केंद्र सरकार ने गुरुवार (3 अक्टूबर 2024) को सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर ‘वैवाहिक बलात्कार’ को अपराध बनाने को अत्यधिक कठोर और असंगत बताया है। केंद्र सरकार ने उन याचिकाओं का विरोध किया, जिनमें वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने की माँग की गई है। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने मौजूदा भारतीय बलात्कार कानून का समर्थन किया, जिसमें पति-पत्नी के यौन संबंधों के लिए अपवाद है।
अपने हलफनामे में केंद्र सरकार ने कहा कि वैवाहिक बलात्कार कानूनी से अधिक सामाजिक मुद्दा है, जिसका सीधा असर आम समाज पर पड़ता है। केंद्र ने तर्क दिया कि अगर ‘वैवाहिक बलात्कार’ को अपराध माना भी जाता है तो ऐसा करना सुप्रीम कोर्ट के बस की बात नहीं है। इस मुद्दे पर सभी हितधारकों से उचित परामर्श किए बिना या सभी राज्यों के विचारों को ध्यान में रखे बिना निर्णय नहीं लिया जा सकता।
केंद्र ने कहा कि भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 375 के अपवाद 2 और धारा 376B तथा सीआरपीसी की धारा 198B की संवैधानिक वैधता तय करने के लिए सभी राज्यों के साथ उचित परामर्श की आवश्यकता है। केंद्र सरकार राष्ट्रीय महिला आयोग की 2022 की रिपोर्ट पर निर्भर है, जिसमें कई सुझाव दिए गए हैं।
“The case of a married woman and her own husband cannot be treated
— Live Law (@LiveLawIndia) October 3, 2024
in a exact same manner as that in other cases as there are other penal consequences that are arising from the said situation” – Centre on marital rape. pic.twitter.com/RyxiIs88xV
राष्ट्रीय महिला आयोग (NCW) की उस रिपोर्ट में कहा गया है कि एमआरई को बरकरार रखा जाना चाहिए क्योंकि (i) एक विवाहित महिला को अविवाहित महिला के समान नहीं माना जा सकता है (ii) वैकल्पिक उपचार मौजूद हैं (iii) दंडात्मक उपायों से पत्नी और आश्रित बच्चों के लिए बेसहारापन और आवारागर्दी हो सकती है।
केंद्र ने कहा कि विवाह से महिला की सहमति समाप्त नहीं होती है और इसके उल्लंघन के लिए दंडात्मक परिणाम होने चाहिए। हालाँकि, विवाह के भीतर इस तरह के उल्लंघन के परिणाम विवाह के बाहर के उल्लंघनों से भिन्न होते हैं। इसमें कहा गया है कि सहमति के उल्लंघन के लिए अलग-अलग तरीके से सजा दी जानी चाहिए। यह इस बात पर निर्भर करता है कि ऐसा कृत्य विवाह के भीतर हुआ है या बाहर।
केंद्र सरकार ने कहा कि विवाह में अपने जीवनसाथी से उचित यौन संबंध बनाने की निरंतर अपेक्षा की जाती है। ऐसी अपेक्षाएँ पति को अपनी पत्नी की इच्छा के विरुद्ध उससे यौन संबंध बनाने के लिए मजबूर करने का अधिकार नहीं देती हैं। हालाँकि, केंद्र ने कहा कि इस तरह के कृत्य के लिए बलात्कार विरोधी कानूनों के तहत किसी व्यक्ति को दंडित करना अत्यधिक और असंगत हो सकता है।
केंद्र सरकार ने आगे कहा कि संसद ने विवाह के भीतर विवाहित महिला की सहमति की रक्षा के लिए पहले से ही विभिन्न उपाय प्रदान किए हैं। इनमें विवाहित महिलाओं के प्रति क्रूरता के लिए दंडित करने वाले कानून (IPC के तहत धारा 498A), महिलाओं की शील के विरुद्ध कृत्यों के लिए दंडित करने वाले कानून तथा घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम 2005 के तहत उपाय शामिल हैं।
हलफनामे में कहा गया है, “यौन पहलू पति-पत्नी के संबंधों के कई पहलुओं में से एक है, जिस पर उनके विवाह की आधारशिला टिकी होती है। हमारे सामाजिक-कानूनी परिवेश में वैवाहिक संस्था की प्रकृति को देखते हुए, यदि विधायिका का यह विचार है कि वैवाहिक संस्था के संरक्षण के लिए आपत्तिजनक अपवाद को बरकरार रखा जाना चाहिए तो यह न्यायालय द्वारा अपवाद को रद्द करना उचित नहीं होगा।”
