पुलवामा हमले में बलिदान हुए जवानों पर पूरा देश शोक मना रहा है। देश की रक्षा करते हुए 40 जवान आज अपने पीछे अपने परिवार छोड़ गए हैं। परिवार में किसी के बूढ़े माँ-बाप हैं तो किसी के छोटे बच्चे हैं। घर के इन चिरागों के चले जाने से न केवल इनके परिवार में अंधेरा हुआ है बल्कि उनकी आर्थिक स्थिति भी डगमगा गई है।
ऐसी स्थिति में हमारे देश में एक तरफ कुछ ऐसे बुद्धिजीवी हैं जो इन परिवारों की मजबूरी पर अपनी विचारधारा की ज़मीन मजबूत करने में जुटे हुए हैं तो वहीं कुछ उदाहरण ऐसे हैं जो अपने जीवन की जमा-पूँजी से इन परिवारों की मदद करने में संकोच नहीं कर रहे हैं।
आश्चर्य होता है कि एक ही देश में रहकर दो वर्गों के लोगों के विचारों में इतना अंतर कैसे हो सकता है। कल एक तरफ जहाँ ‘द कारवां’ के एजाज़ अशरफ ने पुलवामा जैसे संवेदनशील मामले में जाति और मज़हब को लाकर पत्रकारिता में निहित विश्वसनीयता और निष्पक्षता जैसे नैतिक मूल्यों को तिलांजलि दे दी है। वहीं दूसरी तरफ ख़बर आई कि भीख माँगकर अपना गुज़र बसर करने वाली एक औरत ने अपनी जमा पूंजी पुलवामा में बलिदान हुए जवानों के लिए दान दे दी है।
कल अशरफ ने अपने आर्टिकल में दावा करते हुए कहा कि पुलवामा हमले पर राष्ट्रवाद को लेकर केवल शहरी मध्यम वर्ग के ही लोग आक्रोषित है, जिसमें अधिकतर केवल उच्च जाति के लोग शामिल हैं। अब उन्हें कैसे बताया जाए कि यह मुद्दा ऐसा नहीं है जिसे जाति अथवा वर्गों में बाँटा जाए। सेना के जवानों की जाति खोज निकालने वाले अशरफ पढ़े-लिखे और समझदार मालूम होते हैं तभी उनकी सोच और भीख माँगकर जीवन जीने वाली बुजुर्ग महिला की सोच में आकाश-पाताल का अंतर है।
अशरफ जहाँ जवानों के परिजनों को फोन करके उनकी जाति का प्रमाण माँगकर एक विशेष विचारधारा का एंगल देने का प्रयास कर रहे थे, वहीं अजमेर में नंदिनी नाम की महिला की सारी संपत्ति उसकी आखिरी इच्छा के अनुसार संरक्षकों द्वारा सीआरपीएफ जवानों के नाम पर दान दे दी गई।
यहाँ बता दें कि पिछले साल आखिरी साँस लेने से पहले नंदिनी ने एक वसीयत छोड़ी थी, जिसमें उन्होंने अपनी अंतिम इच्छा जाहिर की थी कि उनके पैसों को देश और समाज के उपयोग में लगाया जाए। नंदिनी अजमेर के बजरंगगढ़ में स्थित अंबे माता मंदिर के बाहर भीख माँगती थीं और वहीं से उन्होंने ये पैसे इकट्ठा किए। वह अपने पैसे हर दिन बैंक में जमा करती थी और अपनी मौत के बाद इन पैसों का ख्याल रखने के लिए उन्होंने दो लोगों को अपना संरक्षक बना रखा था।
एक भीख मांगने वाली औरत के मन मे समाज और देश के लिए भावनाएँ हो सकती हैं लेकिन अशरफ जैसे बुद्धिजीवियों के मन मे ये भावनाएँ नहीं आ सकती। पुलवामा हमले में हत हुए जवानों के बलिदान को क्षेत्र और वर्ग में सीमित कर देने वाले यह कभी नहीं समझेंगे कि राष्ट्रवाद की परिभाषा वो नहीं है जिसका निर्माण वे कर रहे हैं, बल्कि वो है जो नंदिनी जैसी बुजुर्ग और गरीब महिलाएँ अपनी आखिरी इच्छाओं में प्रकट कर रही हैं।
प्रोपोगेंडा की गाड़ी में पेट्रोल भरने के लिए एयर कंडीशंड कमरों में बैठकर परिजनों से सवाल दागना जितना आसान है उनके मन में भीतर उतर कर उनकी मनःस्थिति समझना उतना ही कठिन है।
पत्रकारिता के दम पर जागरूकता फैलाने का ढोंग करने वाले अशरफ को इतना ही नहीं बरेली के प्राइवेट स्कूल की एक प्रिंसिपल किरण झगवाल तक से शिक्षा लेने की आवश्यकता है। जिन्होंने अपनी चूड़ियाँ बेचकर सीआरपीएफ जवानों के परिवार वालों की मदद करने के लिए 1,38,387 रुपए प्रधानमंत्री राहत कोष में भेजे।
Kiran Jhagwal,a pvt school Principal in Bareilly,sold her bangles&donated Rs 1,38,387 in Prime Minister’s Relief Fund for families of CRPF jawans who lost their lives in #PulwamaAttack. She says, “When I saw their wives crying on TV,I thought what’s the use of my bangles?” (21.2) pic.twitter.com/OYOOjuFASl
— ANI UP (@ANINewsUP) February 21, 2019
इसके अलावा 14 फरवरी से अब तक 80,000 लोगों के सहयोग से करीब 20 करोड़ रुपए भारत के वीरों के नाम जमा किए जा चुके हैं जिसकी जानकारी सरकार ने दी है।
सोचने वाली बात है कि एक तरफ जहाँ पर देश के कोने-कोने से लोगों द्वारा वीरगति प्राप्त जवानों के लिए हर संभव मदद पहुँचाई जा रही हैं वहीं पत्रकारिता के समुदाय विशेष के कुछ लोग इसे अपनी विचारधारा में सराबोर कर रहे हैं। आज यही जवानों की ‘जाति पूछने वाले’ कल को ‘आतंकवाद का कोई मज़हब नहीं होता’ जैसे आर्टिकल लिखते नज़र आएँगे। मानवता के धरातल से उठकर और कुतर्कों की दुनिया में खो चुके इन बुद्धिजीवियों को अपने भीतर नंदिनी और किरण जैसी भावनाएँ जगाने में अरसा लग जाएगा।