Sunday, September 1, 2024
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बुर्क़े की तुलना घूँघट से करने से पहले जरा भारत का इतिहास भी देख लें जावेद ‘ट्रोल’ अख़्तर

इस्लामी आक्रांताओं से बचने के लिए उत्तर भारत में घूँघट से चेहरा ढँकने का चलन तेज़ हुआ। मुस्लिम आक्रांताओं की महिलाओं पर बुरी नज़र रहती थी। अगर पटनायक की बातों को खंगालने के लिए कुछ घटनाओं को देखें तो समझ में आता है कि आख़िर क्यों भारत में घूँघट का चलन तेज़ हुआ।

जाने-माने गीतकार और स्क्रिप्ट लेखक जावेद अख़्तर ने बुर्क़ा पर कई देशों में लगाए जा रहे प्रतिबंधों के बीच घूँघट पर प्रतिबन्ध लगाने की माँग की है। अब ट्विटर ट्रोल का रूप धारण कर चुके जावेद अख़्तर फ़िल्म इंडस्ट्री के वरिष्ठ सदस्यों में से एक हैं। कई दशकों से बॉलीवुड में काम कर रहे जावेद अख़्तर की इस सोच को देख कर समझा जा सकते है कि उन्होंने जिन तमाम फ़िल्मों का स्क्रिप्ट लेखन किया है, वो फ़िल्में क्या सन्देश देती होंगी? भले ही उनके द्वारा लिखी कई फ़िल्में सुपरहिट साबित हुईं और अमिताभ बच्चन जैसे नायकों को शिखर सम्मान मिला लेकिन ध्यान से देखें तो कहीं न कहीं ऐसी फ़िल्मों के कुछ दृश्यों में भी जावेद अख़्तर की सोच झलक ही जाती है। जैसे, विलेन हमेशा चन्दन-टीका धारी होते थे, ईमानदार दोस्त हमेशा मजहब विशेष वाला होता था और पुजारी हमेशा पाखंडी ही होते थे। यह ट्रेंड आज तक चला ही आ रहा है।

अब जावेद अख़्तर ने उसी सोच को नई पराकाष्ठा देते हुए लिखा, “देश में बुर्क़ा पहनने पर प्रतिबंध लगाने पर मुझे कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन केंद्र सरकार राजस्थान में 6 मई को होने वाले लोकसभा सीटों के लिए मतदान से पहले घूँघट प्रथा पर भी प्रतिबंध लगाए।” जावेद अख्तर के इस बयान के बाद उनके ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन शुरू हो गया, जिसके बाद उन्होंने ट्विटर पर अपनी सफ़ाई में लिखा, “कुछ लोग मेरे बयानों को तोड़-मोड़ कर पेश कर रहे हैं। मेरे हिसाब से, भले ही श्री लंका में इसे (बुर्क़ा बैन) सुरक्षा कारणों से किया जा रहा है लेकिन महिला सशक्तिकरण के लिए इसकी ज़रूरत है। चेहरे को ढँकना प्रतिबंधित होना चाहिए, चाहे वो बुर्क़ा हो या घूँघट।” डैमेज कंट्रोल में जुटे जावेद अख़्तर ने एक और ग़लती कर दी।

और हाँ, जावेद अख़्तर ने तो कई ऐसे गीत लिखे हैं जिनमें घूँघट को सुंदरता के पर्याय की तरह पेश किया गया है। ‘घूँघट में गोरी है’ से लेकर ‘घूँघट में गोरी क्यूँ जले’ तक, उनकी इन गीतों के वीडियो में नायिका ने घूँघट नहीं रखा है लेकिन गाने में इसका जिक्र है। नायिका की सुंदरता में चार चाँद लगाने वाले माध्यम की तरह घूँघट को पेश करने वाले जावेद अख़्तर को ये अब सामाजिक कुरीति लगती है क्योंकि अब बुर्क़े पर प्रतिबन्ध की माँग हो रही है या लगाई जा रही है। घूँघट तबतक अच्छा था जबतक इससे उनका व्यवसाय चल रहा था, तबतक वो इसमें सुंदरता देखते थे। अब घूँघट एक कुरीति है क्योंकि ‘उनके’ बुर्क़े पर आँच आई है।

