्मों पर नमक छिड़कना चाहती है ताकि मोपला मुस्लिमों को राष्ट्रवादी करार दिया जा सके जिन्होंने ब्रिटिशों के ख़िलाफ़ लड़ाई में हिंदुओं का साथ दिया। वह लोगों की स्मृतियों से मालाबार हिंदू नरसंहार की बातें मिटा चुके हैं। अब वह उन आवाजों को बदनाम करने के लिए आगे बढ़ रहे हैं जो धीरे-धीरे समझ रहे हैं कि इतिहास से सीखना जरूरी है वरना वहीं चीज होती रहेगी।

मोपला मुस्लिमों की बर्बरता पर लीपापोती और ISIS के टॉयलेट क्लीनर

ये समझना बेहद जरूरी है कि मोपला मुसलमान मालाबार में क्या चाहते थे जब उन्होंने इस्लामी खिलाफत स्थापित करने की कोशिश की जो कि तुर्क साम्राज्य से प्रतिबिंबित था। तुर्क साम्राज्य इस्लाम के कट्टरपंथी सिद्धांतों पर आधारित था और जबकि मार्क्सवादी इतिहासकारों ने इस्लाम के खलीफा के तहत भी बहुलवाद और भाईचारे के सिद्धांतों को आगे बढ़ाने की कोशिश की है। सच्चाई बिलकुल अलग है। कई ऐसे मामले हैं जब कट्टर जिहाद के नाम पर खलीफा के शासन के नाम पर काफिरों पर हमला हुआ जैसे ईसाई और अर्मेनियाई पर। यह वह मॉडल है जिसका कट्टरपंथी मोपला मुसलमान अनुकरण करना चाहते थे अपने उम्माह के भ्रम में। वो इस्लाम के खलीफा के लिए अपनी निष्ठा रख रहे थे न कि भारत राष्ट्र के लिए जिसके लिए भारतीय सेनानी लड़ रहे थे।

मोपला अंग्रेजों को भगाना चाहते थे। इसलिए नहीं कि वे भारत की संप्रभुता में विश्वास करते थे बल्कि इसलिए कि वे इसके स्थान पर एक इस्लामी खिलाफत स्थापित करना चाहते थे। इस मजहबी जंग के लिए उन्होंने जो नाम चुना, वह ‘खिलाफत आंदोलन’ था। एक ऐसा नाम जिसका गलत अर्थ समझने के लिए लोग आजाद थे और जब एमके गाँधी ने इस ख़िलाफत आंदोलन को समर्थन दिया तो लोगों ने इस खिलाफत को ‘खिलाफ’ समझ लिया और ये समझा कि मोपला मुस्लिम भी ब्रिटिशों के खिलाफ़ हैं। मार्क्सवादी इतिहासकारों ने इस गलत व्याख्या को आज तक आगे बढ़ाया और बार-बार दोहराया कि मोपला मुसलमान अंग्रेजों के खिलाफ़ लड़ रहे थे।

वास्तव में, खिलाफत आंदोलन का नाम ‘खलीफा’ के लिए रखा क्योंकि वे इस्लाम के तुर्की खलीफा के अधिकार को बनाए रखने के लिए लड़ रहे थे। आधिकारिक तौर पर, खिलाफत का अर्थ ‘खलीफा’ से है जो- विशेष रूप से पैगंबर की मृत्यु के बाद इस्लामी समुदाय के नेतृत्व को संदर्भित करता है।

आज के समय में खिलाफत का सही उदाहरण ISIS की स्थापना के साथ देखा जा सकता। उन्होंने अपना खलीफा बनाया जिसने इस्लामी कानून और शरिया के आधार पर इराक और सीरिया में राज किया। हालाँकि, इस बीच विश्व ने उस आतंक को ये कहकर कम कर दिया कि आईआईएसएस एक आतंकी संगठन है जो इस्लाम का इस्तेमाल हत्या और बलात्कार के लिए कर रहा है। लेकिन सच ये है कि आईएसआईएस इस्लाम पर चल रहा था जैसे तालिबान शरिया लागू करके अफगानिस्तान में चल रहा है।

