Saturday, November 23, 2024
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नेशनल वॉर मेमोरियल पर सिब्बल की घटिया राजनीति: भूल गए देश व कॉन्ग्रेस का इतिहास

क्या कपिल सिब्बल के घर में उनके स्वर्गीय पिता की तस्वीर नहीं है? क्या देश में हर दूसरे-तीसरे चौराहे पर नेहरू, इंदिरा की मूर्तियाँ नहीं हैं? क्या याद किए जाने का सर्टिफिकेट सिर्फ़ नेताओं के पास ही है, बलिदान देने वाले सैनिकों का कोई मोल नहीं?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आज सोमवार (फरवरी 25, 2019) को नेशनल वॉर मेमोरियल का उद्घाटन करेंगे। 40 एकड़ के क्षेत्र में फैले इस वॉर मेमोरियल में हमारे 25,942 बलिदानी जवानों के नाम अंकित होंगे। यह पूरे देश के लिए गर्व का क्षण है क्योंकि देश के लिए वीरगति को प्राप्त होने वाले जवानों को सम्मान मिलने जा रहा है। यह सर्वविदित है कि जो हमे छोड़ कर चले गए, हम उन्हें वापस नहीं ला सकते। लेकिन हाँ, हम उन्हें याद कर और उनका उचित सम्मान कर आने वाली पीढ़ी को प्रेरणा ज़रूर दे सकते हैं। नेशनल वॉर मेमोरियल एक ऐसा ही प्रयास है। चक्रव्यूह की तर्ज पर बने इस मेमोरियल में चार वृत्ताकार परिसर होंगे। इसमें 21 परमवीर चक्र विजेताओं की मूर्तियाँ भी होंगी।

राष्ट्रीय युद्ध स्मारक (NWM)

अब देश की सबसे पुरानी पार्टी ने इस वॉर मेमोरियल को लेकर राजनीति शुरू कर दी है। कपिल सिब्बल ने पूछा है कि क्या वॉर मेमोरियल से सैनिकों की ज़िंदगियाँ बच जाएँगी? साथ ही उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी पर सवाल दागा कि उनकी सरकार ने पिछले 4 वर्षों में जवानों के लिए क्या किया है? कपिल सिब्बल शायद अपनी ही पार्टी का इतिहास भूल गए हैं क्योंकि वॉर मेमोरियल बनाने की माँग आज से नहीं बल्कि 60 वर्षों से चली आ रही है। उनकी सरकार ने इसे तभी से ठंडे बस्ते में डाल रखा था। कपिल सिब्बल के बेतुकी बातों का जवाब देने से पहले ज़रूरी है कि हम पहले वॉर मेमोरियल के इतिहास को देखें ताकि कॉन्ग्रेसीयों के दोहरे रवैये पर से पर्दा उठ सके।

नेशनल वॉर मेमोरियल और कॉन्ग्रेस: जवानों के साथ 6 दशक का अन्याय

सबसे पहले सशस्त्र बलों ने 1960 में नेशनल वॉर मेमोरियल बनाने की माँग की थी, जिसे तत्कालीन नेहरू सरकार ने तवज्जोह नहीं दिया। आख़िर क्या कारण है कि जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व वाली कॉन्ग्रेस सरकार ने वॉर मेमोरियल का निर्माण कराना उचित नहीं समझा? चाहे वह ‘वन रैंक वन पेंशन (OROP)’ हो या ‘नेशनल वॉर मेमोरियल (NWM)’, सशस्त्र बलों के जवानों की माँगों को नज़रअंदाज़ करना कॉन्ग्रेस की फ़ितरत रही है। अब जब 60 वर्षों बाद जवानों की इस माँग पर ध्यान देते हुए मेमोरियल का निर्माण कराया गया है, कॉन्ग्रेस पार्टी को खुजली हो रही है।

2009 में 49 वर्षों बाद कॉन्ग्रेस की तंद्रा टूटी और तत्कालीन यूपीए सरकार ने प्रणब मुखर्जी (उनके राष्ट्रपति बनने से पहले) की अध्यक्षता में एक मंत्रिमंडलीय समीति का गठन किया। इसके बाद इंडिया गेट के पास वॉर मेमोरियल बनाने की बात शुरू हुई और कॉन्ग्रेस सरकार के मंत्रालय आपस में ही लड़ बैठे। शहरी विकास मंत्रालय ने इंडिया गेट के पास वॉर मेमोरियल बनाने का विरोध किया। हेरिटेज कमेटी और केंद्रीय विस्टा कमेटी ने सरकार के इस प्रस्ताव का विरोध करते हुए कहा कि विरासतों के साथ किसी भी प्रकार की छेड़-छाड़ नहीं होनी चाहिए।