जावेद अख़्तर ने घूँघट को न सिर्फ़ महिलाओं के दमन से जोड़कर देखा बल्कि इसे महिला सशक्तिकरण के भी ख़िलाफ़ बताया। यह अचंभित करने वाला है कि अपनी पूरी उम्र फ़िल्मों के गीत और कहानियाँ लिखते हुए बिताने वाले जावेद अख़्तर अपने ही देश की संस्कृति और इतिहास से अनजान हैं। हमनें एक लेख में बताया था कि बुर्क़ा पर अधिकतर देश इसीलिए प्रतिबन्ध लगा रहे हैं क्योंकि कई आतंकी घटनाओं में बुर्क़ा का किरदार सामने आया है। आतंकियों ने चेहरा ढँकने के लिए इसका कितनी बार प्रयोग किया लेकिन इसे प्रतिबंधित करना इतना आसान भी नहीं है। मुस्लिम संगठनों द्वारा विरोध प्रदर्शन किए जाएँगे, विपक्षी नेताओं द्वारा मुस्लिमों को बरगलाया जाएगा कि उनके अधिकार छीने जा रहे हैं और जावेद अख़्तर जैसे बुद्धिजीवी इसे हिन्दू या भारतीय परम्पराओं से जोड़ कर देखेंगे। ये सब शुरू भी हो गया है। ऐसा दुनियाभर में है।

बुर्क़ा और घूँघट के बीच समानता स्थापित करने वाले जावेद अख़्तर को सबसे पहले धार्मिक बुराई और सामाजिक कुरीति के बीच का अंतर समझना चाहिए। बुर्क़ा पहन कर आतंकी हमले की साजिश रचने वाले और ‘अल्लाहु अक़बर’ कह कर लोगों को मारने वाले इस्लामिक आतंकियों को रोकने के लिए बुर्क़ा पर प्रतिबन्ध लगाया जाता है तो तमाम मुस्लिम संगठन इसके विरोध में आ जाते हैं, यह है धार्मिक बुराई। जबकि, घूँघट भारत में एक क्षेत्रीय परम्परा है जो हर क्षेत्र में अलग-अलग कारणों से प्रयोग में आया। अगर किसी क्षेत्र में इसे जबरदस्ती थोपा जा रहा है, तो ये है सामाजिक बुराई। इसका हिन्दू धर्म से कोई लेना-देना नहीं। इसे समझने के लिए भारत के भूगोल को समझना पड़ेगा। तभी यह पता चलेगा कि यह हिन्दू धर्म से जुड़ी कोई बुराई नहीं है, जैसे बुर्क़ा एक सम्पूर्ण इस्लामिक बुराई बन गई है।

सबसे पहले तो जो लोग घूँघट को हिन्दू धर्म से जोड़ कर देखते हैं, उनसे एक सवाल यह पूछा जाना चाहिए कि क्या उन्होंने कभी किसी हिन्दू देवी को घूँघट में देखा है? क्या लक्ष्मी, दुर्गा या काली का कहीं भी घूँघट में वर्णन है, जहाँ उनका पूरा चेहरा ढँका हुआ हो? इसका जवाब है, नहीं। इसके तार भी इस्लामिक आक्रमणों से जुड़ते हैं। भारत में 11वीं सदी के बाद से जब इस्लामिक आक्रमण तेज़ हो गए, तब हिन्दू महिलाओं पर उनकी ख़ास नज़र थी। देवदत्त पटनायक जैसे कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि इस्लामी आक्रांताओं से बचने के लिए उत्तर भारत में घूँघट से चेहरा ढँकने का चलन तेज़ हुआ। मुस्लिम आक्रांताओं की महिलाओं पर बुरी नज़र रहती थी। अगर पटनायक की बातों को खंगालने के लिए कुछ घटनाओं को देखें तो समझ में आता है कि आख़िर क्यों भारत में घूँघट का चलन तेज़ हुआ।

