जिन-जिन को लगता है कि सरकार फोन टेप नहीं करवा सकती, वे कानून की जानकारी ले लें। सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए गृह सचिव की अनुमति के साथ ऐसा किया जा सकता है। कई अन्य मामलों में भी, जैसे कि राष्ट्रीय सुरक्षा आदि के लिए ऐसा करने की अनुमति है। हाथरस मामले में लीक हुए ऑडियो और उसके बाद उपजे विवाद के बीच इसके बारे में पूरा विस्तार से पढ़ना हो तो नीचे के ट्वीट को पढ़ लीजिए:
Actually Section 5(2) of The Indian Telegraph Act, 1885 deals with this issue and has listed various reasons for which and competent authorities who can sanction what is known as “wire tapping”. In case of state Govt, the competent authority is the Home Secy of the state. pic.twitter.com/pDS0xoe6IM
— Alok Bhatt (@alok_bhatt) October 3, 2020
अब बात करते हैं कि हाथरस मामले में पत्रकार या पीड़ित परिवार के ‘ऑडियो’ को लीक क्यों किया गया। पहले तो आप यह तय कीजिए कि आपको मतलब किस बात से है? पत्रकार/पीड़ित के फोन रिकॉर्ड होने से, या इस बात से कि वहाँ दंगा न फैले, पीड़ित परिवार को न्याय मिले? इस ऑडियो के लीक होने से कौन सी सामाजिक अशांति फैली या पीड़िता को न्याय मिलने पर आँच आ गई? अपराध ऑडियो लीक होना नहीं है, अपराध किसी भी व्यक्ति को मीडिया द्वारा अपने हिसाब के जवाब देने या वीडियो बनवाने के लिए कोचिंग देना है कि ऐसा करने से न्याय मिल जाएगा तुमको।
भिन्न-भिन्न स्रोतों से आ रही खबरों से हम बखूबी जानते हैं कि सामाजिक शांति भंग करने के उद्देश्य से गिद्धों का एक झुंड उस एक ‘ट्रिगर’ प्वाइंट की प्रतीक्षा में बैठा है, जो लोगों में असंतोष भर दे। पहले ही कई फेक न्यूज चलाए जा चुके हैं कि आरोपित संदीप का पिता योगी का सहयोगी और जानकार है। ऐसे में एक प्रशासनिक असावधानी बहुत बड़ी भूल बन सकती है। हाथरस मामले में लीक हुए ऑडियो में पत्रकार को पीड़ित परिवार से मनपंसद बयान दिलवाने की कोशिश करते हुए सुना जा सकता है।
वो वीडियो न्याय दिलाने के लिए नहीं, टीआरपी के लिए होता है। न्याय वीडियो से कैसे मिलेगा? कोर्ट में इंडिया टुडे के वीडियो दिखाए जाएँगे? फिर तो वीडियो कई घूम रहे हैं, उसके आधार पर न्याय कर दो! पत्रकार का काम रिपोर्ट करना होता है। जो है, वो दिखाओ, जो नहीं है, उसके संभावित कारण तार्किक तरीके से बताओ। जो जटिल बात है उसको सरल बनाकर समझाओ।
पत्रकार का काम है जो वीडियो मिले उसकी विवेचना करना, न कि मनपसंद वीडियो बनवा लेना। फोन कर के आप जानकारी लेते हैं, न कि कस्टम-मेड इन्फ़ॉर्मेशन तैयार करके भेजते हैं ताकि आपके चैनल का फायदा हो। पत्रकार जब ऐसा करते हैं, तो कम से कम उसी ऑडियो में ये तो न क्लेम करें कि ‘मैं तुम्हारी बहन हूँ, मैं न्याय दिलवाऊँगी’। पत्रकार को यह कहना चाहिए कि ‘तुम जो वीडियो दोगे, उससे हमारा चैनल चमक जाएगा, तुम्हारी बहन को न्याय मिलेगा कि नहीं, ये नहीं पता।’
पत्रकार की बातचीत यह होनी चाहिए कि ‘तुम्हारे पास जो भी जानकारी है, वो हमें दो ताकि हम उसे पब्लिक में रखें और वहाँ से प्रशासन पर एक दबाव बनेगा’। आप पीड़ित को दिलासा दीजिए, दिलासा देते-देते एक्सप्लॉइट मत कीजिए। एक और बात चल रही है कि नार्को/पॉलीग्राफ़ टेस्ट ‘स्वेच्छा’ से दिए जाते हैं, सरकार किसी को मजबूर नहीं कर सकती। ये तो सही बात है, कानून भी यही कहता है।
लेकिन, जिस व्यक्ति को न्याय की दरकार है, वो तो किसी भी हद तक जाएगा, कुछ भी करेगा ताकि वो परिवार और समाज की नजरों में सम्मानित बना रहे। परिवार के लोग पॉलीग्राफ़ न लें और चार आरोपित ले लें, तो आप ही बताइए कि नजारा कैसा होगा? चार में से तीन आरोपित जिनके नाम बाद में जोड़े गए, अगर वो टेस्ट में पास हो गए, तब पीड़ित परिवार क्या करेगा? फिर आप बताइए कि सत्य को सामने लाने की कोशिश कौन सा पक्ष करता दिखेगा?
जब एक अपराध, पारिवारिक और ग्रामीण स्तर से उठ कर राष्ट्रीय बन जाता है, तब उसके हर पहलू पर हर व्यक्ति की नजर होती है। जब अपने पिता की बेटी, ‘हाथरस की बेटी’ और ‘भारत की बेटी’ बन जाती है, तब हर व्यक्ति चाहता है सत्य अपने मूल स्वरूप में आए, ‘चाहे जो भी करना पड़े’। अभी हर उस व्यक्ति की नजर इस बात पर होगी कि पीड़ित परिवार अगर गैंगरेप की बात को सही मानता है, तो वो टेस्ट देने से पीछे क्यों हटेगा?
अभी उनके हर एक मूवमेंट पर लोगों के सवाल होंगे कि अगर किसी की बहन मार दी गई है, कथित तौर पर गैंगरेप हुआ है, तो फिर परिवार उसी सत्य को दोहराने से क्यों हिचक रहा है? ये लॉजिक देना कि ‘वो पहले ही बहुत ह्यूमिलिएट (अपमानित) हो चुके हैं, नार्को टेस्ट और भी परेशान करेगा उनको’, ये कुतर्क है, जिसका उस संदर्भ में कोई मायने नहीं रह जाता, जबकि आप पल-पल की खबर वीडियो और न्यूज बाइट के रूप में हर चैनल पर देने की कोशिश कर रहे हैं।
ये भी अगर न्याय पाने के लिए जद्दोजहद है, तो पॉलीग्राफ़ भी उसी तरफ एक कदम है। संवेदनहीनता यह नहीं है कि ‘न्यायिक प्रक्रिया में जो भी संभव है, वो किया जाए ताकि सत्य सामने आए’। संवेदनहीनता यह है कि आप काम अपने चैनल और ‘अपनी’ खबर के लिए कर रही हैं, और रंग-रोगन ‘मैं तुम्हारी बहन हूँ, न्याय दिलाऊँगी’ वाला कर रही हैं! पत्रकारिता न्याय दिलवाने में सहायक हो सकती है, कई मामले में हुई भी है, लेकिन सत्य को ‘मैनुफ़ैक्चर’ करवाने वाली पत्रकारिता न्याय नहीं दिलाती, संभव है कि उसके कारण अन्याय ही हो जाए। इसलिए आप जो पढ़ते, सुनते, देखते, लिखते और बोलते हैं, उस पर थोड़ा ध्यान दीजिए।