Sunday, November 17, 2024
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तीस्ता सीतलवाड़, प्रतीक सिन्हा का बाप, राना अय्यूब… दंगों के बाद ‘धंधा’ कर लाशों पर बनाया करियर: गोधरा में ज़िंदा जलाए गए थे 59 रामभक्त

राना अय्यूब का यह लेख इतना खराब था कि 'तहलका' पत्रिका में उनके अपने संपादकों ने भी उनके काम को घटिया करार दिया। वास्तव में यह पत्रकारिता की नैतिकता की अवहेलना करने वाले निम्न स्तर के स्टिंग ऑपरेशन के अलावा कुछ भी नहीं था।

साल 2002 में गुजरात के गोधरा में दंगाई इस्लामवादियों की भीड़ ने साबरमती एक्सप्रेस में आग लगा दी थी। इससे अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि से लौट रहे 59 कारसेवक जिंदा जल गए थे। इस घटना के बाद पूरे गुजरात में दंगे भड़क उठे थे। कारसेवकों को जिंदा जलाए जाने के बाद भी हिंदुओं को देश की अदालत पर यह विश्वास था कि एक न एक दिन रामलला के पक्ष में फैसला जरूर आएगा।

बहरहाल, 27 फरवरी, 2002 की सुबह करीब 8 बजे मुस्लिमों ने पूरी प्लानिंग के तहत साबरमती एक्सप्रेस में आग लगाई थी। इसके कुछ घण्टों बाद जले हुए डिब्बों को अलग कर दिया गया था और ट्रेन एक बार फिर आगे की ओर बढ़ चुकी थी। हालाँकि, इसके बाद दंगाई मुस्लिमों की एक और भीड़ ट्रेन में आग लगाने आई थी। लेकिन वह इस योजना में सफल नहीं हो सके। इसके कुछ घण्टों बाद जैसे ही कारसेवकों के साथ हुए इस हादसे की खबर फैली राज्य में दंगा भड़क उठे।

गोधरा कांड के बाद हुए दंगों में सैकड़ों लोग मारे गए। हालात में काबू पाने के लिए सेना तक को बुलाना पड़ा था। ‘अहिंसा परमो धर्म:’ वाले राष्ट्र में हिंसा का कोई स्थान नहीं है। लोगों को कानून में विश्वास होना चाहिए था। इस्लामवादियों द्वारा हिंदुओं को जिंदा जलाने के बाद भड़के दंगे निश्चित रूप से दुर्भाग्यपूर्ण थे। इस दंगे में मारे गए लोग भारतीय थे। वे हिंदू और मुस्लिम दोनों थे।

हालाँकि, यह देश का दुर्भाग्य ही है कि सैकड़ों भारतीयों की मौत को लेकर आज तक न बाहरी बल्कि देश की रोटी खाने पर तथाकथित कार्यकर्ताओं ने इन मौतों को अपना ‘धंधा’ बना लिया। लोगों के लिए भारतीयों की लाशें और पीड़ितों के आँसू पैसा और प्रसिद्धि कमाने तथा सत्ता परिवर्तन करने के उपक्रम बन गए।

वैज्ञानिक से वकील और तथाकथित कार्यकर्ता से राजनेता बने मुकुल सिन्हा और उनकी पत्नी ने अपना पूरा राजनीतिक करियर गुजरात दंगों में मारे गए लोगों की लाशों पर बनाया है। वह मुकुल सिन्हा ही थे जिन्होंने ट्रेन में अचानक आग लगने की बात को पुरजोर समर्थन देते हुए इसी सिद्धान्त पर जाँच आगे बढ़ाने की वकालत की थी। यही नहीं, सिन्हा और उनके लोगों ने मुस्लिमों को बचाने के लिए भी कई प्रयास किए थे। हालाँकि, जाँच समिति ने ऐसी तमाम साजिशों को नकार दिया था।

मुकुल सिन्हा का बेटा प्रतीक सिन्हा अब मोहम्मद जुबैर के साथ इस्लामिक प्रचार वेबसाइट ‘ऑल्ट न्यूज’ चलाता है। इस वेबसाइट ने हाल ही में भाजपा नेता नूपुर शर्मा के खिलाफ ईशनिंदा का आरोप लगाते हुए मामला उछाला था। ‘ऑल्ट न्यूज’ की करतूत के बाद ही इस्लामिक कट्टरपंथी नूपुर शर्मा के खून के प्यासे की तरह दिखाई दे रहे हैं। यह कहना गलत नहीं होगा कि पिता मुकुल सिन्हा ने जो आग लगाई थी उसे बेटा प्रतीक सेना आगे बढ़ाने का काम कर रहा है।