यह सब इसीलिए हो रहा था क्योंकि सरकार के पास इच्छाशक्ति का अभाव था। अगर सरकार सच में गंभीर होती तो शायद 2010 तक यह मेमोरियल बन कर तैयार हो गया रहता। लेकिन विडम्बना देखिए कि 2012 राष्ट्र भारत-चीन युद्ध की 50वीं वर्षगाँठ मनाते हुए वीर सैनिकों के बलिदान को याद कर रहा था, तब तक सरकार के पास वॉर मेमोरियल के लिए कोई रूप-रेखा तय नहीं थी। अव्वल तो यह कि 2012 से पहले कभी भी भारत सरकार ने 1962 के बलिदानियों को श्रद्धांजलि अर्पित करने की ज़रूरत तक महसूस नहीं की। 2012 में जब पहली बार ऐसा हुआ, तब तत्कालीन रक्षा मंत्री एके एंटोनी ने इंडिया गेट के पास वॉर मेमोरियल बनाने का ऐलान किया।

आज कपिल सिब्बल जिस वॉर मेमोरियल को कोसने चले हैं, उसके निर्माण का ऐलान उनके ही मंत्रिमंडल साथी ने किया था। क्या कपिल सिब्बल एके एंटोनी से यह पूछने की ताक़त रखते हैं कि उन्होंने अक्टूबर 2012 में नेशनल वॉर मेमोरियल बनाने की बात क्यों कही थी? जिस सिब्बल की सरकार ने सुरक्षाबलों की 50 वर्ष से चली आ रही माँग के सामने अंततः झुकते हुए वॉर मेमोरियल का अनुमोदान किया था, आज वही पार्टी उसे कोस रही है। इसीलिए कपिल सिब्बल से बार-बार कहा जाता है- येक पे रहने का, या तो घोड़ा बोलो या चतुर।

कॉन्ग्रेस पार्टी में कपिल सिब्बल अकेले ऐसे नेता नहीं हैं जिन्होंने वॉर मेमोरियल का विरोध किया हो। जब एके एंटोनी ने नेश्ननल वॉर मेमोरियल का ऐलान किया था, तब दिल्ली की तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने इसका विरोध किया था। तीन केंद्रीय मंत्रियों (कमलनाथ, शिंदे, एंटोनी) को अलग-अलग पत्र लिख कर उन्होंने इंडिया गेट के पास प्रस्तावित इस मेमोरियल का विरोध किया था। उन्होंने कहा था कि शहर के लोगों के लिए इंडिया गेट एकमात्र प्रसिद्ध ‘हैंगआउट प्लेस’ है और मेमोरियल के बनने से लोग यहाँ आना कम कर देंगे।

मोदी ने 2014 लोकसभा चुनाव से पहले ही कर दिया था ऐलान

जनवरी 2014 का समय था। अवसर था कालजयी गीत ‘ऐ मेरे वतन के लोगों’ की स्वर्ण जयंती (50 वर्ष) का। मुंबई के रेसकोर्स में आयोजित इस समारोह में भारत रत्न लता मंगेशकर और तब भाजपा के प्रधानमंत्री उम्मीदवार रहे मोदी के अलावा कई पूर्व सैनिक उपस्थित थे। इससे पहले लता मंगेशकर ने मोदी के प्रधानमंत्री बनने की कामना कर चुकीं थीं, जिसके बाद कुछ कॉन्ग्रेसी नेताओं ने उनका भारत रत्न वापस लेने की बात कह दी थी। लाखों लोगों की उपस्थिति के बीच उसी मंच से बोलते हुए मोदी ने कहा था:

“भारत ही एकमात्र ऐसा देश है, जहाँ अपने ‘जवानों के बलिदान’ के सम्मान में कोई युद्ध स्मारक नहीं बनाया गया। मुझे लगता है कि मेरे करने के लिए कुछ अच्छे काम छोड़ दिए गए हैं। भारत ने कई लड़ाइयाँ लड़ीं। इसमें हमारे हजारों जवान शहीद हुए, लेकिन उनकी शहादत को सम्मान देने के लिए कोई स्मारक नहीं है। क्या हमें युद्ध में शहीद हुए जवानों को याद नहीं करना चाहिए? क्या यहाँ एक युद्ध स्मारक नहीं होना चाहिए?”

