जब कोई युवक आईआईटी से पढ़ कर निकलता है तो उससे उम्मीद की जाती है कि वो एक अच्छा नागरिक बन कर परिवार और देश का भला करेगा। इसके बाद जो सरकारी सेवाओं में जाते हैं, उनका सपना होता है कि वो अपने देश के लिए कुछ कर के घर-परिवार और क्षेत्र का नाम और रौशन करें। ऐसी ही एक प्रतिभा थी सत्येंद्र दुबे, भारतीय इंजीनियरिंग सेवा के अधिकारी। लेकिन, अफ़सोस ये कि उस दौरान बिहार में जंगलराज का साम्राज्य था। इंजीनियर सत्येंद्र दुबे की हत्या हो गई।
तब बिहार में अधिकारी वही करते थे, जो गुंडे-बदमाश कहते थे। नेताओं और अपराधियों का फर्क मिट गया था और लालू-राबड़ी को केवल अपने वोट बैंक बचाने से मतलब था। इसके लिए वो और उनकी पार्टी कुछ भी करने को तैयार रहती थी। इंजीनियर हों या ठेकेदार, अस्पताल हो या स्कूल, एनजीओ हो या कोई प्राइवेट कम्पनी – जो भी सत्ता द्वारा संरक्षित अपराधियों के विरुद्ध जाता था या उनकी बात नहीं मानता था, उन्हें ‘सबक’ सिखाया जाता था।
कौन थे इंजीनियर सत्येंद्र दुबे?
सत्येंद्र दुबे की क्या गलती थी? वो प्रधानमंत्री की राजमार्ग योजना पर ईमानदारी से अपना काम कर रहे थे। उन्होंने तो बस अपने विभाग में हर स्तर पर हो रहे भ्रष्टाचार और ठेकेदारी में हो रही गड़बड़ियों को लेकर शिकायत भर की थी। अफ़सोस ये कि नवम्बर 30, 2003 को इस घटना का ‘इंडियन एक्सप्रेस’ ने खुलासा किया, लेकिन इसके बाद भी सरकार ने कोई कार्रवाई करने की जहमत नहीं उठाई।
उस समय प्रधानमंत्री कार्यालय के OSD खुद आईआईटी से पढ़े हुए थे लेकिन इस मामले में कोई कुछ नहीं कर पाया। इस घटना के बाद इंजीनियरों के मन में ऐसा डर बैठा कि वो भ्रष्टाचार देख कर भी चुप रहना पसंद करते थे, शिकायत कर के अपनी जान दाँव पर भला कोई क्यों लगाए? सत्येंद्र दुबे ने इन्हीं चीजों को लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय को शिकायती पत्र भेजा था। कुछ ही दिनों बाद अपराधियों ने गया में उनकी हत्या कर दी।
सत्येंद्र दुबे ‘सेन्ट्रल नेशनल हाइवे अथॉरिटी ऑफ इंडिया’ में डिप्टी जनरल मैनेजर के पद पर कार्यरत थे। उन्होंने 1994 में आईआईटी कानपुर से सिविल इंजीनियरिंग में स्नातक उत्तीर्ण किया था। वो स्वर्णिम चतुर्भुज योजना के औरंगाबाद-बाराचट्टी हाइवे पर काम कर रहे थे, जो 60 किलोमीटर लम्बा था। कोडरमा (झारखण्ड) में इसका मुख्यालय था, जहाँ से सारे कार्य संचालित किए जा रहे थे। नवंबर 11, 2003 को PMO को भेजे पत्र में उन्होंने इसे देश के लिए अनंत महत्व वाली परियोजना करार दिया था।
इसी पत्र में उन्होंने बताया था कि कैसे जनता के रुपयों की लूट मची हुई है और योजनाओं को जमीन पर सही तरीके से लागू करने में क्या परेशानियाँ आ रही हैं। इंजीनियर सत्येंद्र दुबे से एक गलती ये हो गई थी कि उन्होंने इस पत्र में अपना नाम जाहिर कर दिया था, लेकिन, साथ ही इसे गोपनीय रखने की अपील भी की थी। उन्होंने पत्र के साथ अपने सारे डिटेल्स अटैच कर दिए थे और इसे गोपनीय रखने को कहा था।
क्या था इंजीनियर सत्येंद्र दुबे की हत्या का कारण?