लाशों पर महल बनाने वालों में तीस्ता सीतलवाड़ भी पीछे नहीं रहीं। सीतलवाड़ ने भी अपना पूरा करियर गुजरात दंगों पर बनाया है। दरअसल, तीस्ता सीतलवाड़ पर दंगा पीड़ितों के नाम पर इकट्ठा किए गए चंदे को गबन करने का आरोप लगा है। यही नहीं, उन पर मोदी सरकार को फँसाने के लिए लोगों को बरगलाने का भी आरोप है।

दरअसल, तीस्ता सीतलवाड़ ने 2002 के दंगा पीड़ितों के लिए कथित तौर पर धन एकत्र किया था। लेकिन ऐसा आरोप है कि उन्होंने इस धन का उपयोग ‘ऐश उड़ाने’ में किया। यही नहीं, उन पर गुजरात दंगों को लेकर फर्जी गवाहों का उपयोग कर तथा चश्मदीदों को बरगलाकर निर्दोषों को फँसाने का भी आरोप है।

इसको लेकर सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा था कि गुप्त षड्यंत्रों तथा अपने बदले के लिए तीस्ता सीतलवाड़ जाकिया अहसान जाफरी की भावनाओं का दुरुपयोग कर रहीं थीं। यही नहीं, सीतलवाड़ ने फर्जी गवाहों और झूठे दस्तावेजों का उपयोग कर इस पूरे मामले में जाँच एजेंसियों को गुमराह करने की कोशिश की।

गुजरात दंगों के मामले में तीस्ता ने संयुक्त राष्ट्र में मानवाधिकार उच्चायुक्त (OHCR) को भी दो पत्र लिखे थे। अदालत ने उनकी इस हरकत को ‘दुस्साहस’ करार दिया। साथ ही ऐसा दोबारा न करने की हिदायत देते हुए हलफनामा दाखिल करने के लिए कहा था। अदालत ने माना था कि तीस्ता की इस हरकत ने न केवल एसआईटी जाँच पर सवालिया निशान की तरह थे। बल्कि देश की अदालतों की विश्वसनीयता पर भी सवाल खड़े करने के लिए काफी था।

इसी तरह, हर्ष मंदर जैसे लोगों ने भी गुजरात दंगों में अपना करियर बनाया। हर्ष ने अपनी सिविल सेवा की नौकरी छोड़ दी थी। इसके बाद वह दंगा पीड़ितों के शिविरों में जा-जाकर ‘कार्यकर्ता’ बन गए। गुजरात दंगों को अपना करियर बनाने का मौका देखने वाला हर ‘कार्यकर्ता’ यह जानता था कि मोदी विरोध उसे आगे बढ़ने में मददगार साबित हो सकता है। हर्ष मंदर इनमें से एक है। वह लगातार एक्टिव रहे और साल 2020 में हुए दिल्ली दंगों में भी सक्रियता दिखाते हुए भीड़ को उकसाते हुए पाए गए। हर्ष मंदर के कुख्यात वामपंथी और भारत विरोधी अमेरिकी अरबपति जॉर्ज सोरोस से करीबी संबंध रहे हैं।

दिल्ली में आयोजित हुई एक सभा में बोलते हुए, हर्ष मंदर को विदेशी फंडिंग के बल पर जुटाई गई भीड़ को उकसाते हुए देखा गया था। उन्होंने लोगों से शक्ति प्रदर्शन करने के लिए सड़कों पर उतरने का आह्वान किया था। मंदर ने दावा किया था कि अब समय आ गया है कि लोग सड़कों पर उतरें क्योंकि सुप्रीम कोर्ट और संसद दोनों ने ही उन्हें असफल कर दिया है। यह कहना गलत नहीं है कि साल 2020 के दंगों की जड़ें 2002 के दंगों में भी थीं। साथ ही, इन दोनों दंगों की जड़ें साल 1992 में हुए बाबरी विध्वंस से जुड़ी हुईं थीं।

