Friday, November 15, 2024
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गौतम गंभीर ने सही कहा है, बातों से नहीं होता न्याय, पर उस सिस्टम का क्या करें जिसमें एसिड अटैक के ‘दोषी’ ही नहीं मिलते

देश में महिलाओं पर एसिड अटैक के 2018 में 131, 2019 में 150 और 2020 में 105 मामले दर्ज किए गए थे। लेकिन इसका दूसरा और कड़वा पक्ष यह है कि 2018 में ऐसे मामलों में केवल 28 लोगों को दोषी ठहराया गया। 2019 में यह संख्या 16 और 2020 में 18 रही।

दिल्ली का द्वारका। 17 साल की एक लड़की अपनी बहन के साथ जा रही थी। सुबह का समय था। मुँह बाँधे बाइक पर सवार दो लोग आते हैं और उसके चेहरे पर तेजाब फेंक चले जाते हैं। देश की राजधानी में हुई इस घटना ने एक बार फिर एसिड अटैक (Acid Attack) को चर्चा में ला दिया है।

पूर्वी दिल्ली से बीजेपी के सांसद गौतम गंभीर (Gautam Gambhir) ने हमलावरों को सार्वजनिक तौर पर फाँसी देने की माँग की है। उन्होंने ट्वीट कर कहा है कि केवल बातों से किसी तरह का न्याय संभव नहीं है। इस तरह के हमले करने वाले वह​शी-दरिंदों के भीतर खौफ पैदा करना होगा। इसलिए द्वारका में स्कूली छात्रा पर एसिड अटैक करने वालों को अधिकारियों को सार्वजनिक तौर पर फाँसी देनी चाहिए।

वहीं दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा है, “ये बिल्कुल बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। अपराधियों की इतनी हिम्मत आख़िर हो कैसे गई? अपराधियों को सख्त से सख्त सजा मिलनी चाहिए। दिल्ली में हर बेटी की सुरक्षा हमारे लिए महत्वपूर्ण है।”

एसिड अटैक की यह पहली घटना नहीं है। न ही इसको लेकर ऐसा रोष पहली बार देखने को मिल रहा है। कुछ साल ही हुए हैं जब दीपिका पादुकोण एक एसिड अटैक सर्वाइवर पर ‘छपाक’ नाम से फिल्म लेकर आईं थी। यह फिल्म जिस लक्ष्मी अग्रवाल पर आधारित बताई गई थी, उन पर भी दिल्ली में सरेबाजार एसिड अटैक हुआ था। हमलावर 32 साल का नईम खान था। वह इस बात से खुन्नस खाए बैठा था कि 15 साल की लक्ष्मी ने शादी का उसका प्रस्ताव कैसे ठुकरा दिया। हमले से पहले वह 10 महीने तक लक्ष्मी का पीछा करता रहा। यह लक्ष्मी की जिजीविषा थी कि वह बाद में फैशन का चेहरा बन गईं, उस पर सिनेमा तक बन गया, लेकिन एसिड अटैक बंद नहीं हुए।

जब अप्रैल 2003 की एक रात धनबाद में अपने घर की छत पर सोई सोनाली मुखर्जी पर तेजाब की बारिश की गई थी, तब भी खूब बातें हुईं थी, भले आज की तरह सोशल मीडिया नहीं था। एनसीसी कैडेट और कॉलेज टॉपर रही इस लड़की पर तेजाब उन तीन लोगों ने फेंका था, जिनकी छेड़खानी का उसने विरोध किया था। हमले के बाद सोनाली का चेहरा मांस का ठूंठ भर रह गया। देखने की क्षमता प्रभावित हुई। सदमे से दादा मर गए। माँ अवसाद में चली गई। इलाज कराने में पिता की जमीन बिक गई। भले आज सोनाली के खुशहाल जिंदगी जी रही हो, लेकिन एक वक्त ऐसा भी आया था जब उसने इच्छामृत्यु की इजाजत तक माँगी थी।

सोनाली हो या लक्ष्मी या फिर द्वारका की 17 साल की छात्रा… हकीकत यह है कि हर दूसरे या तीसरे दिन देश के किसी न किसी हिस्से में कोई महिला एसिड अटैक की शिकार बन रही है। इसी साल अगस्त में लोकसभा में एक सवाल के जवाब में एनसीआरबी के आँकड़ों के हवाले से बताया गया है कि देश में महिलाओं पर एसिड अटैक के 2018 में 131, 2019 में 150 और 2020 में 105 मामले दर्ज किए गए थे। लेकिन इसका दूसरा और कड़वा पक्ष यह है कि 2018 में ऐसे मामलों में केवल 28 लोगों को दोषी ठहराया गया। 2019 में यह संख्या 16 और 2020 में 18 रही। यानी 2018 से 2020 के भीतर एसिड हमलों के 386 मामले दर्ज किए गए थे, जबकि दोष सिद्धि केवल 62 मामलों में ही हुई।

ऐसे में गौतम गंभीर का यह कहना बिल्कुल सही है कि शब्दों से किसी तरह का न्याय संभव नहीं है। लेकिन वे जिस सिस्टम से ऐसे दरिंदों को सार्वजनिक तौर पर फाँसी दिए जाने की अपेक्षा कर रहे हैं, उसी सिस्टम में एसिड अटैक के मामलों में दोषसिद्धि की दर एक चौथाई से भी काफी कम है। यदि हम चाहते हैं कि कल को फिर किसी सोनाली को इच्छामृत्यु की इजाजत नहीं माँगनी पड़े, कोई नईम खान कल फिर किसी लक्ष्मी पर एसिड न फेंके तो जरूरी है कि पहले इस सिस्टम को दुरुस्त करें। बिना इसे दुरुस्त किए दरिंदों के भीतर खौफ पैदा करना भी बस गलथोथी ही है।

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अजीत झा
अजीत झा
देसिल बयना सब जन मिट्ठा

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