असल में उन्हें डर था कि उनके पत्र को किसी आम आदमी का पत्र समझ कर गंभीरता से नहीं लिया जाएगा, इसीलिए उन्होंने स्पष्ट कर दिया था कि उनकी बातें महत्वपूर्ण हैं और वो एक ऐसे व्यक्ति हैं, जो इस परियोजना से एकदम करीब से जुड़े हुए हैं। यहाँ PMO से भी गलती हुई और उसने बिना उनकी पहचान गोपनीय रखे इस पत्र को राजमार्ग मंत्रालय को भेज दिया। लगभग 8 अधिकारियों के टेबल से ये पत्र गुजरा।
अब आप समझ सकते हैं कि बाबूगिरी की इस प्रक्रिया में किसी की गोपनीयता कहाँ तक बनी रहने की सम्भावना है? इस पत्र को भेजे जाने के 16 दिनों बाद नवम्बर 27, 2002 को इंजीनियर सत्येंद्र दुबे की हत्या कर दी गई। राज्य सरकार से इस मामले में न्याय की कोई उम्मीद तो नहीं ही थी, लेकिन केंद्र की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने भी इस मामले में एकदम लापरवाही भरा रवैया दिखाया। आइए जानते हैं कि सत्येंद्र दुबे की क्या शिकायतें थीं:
- डिजाइन कंसल्टेंट्स ने जो डिटेल्ड प्रोजेक्ट रिपोर्ट्स तैयार की हैं, वो इतनी ख़राब हैं कि उनके आधार पर काम ही नहीं किया जा सकता है। इसी के आधार पर सारे टेंडर्स अलॉट किए जाते हैं लेकिन ये एक कूड़े की तरह है।
- काम के लिए सामान वगैरह खरीदने के कार्यों को बड़े ठेकेदारों ने पूरी तरह से हाईजैक कर के रखा हुआ है। साथ ही ये ठेकेदार अपनी तकनीकी और वित्तीय क्षमताओं के फर्जी डिटेल्स देते हैं और उनके दस्तावेज भी गड़बड़ होते हैं।
- चेयरमैन के अप्रूवल वाली नोटशीट भी सार्वजनिक हो जाती है और इन बड़े ठेकेदारों को NHAI के बड़े अधिकारियों द्वारा भी फेवर किया जाता है।
- कॉन्ट्रैक्ट का ‘मोबिलाइजेशन एडवांस’ के रूप में प्रोजेक्ट का 10% भाग, अर्थात 40 करोड़ रुपए ठेकदारों को दिए जा चुके हैं और कहा गया है कि ये उनके ‘कुछ सप्ताह के कार्यों का अवॉर्ड’ है।
- इस प्रोजेक्ट पर काम के लिए NHAI अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बिडिंग करवा रहा है लेकिन जब बात सच्चाई की आती है तो सारे प्रोजेक्ट्स छोटे ठेकेदारों को दिए जा रहे हैं, जो असल में इस काम को करने में सक्षम ही नहीं हैं और न ही वो गुणवत्ता से इसे कर सकते हैं।
केंद्र से लेकर राज्य तक, हर स्तर पर लापरवाही ही लापरवाही
अब बात करते हैं ‘संडे एक्सप्रेस’ को दिए गए उस समय के नेताओं-अधिकारियों के बयानों की। इंजीनियर सत्येंद्र दुबे की हत्या को लेकर खुलासा होने के बाद बिहार के तत्कालीन डीजीपी डीपी ओझा ने स्वीकार किया था कि ठेकों का अपराधीकरण होना दुर्भाग्यपूर्ण है लेकिन ये सच्चाई है। उन्होंने कबूला था कि अधिकतर ठेके माफियाओं को जाते हैं। उन्होंने आश्वासन दिया था कि ‘एक ईमानदार व्यक्ति की मौत’ के मामले में न्याय के लिए वो व्यक्तिगत रूप से काम करेंगे।
तब राजमार्ग विभाग में भारत के केंद्रीय मंत्री रहे बीसी खंडूरी ने कहा था कि उन्हें ऐसे किसी पत्र की जानकारी ही नहीं है। उन्हें कुछ याद ही नहीं है, जो है वो NHAI के अध्यक्ष को पता है। उन्होंने कहा था कि इस पर टिप्पणी करना न तो उनके लिए उचित है और न ही संभव है। उन्होंने इंजीनियर सत्येंद्र दुबे की हत्या की खबर सामने आने के बाद बिहार की मुख्यमंत्री राबड़ी देवी और मृतक के भाई से बात कर के इतिश्री कर ली।
