प्रयागराज और उसके आसपास के इलाकों में स्थित गंगा नदी के घाटों पर शवों को दफनाने के मामले में दर्ज PIL को इलाहबाद हाईकोर्ट ने ख़ारिज कर दिया। हाईकोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता ने गंगा नदी के आसपास रहने वाले लोगों के रीति-रिवाजों को लेकर कोई अध्ययन नहीं किया है। याचिकाकर्ता से कहा गया है कि वो इस मामले की रिसर्च कर के फिर से याचिका दायर कर सकते हैं। मौजूदा याचिका रद्द कर दी गई।
इलाहबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश संजय यादव की अध्यक्षता वाली पीठ ने इस मामले को सुना। याचिकाकर्ता से उन्होंने पूछा कि आपने जनहित में ये याचिका लगाई तो, तो आप बताइए कि आज तक आपने कितने शवों को चिह्नित कर उनका सही तरीके से अंतिम संस्कार किया है। जनहित में आपका योगदान क्या है? अधिवक्ता प्रणवेश ने कहा कि उन्होंने व्यक्तिगत रूप से इन इलाकों का दौरा किया है और स्थिति काफी बदतर है।
कोर्ट ने पूछा, “आप हमें बताइए कि जनहित में आपका योगदान क्या है? आपने जिस मुद्दे को उठाया है, उसके हिसाब से आपने जमीन खोद कर कितने शवों को निकाला और उनका अंतिम संस्कार किया?” हाईकोर्ट ने याद दिलाया कि गंगा किनारे रहने वाले अलग-अलग समुदाय के लोगों के विभिन्न रीति-रिवाज और परम्पराएँ हैं। अपने योगदान के बारे में प्रणवेश ने सिर्फ इतना ही बताया कि वो लोगों को ‘इलेक्ट्रिक क्रिमेशन’ के लिए जागरूक कर रहे हैं।
Court: There are ample practice and there are various communities which practice different rites and you have done no research.
— Bar & Bench (@barandbench) June 18, 2021
We are not entertaining such petitions and the relief cannot be granted, do research and come back.#allahabadhighcourt
इस पर हाईकोर्ट ने पूछा कि उनके प्रयासों का नतीजा क्या निकला और कितने लोगों की उन्होंने मदद की? इस पर अधिवक्ता ने कहा कि उनके पास ऐसा कोई आँकड़ा नहीं है लेकिन साथ ही दोहराया कि स्थिति बिलकुल ही तबाही वाली है। हाईकोर्ट ने कहा कि आप कुछ रिसर्च कर के आइए, हम ऐसी याचिका पर आगे नहीं बढ़ सकते। कोर्ट ने इसे ‘पब्लिसिटी इंटरेस्ट लिटिगेशन’ करार देते हुए कहा कि बड़े-बड़े शब्दों और विशेषणों से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है, जब तक जमीनी हकीकत का भान न हो।
हाईकोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता ने ही बताया है कि मानवाधिकार आयोग ने इस सम्बन्ध में एक्शन लिया है, तो फिर वो वहीं क्यों नहीं जाते? साथ ही सलाह दी कि इस तरह के निर्देशों के लिए अदालत का दरवाजा न खटखटाएँ। वकील प्रणवेश ने अंतिम संस्कार को सरकार की जिम्मेदारी बताया। इस पर हाईकोर्ट ने पूछा कि किसी के परिवार में कोई मृत्यु होती है तो ये सरकार की जिम्मेदारी है? साथ ही याद दिलाया कि अलग-अलग समुदायों की अलग-अलग पद्धतियाँ होती हैं।
बता दें कि कई समुदायों में जल-समाधि और भू-समाधि के साथ-साथ शवों को दफनाने की भी प्रक्रिया अपनाई जाती है। इसीलिए, कानपुर जैसे इलाकों में हिन्दुओं के भी कई कब्रिस्तान होते हैं। ये परंपरा सैकड़ों वर्ष पुरानी है। अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरि ने कहा था कि गंगा के घाट के पास पार्थिव शरीर हमेशा दफनाए जाते हैं, उस पर प्रश्न उठाना गलत है। छत्तीसगढ़ में भी अधिकतर आदिवासी यही प्रक्रिया अपनाते हैं।