इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक ऐसे व्यक्ति को निर्दोष करार दिया है, जो पिछले 20 वर्षों से जेल में कैद था। व्यक्ति को बलात्कार के आरोप और अनुसूचित जाति/ जनजाति अधिनियम (एससीएसटी एक्ट) के तहत गिरफ्तार किया गया था। हाईकोर्ट ने आरोपित की रिहाई की बात कहते हुए मामले पर तल्ख़ टिप्पणी भी की है। हाईकोर्ट के मुताबिक़ दुराचार का आरोप साबित नहीं हो पाया। मेडिकल रिपोर्ट में ज़बरदस्ती के कोई सबूत नहीं मिले हैं। मामले की रिपोर्ट भी घटना के तीन दिन बाद लिखाई गई थी।
इसके बाद हाईकोर्ट ने सरकार के रवैये पर टिप्पणी करते हुए कहा कि आजीवन कारावास की सज़ा भुगत रहे कैदियों की 14 साल बाद रिहाई पर विचार न करना दुर्भाग्यपूर्ण है। सरकार को 14 साल से जेल में बंद कैदियों की रिहाई क़ानून के क़ानून का पालन चाहिए। यह आदेश न्यायाधीश जेके ठाकुर और न्यायाधीश गौतम चौधरी की खंडपीठ ने सुनाया है। उन्होंने यह आदेश ललितपुर के विष्णु की जेल अपील को स्वीकार करते हुए सुनाया है।
खंडपीठ ने आदेश सुनाते हुए कहा, “हमें इस बात से निराशा है कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 432 और 433 के तहत राज्य और केंद्र सरकार को अधिकार है कि वह 10 से 14 साल की सज़ा भुगतने के बाद आरोपित की रिहाई पर विचार करे। इसके अलावा संविधान के अनुच्छेद 161 के तहत राज्यपाल को मिली शक्तियों का भी इस्तेमाल नहीं किया गया, हालाँकि, सज़ा कम करने के मामले में तमाम पाबंदियाँ भी हैं। इस मामले में विचार किया जा सकता था लेकिन नहीं किया गया। इस मामले को तथ्यात्मक दृष्टिकोण से देखने पर पता चलता है कि सरकार ने इस मामले में जेल मैनुअल के मुताबिक़ कार्रवाई की। यह भी देखा जा सकता है कि अपील करने वाले का मामला इतना भी संगीन नहीं था कि इस पर विचार ही नहीं किया जाए।”
अदालत का फैसला उस मेडिकल रिपोर्ट के आधार पर सुनाया गया था जिसमें ये जानकारी मौजूद थी कि पीड़िता के साथ ज़बरदस्ती के कोई सबूत नहीं मिले थे। जो कि उस समय 5 महीने की गर्भवती थी। इसके अलावा उसने पूछताछ में ऐसे कई बयान दिए थे जिससे यह स्पष्ट हो गया कि वह ‘सटीक चश्मदीद’ नहीं है। हाईकोर्ट ने फैसले में यह भी कहा, “पीड़िता के ससुर ने कहा था कि सभी पक्षों ने पंचायत बुलाई थी। लेकिन इसका कोई रिकॉर्ड मौजूद नहीं है कि पंचायत में कौन कौन बुलाया गया था। पाँच महीने की गर्भवती महिला के साथ किसी भी तरह की ज़बरदस्ती की जाती है तो उसे चोट लगना स्वाभाविक है। लेकिन पीड़िता के शरीर पर इस तरह की कोई चोट मौजूद नहीं थी।”
रिपोर्ट के मुताबिक़ इस मामले में पीड़ित पक्ष का आरोप था कि रामेश्वर तिवारी के बेटे विष्णु ने अनुसूचित जाति की महिला के साथ बलात्कार किया था। लगाए गए आरोपों के मुताबिक़ विष्णु ने वारदात को अंजाम देने के बाद महिला को इस बारे में किसी से बताने पर जान से मारने की धमकी भी दी थी। हाईकोर्ट ने पूरे प्रकरण में यह भी पाया कि दोनों परिवारों के बीच ज़मीन का विवाद भी था। अंत में अदालत का कहना था, “हमारे निरीक्षण के अनुसार मेडिकल साक्ष्यों से स्पष्ट है कि डॉक्टर्स को जाँच के दौरान स्पर्म नहीं मिला था। इसके अलावा जबरन ज्यादती के सबूत भी नहीं मिले हैं। इसके अलावा महिला को भी किसी तरह की चोट नहीं आई थी।”