वाशिंगटन पोस्ट की कॉलमिस्ट राना अय्यूब ने पर मनी लॉन्ड्रिंग का आरोप है। ईडी उनकी 1.7 करोड़ रुपए की संपत्ति जब्त कर चुकी है। अय्यूब ने ऐसे लोगों के तथाकथित स्टिंग ऑपरेशनों पर आधारित एक पूरी ‘किताब’ लिखी, जिन्होंने यह दावा किया था कि दंगों के दौरान उन्हें कानून-व्यवस्था की पूरी जानकारी थी। अंतरराष्ट्रीय स्तर और भारतीय ‘वामपंथी’ लॉबी ने उनकी इस ‘किताब’ को ‘खोजी पत्रकारिता’ बताते हुए जमकर तारीफ की है। हालाँकि, देश की सबसे बड़ी अदालत ने इसे पूरी तरह से खारिज कर दिया क्योंकि न तो इसमें कुछ सच्चाई थी और न ही दावों में किसी प्रकार का दम।

राना अय्यूब का यह लेख इतना खराब था कि ‘तहलका’ पत्रिका में उनके अपने संपादकों ने भी उनके काम को घटिया करार दिया। वास्तव में यह पत्रकारिता की नैतिकता की अवहेलना करने वाले निम्न स्तर के स्टिंग ऑपरेशन के अलावा कुछ भी नहीं था। हालाँकि, अय्यूब ने यहाँ भी खुद को पीड़ित बताते हुए दावा किया कि मोदी इसे पब्लिश नहीं होना देना चाहते। जबकि सच्चाई यह है कि उस समय केंद्र में यूपीए की सरकार थी। राना अय्यूब के स्टिंग ऑपरेशन के समय ‘तहलका’ की प्रधान संपादक रहीं शोमा चौधरी ने कहा था कि राना को उनके ‘खुलासे’ में खामियों के बारे में पता चला। उन्होंने जोर देकर कहा था कि ऐसा नहीं था कि किसी राजनीतिक दबाव के कारण उनके लेख प्रकाशित नहीं किए गए क्योंकि उसके बाद भी उन्होंने मोदी विरोधी लेख प्रकाशित किए थे।

गुजरात दंगों पर अपना करियर आगे बढ़ाने वाली राना अय्यूब आज भी लोगों को दंगों के लिए डराती रहतीं हैं। मुकुल सिन्हा, तीस्ता सीतलवाड़, हर्ष मंदर, राणा अय्यूब समेत ऐसे और भी बहुत से कार्यकर्ता, ‘पत्रकार’ और यहाँ तक कि मीडिया घराने भी हैं जो 2002 के दंगों को लेकर मोदी से नफरत फैलाने पर ही फलते-फूलते हैं।

हाल ही में, 2002 के दंगों पर आधारित बीबीसी के प्रोपेगैंडा डॉक्यूमेंट्री के मुद्दे को उछालकर कॉन्ग्रेस ने अपनी सुसुप्तावस्था में पड़ी राजनीति को जगाने की कोशिश की। हालाँकि जब उन्हें इस बात का एहसास हुआ कि इससे काम चलने वाला नहीं है तो उन्होंने अडानी और ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’ के नाम पर हो-हल्ला करना शुरू कर दिया।

हालाँकि इतना सब करने के बाद भी जब इन विदूषकों ने देखा कि मोदी में विरोध उन्हें वह सफलता नहीं मिल पा रही है जिसका उन्होंने प्रयास किया था तो फंडिंग देने वाले जॉर्ज सोरोस ने खुद ही मामले को अपने हाथ में लेने का फैसला किया। सोरोस के बयानों पर कॉन्ग्रेस ने एक बार फिर तालियाँ पीटीं। ऐसा लगता है जैसे कि इन लोगों के लिए राष्ट्रहित सर्वोपरि नहीं बल्कि मोदी विरोध ही सर्वोपरि है। मोदी विरोध में ये लोग देश की अस्मिता से खिलवाड़ करने में भी बाज नहीं आ रहे हैं। इन लोगों ने भारतीयों के शवों पर अपना साम्राज्य खड़ा कर लिया है। दुःखद यह है कि इतना सब होने के बाद भी उन्हें कोई पछतावा नहीं है।

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Nirwa Mehta
Nirwa Mehtahttps://medium.com/@nirwamehta
Politically incorrect. Author, Flawed But Fabulous.

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