प्रधानमंत्री कार्यालय के प्रवक्ता ने कहा था कि रोज अनगिनत पत्र आते हैं और उन सभी को ट्रेस करना खासा मुश्किल है। उन्होंने कहा था कि उन्हें पत्र की कॉपी भेजी जाए, तभी वो कुछ बता पाएँगे। आईआईटी एलुमनाई एसोसिएशन के तत्कालीन अध्यक्ष शैलेश गाँधी ने प्रधानमंत्री कार्यालय को पत्र लिख कर रोष जताया था। उन्होंने कहा था कि इसका सीधा अर्थ है कि भारत में ईमानदारी का एक ही मतलब है और वो ये कि आप विफल होंगे।
सबसे जानने लायक बात तो ये है कि इस घटना का आरोपित उदय मल्लाह को सीबीआई ने गिरफ्तार किया लेकिन वो 2010 में फरार भी हो गया। इसके बाद नवम्बर 2017 में उसे फिर से गिरफ्तार किया गया। वो 7 वर्षों से सीबीआई अदालत से फरार चल रहा था। नालंदा पुलिस ने एसटीएफ के साथ मिल कर उसे पकड़ा था। गया रेलवे स्टेशन के पास हुए इस हत्याकांड को सीबीआई तक ने लूट का मामला बता दिया था।
इंजीनियर सत्येंद्र दुबे की हत्या: असली अपराधी अब भी बाहर?
उदय मल्लाह और उसके 4 सहयोगियों को डकेती के आरोप में गिरफ्तार किया गया। भीषण डकैती की साजिश की सूचना मिलने के बाद ये लोग धरे गए थे। इन सभी का नक्सली कनेक्शन भी सामने आया था। हालाँकि, मार्च 2010 में ही मंटू कुमार, उदय मल्लाह और पिंटू रविदास को इस मामले में दोषी पाया गया था। ये सभी गया के कटारी गाँव के रहने वाले थे। हालाँकि, सत्येंद्र दुबे के भाई का इस मामले में कुछ और ही कहना था।
उनका कहना था कि वो इस मामले की सुनवाई से काफी निराश हैं क्योंकि ये तीनों ही आरोपित पूरी तरह निर्दोष हैं और सीबीआई ने इस मामले को कवर-अप किया। उन्होंने सीबीआई के बयान को झूठा बताते हुए कहा था कि जो असली अपराधी हैं, वो अभी भी बाहर हैं। सीबीआई का कहना था कि इंजीनियर सत्येंद्र दुबे की गया सर्किट हाउस के सामने तब हत्या की गई थी, जब वो वाराणसी से लौटे थे।
सीबीआई के अनुसार, वापस आकर उन्होंने देखा कि उन्हें लेने के लिए कोई गाड़ी नहीं आई है तो उन्होंने ऑटो रिक्शा कर लिया। उस समय तड़के सुबह के 3 बज रहे थे। इधर उनका ड्राइवर गाड़ी लेकर पहुँचा और उसने दुबे को वहाँ नहीं पाया। इसके बाद उसने उनकी लाश सड़क पर पड़ी हुई देखी। सीबीआई ने इसे डकैती का मामला बता कर केस दर्ज किया। अंत में तीन आरोपितों को पकड़ के इतिश्री कर ली।
आईआईटी कानपुर की वेबसाइट पर दुबे की प्रोफ़ाइल के अनुसार, वो एक सामान्य परिवार से आते थे और उनका जन्म 1973 में बिहार के शाहपुर में हुआ था। उन्होंने दसवीं और बारहवीं की परीक्षाओं में भी टॉप किया था। उनकी मृत्यु के बाद भ्रष्टाचार पर उनके खुलासे को लेकर उन्हें कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय अवॉर्ड्स मिले। हालाँकि, उनके लिए न्याय की माँग कहीं दब कर रह गई, राजनेताओं और ब्यूरोक्रेसी की निष्क्रियता और माफियाओं की धमक के बीच।