जब कई राज्यों के मुस्लिम आक्रांताओं ने मिल कर सम्राट कृष्णदेवराय की मृत्यु के बाद विजयनगर साम्राज्य को तबाह किया, तब विजयनगर जैसे सुन्दर नगर को कचरे में बदल दिया गया। एक अंतरराष्ट्रीय घुमक्कड़ ने विजयनगर की तुलना कभी उस समय दुनिया के सबसे अमीर शहर रोम से की थी। जब विजयनगर तबाह हुआ, तब वहाँ हज़ारों औरतों का बलात्कार किया गया। पुरुषों को मार डाला गया और महिलाओं के साथ सेनापतियों व सेनाओं ने थोक में बलात्कार किया। इसी तरह जब अकबर को दिल्ली का राजा बनाने के लिए युद्ध हुआ, उसके बाद लोगों को मार-मार कर उनकी खोपड़ियों का पहाड़ खड़ा किया गया। उस दौरान भी बैरम खान जैसे आततायी के नेतृत्व में अनगिनत महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार, बलात्कार किया गया, उनका उत्पीड़न किया गया। इससे यहाँ के निवासियों में भय व्याप्त हो गया।

चूँकि, उत्तर भारत लगातार बर्बर इस्लामिक आक्रमणों का गवाह बना, यहाँ घूँघट से चेहरे ढँकने की प्रथा तेज़ हो गई। वैसे घूँघट का प्रमाण भारत में सदियों से मिलता है लेकिन इसका अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग कारणों से प्रयोग किया जाता रहा है। पटनायक लिखते हैं कि दक्षिण भारत में घूँघट का चलन नहीं चला। इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि जिस प्रदेश में इस्लामिक आक्रांताओं का आतंक बढ़ा, वहाँ लोगों ने बहू-बेटियों की सुरक्षा के लिए कुछ नियम बनाए। अब इससे भी पीछे चलते हैं, बहुत पीछे। घूँघट शब्द का जन्म संस्कृत शब्द अवगुण्ठन से हुआ है। प्राचीन काल में महाराज शूद्रक द्वारा लिखी गई पुस्तक मृच्छकटिकम में इसका वर्णन है। इस पुस्तक में शूद्रक ने अवगुंठन के बारे में लिखा है कि महिलाएँ इसका प्रयोग अपने बालों की सुरक्षा के लिए करती थीं।

महाराज शूद्रक लिखते हैं कि महिलाएँ जब किसी कार्यक्रम में जाती थीं तो वो सजती-सँवरती थी और बालों को सँवारने पर उनका विशेष ध्यान होता था। इसी कारण उन्होंने अवगुंठन धारण करना शुरू किया। इससे बाल बंधे और ढँके रहते थे। हवा वगैरह से इसपर कोई नुकसान नहीं पहुँचता था। इसके अलावा राजस्थान के धूल भरे रेगिस्तान में महिलाओं द्वारा घूँघट का प्रयोग धूप द्वारा बचने के लिए भी किया गया। बाद में धीरे-धीरे घूँघट कई क्षेत्रों में या समाज में विवाहित महिलाओं की पहचान बन गई और इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि इसे कई क्षेत्रों में जबरन भी थोपा गया। लेकिन, घूँघट से आजतक किसी को कोई ख़तरा नहीं हुआ। बुर्क़ा पर प्रतिबन्ध सुरक्षा कारणों की वजह से लग रहा है, इस्लामी कुरीति तो यह है ही क्योंकि दुनियाभर में कई देशों में इस्लामिक समाज में इसका इस्तेमाल व्यापक तौर पर होता है।