केंद्र ने विवाह संस्था को निजी संस्था मानने के याचिकाकर्ताओं के दृष्टिकोण की आलोचना की और इसे एकतरफा बताया। उसने कहा कि एक पति-पत्नी के मामले को अन्य मामलों की तरह नहीं माना जा सकता। उसने कहा कि अलग-अलग स्थितियों में यौन शोषण के दंडात्मक परिणामों को अलग-अलग तरीके से वर्गीकृत करना विधायिका पर निर्भर है।
केंद्र सरकार ने तर्क दिया कि मौजूदा कानून पति-पत्नी के बीच यौन संबंधों के लिए सहमति की अवहेलना नहीं करता है, बल्कि केवल तभी अलग व्यवहार करता है जब यह विवाह के भीतर हो। केंद्र ने कहा कि यह दृष्टिकोण संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) के अनुरूप भी है, क्योंकि यह दो अतुलनीय स्थितियों (विवाह के भीतर और बाहर यौन संबंध) को समान मानने से इनकार करता है।
केंद्र सरकार ने कहा कि वह महिलाओं की स्वतंत्रता और सम्मान के लिए प्रतिबद्ध है और वैवाहिक बलात्कार को प्रतिबंधित करने की आवश्यकता नहीं है। बता दें कि भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जेबी पारदीवाला और न्यायाधीश मनोज मिश्रा की पीठ इस मामले पर विचार कर रही है।
पहले भी केंद्र कर चुका है विरोध
भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 375 के अपवाद 2 के माध्यम से वैवाहिक बलात्कार को ‘बलात्कार’ के दायरे से बाहर रखा गया है। इसी तरह का प्रावधान हाल ही में अधिनियमित भारतीय न्याय संहिता (BNS) में भी मौजूद है। साल 2022 में दिल्ली हाई कोर्ट ने वैवाहिक बलात्कार को अपराध माना जाना चाहिए या नहीं, इसको लेकर विभाजित फैसला सुनाया था।
इसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट पहुँचा। केंद्र ने पिछले साल दिल्ली हाई कोर्ट में मैरिटल रेप पर चल रही सुनवाई के दौरान कहा था कि केवल इसलिए कि अन्य देशों ने मैरिटल रेप को अपराध घोषित कर दिया है, भारत को भी ऐसा करने की जरूरत नहीं है। केंद्र ने तर्क दिया था कि भारत की सामाजिक व्यवस्था अलग है।
इससे पहले साल 2016 में मोदी सरकार ने मैरिटल रेप के विचार को खारिज कर दिया था। सरकार ने कहा था कि देश में अशिक्षा, गरीबी, ढेरों सामाजिक रीति-रिवाजों, मूल्यों, धार्मिक विश्वासों और विवाह को एक संस्कार के रूप में मानने की समाज की मानसिकता जैसे विभिन्न कारणों से इसे भारतीय संदर्भ में लागू नहीं किया जा सकता है।
वहीं, साल 2017 में केंद्र सरकार ने मैरिटल रेप को अपराध न मानने के कानूनी अपवाद को हटाने का विरोध किया था। सरकार ने तर्क दिया था कि मैरिटल रेप को अपराध घोषित करने से विवाह की संस्था अस्थिर हो जाएगी और इसका इस्तेमाल पत्नियों द्वारा अपने पतियों को सजा देने के लिए किया जाएगा।
वैवाहिक बलात्कार या मैरिटल रेप
दरअसल, पत्नी की अनुमति के बिना पति द्वारा जबरन शारीरिक संबंध बनाने को मैरिटल रेप या वैवाहिक बलात्कार कहा जाता है। इसे पत्नी के खिलाफ एक तरह की घरेलू हिंसा और यौन उत्पीड़न माना जाता है। वर्तमान कानून के तहत देश में वैवाहिक बलात्कार को अपराध नहीं माना जाता है। रेप से संबंधित कानूनों में इसके लिए अपवाद जोड़े गए हैं।
भारतीय न्याय संहिता (BNS) की धारा 63 (बलात्कार) के अपवाद 2 के मुताबिक मैरिटल रेप को अपराध नहीं माना गया है। मैरिटल रेप को लेकर नए कानून बनाने की माँग काफी समय से हो रही थी। भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 375 के अपवाद 2 और धारा 376B तथा सीआरपीसी की धारा 198B में इसके लिए पर्याप्त उपाय हैं। वहीं, भारत सरकार इसे रेप मानने से इनकार करती रही है।