इस से यह पता चलता है कि कॉन्ग्रेस भले ही जवानों की इस माँग को पूरा करने में विफल रही हो लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दिमाग में यह चीज तब से थी, जब वो पीएम नहीं बने थे। इस मंच से उन्होंने किया था कि सत्ता में आते ही देश के सैनिकों की याद में युद्ध स्मारक का निर्माण कराया जाएगा। आज वह समय आ गया है जब देश को अपना युद्ध स्मारक मिलने जा रहा है। इसका राजनीतिकरण की कोशिश वही लोग कर रहे हैं, जो न तो इसका क्रेडिट लूटने लायक बचे हैं और न ही खुल कर इसकी आलोचना कर पा रहे हैं।

मोदी के सत्ता सँभालने के कुछ ही महीनों बाद 2015 में एक कैबिनेट बैठक में राष्ट्रीय युद्ध स्मारक के लिए बजट का प्रावधान किया गया। इसके लिए ₹176 करोड़ तत्काल जारी किए गए। अगस्त 2016 में भारत सरकार की वेबसाइट पर इसके निर्माण के लिए एक ‘ग्लोबल डिज़ाइन कम्पटीशन’ आयोजित किया गया। जनवरी 2019 को इसका निर्माण पूरा हुआ और आज प्रधानमंत्री स्वयं इसका उद्घाटन कर रहे हैं। यह सब समय-निष्ठा के साथ संभव हो पाया क्योंकि शासन के पास इच्छाशक्ति थी, जवानों के प्रति श्रद्धा है। कॉन्ग्रेस सरकार के पास शायद यह इच्छाशक्ति नहीं थी जिसके कारण यह प्रस्ताव घोषणाओं और वास्तविकता के बीच फँस कर 60 सालों तक लटका रहा।

युद्ध स्मारक प्राचीन भारत सहित अन्य महाशक्तियों की परम्परा रहे हैं

भारतीय संस्कृति, गर्व और इतिहास की पहचान रहा है युद्ध स्मारक। प्राचीन राजा-महाराजाओं ने जब भी कोई युद्ध जीता या आक्रांताओं पर विजय पाई, उन्होंने उसकी याद में एक युद्ध स्मारक बनवाया। वे युद्ध स्मारक सैनिकों के बलिदान का प्रतीक होने के साथ-साथ उनकी वीरता की गाथा कहते थे। कई चित्रकलाओं से उनकी बहादुरी को दर्शाया जाता था। क्या सिब्बल और कॉन्ग्रेस आज अपने ही इतिहास और संस्कृति को भूल कर राष्ट्रीय युद्ध स्मारक पर सवाल खड़ी कर रही है?

युद्ध स्मारक हमारी परम्परा है, संस्कृति है (विजय स्तम्भ, चित्तौड़)

15वीं शताब्दी के मध्य में जब इस्लामी आक्रांताओं ने भारत पर क़हर बरपाना शुरू किया तब एक ऐसे योद्धा का उदय हुआ, जिसने सिर्फ़ राजस्थान ही नहीं बल्कि समस्त भारतवर्ष को राह दिखाने का कार्य किया। सुल्तान महमूद ख़िलजी के नेतृत्व वाली मालवा और गुजरात में बैठे इस्लामी आक्रांताओं को धूल चटाने और सुल्तान को मांडू की तरफ भागने को मजबूर करने के बाद चित्तौड़ के राजा महाराणा कुम्भा ने विजय स्तम्भ (कीर्ति स्तम्भ) का निर्माण कराया। यह आज भी हमे अपने गौरवपूर्ण इतिहास की याद दिलाता है। मुस्लिम, जैन व हिन्दू प्रतीक चिह्नों से अंकित इस स्तम्भ पर इसे बनाने वाले कारीगरों तक के नाम जुड़े हुए हैं।

