Friday, October 4, 2024
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सत्ता की वासना में जब नौकरशाही की निष्ठा शीघ्रपतित होती है तो लोग शाह फ़ैसल बन जाते हैं

ऐसे बौद्धिक मतिछिन्न का इतनी प्रतिष्ठित सेवा में चयन होना देश के लिए किसी दुर्दैव सपने से कम नहीं है। जो अपनी सेवा की तुलना जेल में बिताए गए दिनों से करता हो, उसने इन नौ सालों में एक रत्ती भी उत्पादनकारी कार्य न किया होगा, इसकी गारंटी है।

वर्ष 2009 में अचानक से कश्मीर का एक नौजवान देश की मेनस्ट्रीम मीडिया की सुर्खियाँ बन गया था। कश्मीर के बारे में प्रचलित नैरेटिव से अलहदा एक नौजवान सामने आया था। अखण्ड भारत के दूसरे हिस्से के लोगों को ये लगने लगा था कि कुछ भटके हुए कश्मीरियों की बुद्धि में जो भारत के प्रति मानसिकता का कुहासा है, वो शायद अब छँट गया है।

ये नौजवान शाह फ़ैसल था और इसने वर्ष 2009 की परीक्षा में यूपीएससी टॉप किया था और प्रतिष्ठित सेवा आईएएस के लिए चयनित हुआ था। उस समय आईएएस शाह फ़ैसल अपने तमाम साक्षात्कारों में ये बात कहते थे कि कश्मीर का युवा देश के विकास में भागीदारी चाहता है, उसे अपने देश के प्रति सम्पूर्ण निष्ठा है। शाह व्यक्तिगत तौर पर भी आतंक पीड़ित थे, उनके पिता की आतंकियों ने हत्या कर दी थी। इसलिए वो खुलकर आतंकियों की मुख़ालफ़त करते थे और तमाम सेमिनारों में कश्मीर के चहुमुखी विकास का खाका भी देते थे।

हम लोग भी यही समझते थे कि शाह फ़ैसल जैसा युवा ही कश्मीरी स्पिरिट का प्रतिबिंब है। इसके बाद इसी लीक पर अतहर आमिर का भी यूपीएससी 2015 में द्वितीय स्थान के लिए चयन हुआ। उधर परवेज़ रसूल का चयन भारतीय क्रिकेट टीम में हो गया। ये लोग आम कश्मीरियों के लिए रोल मॉडल सरीखे थे।

अचानक से इन्हीं रोल मॉडल की जमात के बीजपुरुष शाह फ़ैसल का उस सरकारी मशीनरी से मोहभंग हो जाता है, जिसकी निष्ठा के लिए उन्होंने नौ बरस पहले शपथ ली थी। वो कहते हैं कि उन्हें दुःख है कि कश्मीरियों की हत्या हो रही है और केंद्र सरकार कुछ नहीं कर रही है। देश के विरुद्ध खुली यलगार करने वाले पत्थरबाजों से उन्हें सहानुभूति हो जाती है। अलगाववादी नेताओं में उन्हें लीजेंड नज़र आने लगता है।

अखण्ड भारत के कश्मीर से इतर हिस्से को वो मेनलैंड कहने लगते हैं। गोया कश्मीर उस मेनलैंड से अलग एक टेरीटरी भर है। जिस लोकतांत्रिक ढांचे के बूते वो एमबीबीएस सहित यूपीएससी की सेवा में आते हैं, उसे वो कश्मीरियों के संग सौतेला व्यवहार करने वाला बताने लगते हैं।

हाल ही में तो उन्होंने गलीचपन की सारी सीमाएँ लाँघ लीं। उन्होंने कहा कि मैंने अपने सेवा के दौरान के नौ वर्ष ऐसे बिताए हैं मानो मैं किसी कैद में हूँ। उनके लिए भारतीय प्रशासनिक सेवा में नौकरी करना जेल में रहने जैसा है। सत्ता लोलुपता में लोगों को नीचे गिरते हुए देखा है। मग़र ऐसे नीच उदाहरण विरले ही देखने को मिलते हैं।

ऐसे बौद्धिक मतिछिन्न का इतनी प्रतिष्ठित सेवा के लिए चयन होना देश के लिए किसी दुर्दैव सपने से कम नहीं है। जो अपनी सेवा की तुलना जेल में बिताए गए दिनों से करता हो, उसने इन नौ सालों में एक रत्ती भी उत्पादनकारी कार्य न किया होगा, इसकी गारंटी है। जिसके दिलोदिमाग़ में शासन-प्रशासन को लेकर इस हद तक मार्बिडिज्म (घृणा) हो, वो भला कैसे निष्ठावान होकर देश के लिए योगदान कर सकता है।

शाह फ़ैसल जैसे युवा का चयन-इस्तीफ़ा घटनाक्रम उन नवयुवाओं में निराशा का संचार करता है जो इस प्रतिष्ठित सेवा की तैयारी में अपना दिन-रात होम कर देते हैं। जिस प्रकार भारतीय क्रिकेट टीम में चयन के लिए यो-यो टेस्ट की अनिवार्यता होती है, उसी प्रकार कार्मिक एवं प्रशासन मंत्रालय को लोक सेवकों की एचआर एजेंसी यूपीएससी को ये निर्देश जारी कर देना चाहिए कि वो लोकसेवकों की बराबर जाँच करते रहें ताकि शाह फ़ैसल जैसे मतिछिन्न युवा को सेवा से बाहर का रास्ता दिखाया जा सके।

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