इसलिए 1921 के मोपला मुस्लिमों की तुलना ISIS आतंकियों से करना ज्यादा गलत नहीं है। वो भी खिलाफत की माँग ही करते हैं। यह ‘राष्ट्रवादी आंदोलन’ है जिसका एमके गाँधी ने समर्थन किया और उस समय के मोपला मुस्लिम आतंकवादियों को प्रोत्साहित किया। कट्टरपंथी मुसलमानों का यही आतंकवादी आंदोलन आज कम्युनिस्ट ऐसे दिखाना चाहते हैं जैसे वो हिंदू जमींदारों के अत्याचार के विरुद्ध शुरू हुआ किसान विद्रोह था।

यह सच में हैरानी की बात नहीं है कि भारत के केरल को आईएसआईएस आतंकवादियों के लिए सबसे प्रमुख भर्ती का स्थान होने की विशिष्ट उपलब्धि क्यों प्राप्त है। केरल की कम्युनिस्ट पार्टी ने भले ही 100 साल पहले हुए हिंदू नरसंहार को धो दिया है लेकिन केरल के कट्टरपंथी मुसलमानों ने साबित कर दिया है कि अगर कोई उन्हें खलीफा की स्थापना की संतुष्टि देता है तो वो ISIS के टॉयलेट क्लीनर भी बनने को तैयार हैं।

केरल के सीएम ने खुद स्वीकार किया कि 2019 तक 100 से ज्यादा मलयाली ISIS में शामिल हो गए थे। जबकि केरल के ये मुसलमान दर्जनों में ISIS में शामिल हो रहे हैं, इस बारे में कई रिपोर्टें आई हैं कि ISIS इन भारतीय आतंकवादियों को कैसे देखता है और जोर देता है कि वे शौचालय साफ करें। जहाँ ये युवा आतंकवादी काफिरों का सिर कलम करने, शरीयत थोपने और खिलाफत स्थापित करने के सपने के साथ इराक और सीरिया जाते हैं, वहीं दुनिया के अन्य हिस्सों से आईएसआईएस के अन्य जिहादियों के लिए शौचालय साफ करने के लिए इन युवा आतंकवादियों को भर्ती किया जाता है। आश्चर्यजनक बात ये है कि खिलाफत को लेकर इनकी इच्छा इतनी प्रबल है कि इन्हें वो काम भी पसंद आ जाता है।

अगर इन आधुनिक जिहादियों को आईएसआईएस जिहादियों के शौचालयों की सफाई करने में कोई आपत्ति नहीं है, तो आपको यह मानना ​​​​होगा कि मोपला मुसलमानों के अपराधों को धोना, जो 1921 में ही आज के आईएसआईएस जैसी खिलाफत स्थापित करना चाहते थे, कुछ ऐसा है जो स्वाभाविक रूप से इनमें और इनसे सहानुभूति रखने वालों में आता है।

इस्लामी खलीफा की चाह रखने वालों के शौचालय साफ करने से लेकर अब नरसंहार को छिपाने का प्रयास… केरल अक्सर ‘काफिरों’ के घाव पर नमक छिड़कने में सबसे आगे रहा है और उनके कटे सिर, क्षत-विक्षत शरीर से मुँह फेरता रहा है। वहीं की सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी अब फिर इतिहास लिखना चाहती है ताकि जब दोबारा ऐसी कोई स्थिति सामने आए तो आँख पर पट्टी बाँधे रखने वाले हिंदू उससे भी गुरेज न करें। ये सब हैरान करने वाला नहीं है बल्कि एक चेतावनी जैसा है- जब हिंदू काफिरों का जिहादी नरसंहार करेंगे, तो कम्युनिस्ट उनके साथ खड़े होंगे और हमारे दिमाग में ये डालेंगे कि नरसंहार तो हमारी ही गलती थी।

नोट: मूल रूप से अंग्रेजी में नुपूर शर्मा द्वारा लिखी इस रिपोर्ट का अनुवाद जयंती मिश्रा ने किया है। मूल लेख इस लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

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