घूँघट कहीं-कहीं सामाजिक कुरीति ज़रूर बन गई लेकिन जहाँ भी ऐसा हुआ, वहाँ विरोध भी किया गया। बौद्ध कथाओं के अनुसार जब यशोधरा को बड़ों के सामने घूँघट करने को कहा गया तो उन्होंने इनकार कर दिया और दरबार में जाकर इसके पीछे के कारण भी गिनाए। इसी तरह सिख गुरु अमर सिंह ने घूँघट प्रथा को हटाने के लिए अभियान चलाया। लेकिन, राजस्थान जैसे कुछ राज्यों में भौगोलिक व मौसमी परिस्थितियों के कारण आज भी इसका प्रचलन है। जावेद अख़्तर ने एक व्यापक समस्या (बुर्क़ा) की एक ऐसी चीज से तुलना करने की कोशिश की, जो एक प्रचलन है, परंपरा है। बुराइयाँ हर परम्परा, रीति और चलन में तभी आती है जब उसे जबरदस्ती थोपा जाने लगता है। जबतक उसे स्वेच्छा से स्वीकार किया जाता है, उससे किसी को कोई ख़तरा नहीं है, तबतक उसे धार्मिक या सामाजिक बुराई का जबरन रूप दे देना सही नहीं है।

बुराइयाँ हर जगह है। लेकिन, उसकी व्यापकता और उससे समाज को होने वाले ख़तरे को माप कर यह अंदाज़ा लगाया जाता है कि उस बुराई को कितनी जल्दी ख़त्म कर देना चाहिए। घूँघट प्रथा ने अगर कहीं किसी क्षेत्र में, किसी समाज में, अगर बुराई का रूप ले ही लिया है तो इसके सामाजिक अभियान चलाकर ठीक किया जा सकता है। लेकिन, जिस बुर्के का प्रयोग करके नरसंहार किया जा रहा है, वह केवल सामाजिक बुराई नहीं है बल्कि सुरक्षा की दृष्टि से भी ख़तरा है और जिस तरह से इसके समर्थन में मुस्लिम बुद्धिजीवी और संगठन खड़े हो रहे हैं, उससे लगता है कि इसे जल्द से जल्द बैन करना समय की माँग है।

अब आते हैं जावेद अख़्तर के डैमेज कंट्रोल पर। जब जावेद ने देखा कि बुर्क़ा से घूँघट की तुलना करने के लिए उनके पास कोई ख़ास तर्क नहीं हैं, उन्होंने इसे महिला सशक्तिकरण से जोड़ कर बहाने मारना शुरू कर दिया। उनका भाव यह था कि हिन्दू धर्म में इसका भी जबरन इस्तेमाल उतना ही व्यापक है, जैसा दुनियाभर के मुस्लिम समाज में। हिन्दुओं में अधिकतर क्षेत्रों में शादी के दौरान पुरुष भी अपना चेहरा ढँके रहते हैं। फेरे लेने के दौरान वर-वधू दोनों के ही चेहरों पर पर्दा होता है। क्या जावेद अख़्तर इसे भी कुरीति कहेंगे? हाँ, अगर ज़बरन कहीं किसी पुरुष का चेहरा ढक दिया जाता है तो इसे पुरुष सशक्तिकरण से भले देखिए, लेकिन जहाँ ये परम्परा ही है, उसे आप कुरीति कैसे कह सकते हैं? इसीलिए जावेद अख़्तर को समझना चाहिए कि घूँघट बुर्क़ा नहीं है।

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अनुपम कुमार सिंह
अनुपम कुमार सिंहhttp://anupamkrsin.wordpress.com
भारत की सनातन परंपरा के पुनर्जागरण के अभियान में 'गिलहरी योगदान' दे रहा एक छोटा सा सिपाही, जिसे भारतीय इतिहास, संस्कृति, राजनीति और सिनेमा की समझ है। पढ़ाई कम्प्यूटर साइंस से हुई, लेकिन यात्रा मीडिया की चल रही है। अपने लेखों के जरिए समसामयिक विषयों के विश्लेषण के साथ-साथ वो चीजें आपके समक्ष लाने का प्रयास करता हूँ, जिन पर मुख्यधारा की मीडिया का एक बड़ा वर्ग पर्दा डालने की कोशिश में लगा रहता है।

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