कौटिल्य ने कहा था कि राष्ट्र और उसके सैनिकों के बीच एक पवित्र अनुबंध होता है और राष्ट्र अगर सैनिकों के साथ उस अनुबंध का सम्मान करने में विफल होता है तो सरकार के पास ऐसे सैनिक रह जाएँगे जो राष्ट्र का सम्मान नहीं करेंगे। वर्षों से सुरक्षाबलों की माँगें न मान कर कॉन्ग्रेस चाणक्य के इस वचन के विपरीत कार्य कर रही थी जिसके परिणामस्वरूप हमारे जवानों को वो उचित सम्मान नहीं दिया गया, जिसके वो हक़दार हैं।

विश्व के तमाम देशों में युद्ध स्मारक हैं जो बलिदानी सैनिकों की याद में बनाए गए हैं। इज़राइल और ब्रिटेन से लेकर हमारे बहुत बाद आज़ाद हुए बांग्लादेश तक- सभी ने अपने बलिदानी सैनिकों को उचित सम्मान देते हुए उनकी याद में स्मारक बनवाए। लेकिन, भारत में अब तक बलिदानियों को उसी इंडिया गेट पर श्रद्धांजलि दी जाती रही है, जिसे अँग्रेजों द्वारा विश्व युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए भारतीय सैनिकों की याद में बनवाया गया था। अर्थात यह, कि आज़ादी के बाद वीरगति को प्राप्त हुए भारतीय जवानों को श्रद्धांजलि देने के लिए कोई अलग स्थल अब तक नहीं था।

सिब्बल की युद्ध स्मारक पर घटिया राजनीति

कपिल सिब्बल का राष्ट्रीय युद्ध स्मारक को लेकर जो बयान आया है, वह बेतुका है। ऐसा इसीलिए, क्योंकि भारत का इतिहास रहा है कि जिन्होंने भी मातृभूमि के लिए त्याग किया है, उन्हें भुलाया नहीं जाता। क्या कपिल सिब्बल के घर में उनके स्वर्गीय पिता की तस्वीर नहीं है? क्या देश में हर दूसरे-तीसरे चौराहे पर नेहरू, इंदिरा की मूर्तियाँ नहीं हैं? क्या याद किए जाने का सर्टिफिकेट सिर्फ़ नेताओं के पास ही है, बलिदान देने वाले सैनिकों का कोई मोल नहीं? कॉन्ग्रेस को इस मानसिकता से बाहर निकलना पड़ेगा। स्मारक, प्रतिमाएँ और तस्वीरें सिर्फ़ नेताओं की नहीं बल्कि मातृभूमि को प्राण अर्पण करने वाले वीरों की भी बननी चाहिए।

नेशनल वॉर मेमोरियल की शानदार झलकियाँ (साभार: PIB)

कपिल सिब्बल को समझना चाहिए कि अगर कोई अपने किसी मृत रिश्तेदार की तस्वीर लगाता है तो ऐसा नहीं है कि उसके दूसरे रिश्तेदार अमर हो जाएँगे या फिर मृत लोग वापस आ जाएँगे। यह सम्मान का प्रतीक होता है उनका, वो हमारा साथ छोड़ गए। और, ये वीर जवानों ने तो हमारे लिए अपने प्राणों की बलि दी है, देश के लिए दी है। उनकी स्मृति तो सहेज कर रखी ही जानी चाहिए ताकि आने वाली पीढ़ियाँ इनके त्याग का माहात्म्य समझें और इन्हे सम्मान देना सीखें। जिस दिन सिब्बल को इन जवानों के प्रति श्रद्धा हो जाएगी, उस दिन वह भी युद्ध समारक पर राजनीतिक कींचड़ उछालना बंद कर देंगे।

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अनुपम कुमार सिंह
अनुपम कुमार सिंहhttp://anupamkrsin.wordpress.com
भारत की सनातन परंपरा के पुनर्जागरण के अभियान में 'गिलहरी योगदान' दे रहा एक छोटा सा सिपाही, जिसे भारतीय इतिहास, संस्कृति, राजनीति और सिनेमा की समझ है। पढ़ाई कम्प्यूटर साइंस से हुई, लेकिन यात्रा मीडिया की चल रही है। अपने लेखों के जरिए समसामयिक विषयों के विश्लेषण के साथ-साथ वो चीजें आपके समक्ष लाने का प्रयास करता हूँ, जिन पर मुख्यधारा की मीडिया का एक बड़ा वर्ग पर्दा डालने की कोशिश में लगा रहता है।

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