सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई को राज्यसभा के लिए नामित किया गया है। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई को राज्यसभा के लिए नामित किया है। चीफ जस्टिस के रूप में अपने करीब साढ़े 13 महीने के कार्यकाल में रंजन गोगोई ने कई एतिहासिक फैसले सुनाए। इसमें अयोध्या राम जन्मभूमि का भी फैसला भी शामिल था। उन्होंने असम एनआरसी, राफेल, सीजेआई ऑफिस को आरटीआई के दायरे में शामिल करने जैसे ऐतिहासिक फैसले भी सुनाए। गोगोई पिछले साल 17 नवंबर 2019 को सीजेआई के पद से रिटायर हुए थे।
उनके राज्यसभा के लिए नामित होने पर लिबरल गैंग और कॉन्ग्रेस द्वारा विवादों में घसीटना तो तय ही था, क्योंकि अयोध्या पर उनके फैसलों ने लिबरल गैंग के कलेजे में आग लगाने का काम किया था। हिंदू विरोधी मानसिकता वाले लिबरल इनके खिलाफ मुँह फाड़ने का मौका ढूँढ रहे थे और अब उन्हें यह मौका मिल गया है। अब जब हिंदू विरोधी मानसिकता का प्रदर्शन करना है तो भला टेलीग्राफ कैसे पीछे रहता, जो हमेशा ही अपनी हिन्दुओं से धार्मिक घृणा वाली छवि को प्रदर्शित करता रहता है। ये चर्चा में ही तभी आते हैं, जब इनकी कोई घटिया हेडलाइन ट्विटर पर शेयर करता है। अब तो ऐसा है कि यही इनका यूएसपी बन चुका है कि टेलीग्राफ है, बकवास ही करेगा।
रंजन गोगोई मामले में भी द टेलीग्राफ ने एक बार फिर से ऐसा ही बकवास करने का काम किया है। हालाँकि, इस बार तो इस अखबार ने सारी मर्यादा और गरिमा को ताक पर रख दिया है। इनकी दलितों के प्रति नफरत की पराकाष्ठा का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इन्होंने देश के प्रथम नागरिक राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को ही वायरस कह दिया। अब आप समझ सकते हैं जो तथाकथित मीडिया संस्थान राष्ट्रपति की तुलना वायरस से कर सकता है, उनके मन में दलितों के लिए कितनी नफरत भरी होगी। राष्ट्रपति जैसी कुर्सी, जो राजनीति से हमेशा दूर रखी जाती है, उस पर इस तरह की घृणित और जातिवादी टिप्पणी बहुत ही निचले दर्जे की सोच और पत्रकारिता का परिचायक है।
वैसे ये इनका एक दिन का काम नहीं है। ये वर्षों से हिंदू-घृणा से बजबजाते रहे हैं। जैसा कि आप जानते हैं कि यह अखबार बंगाल से छपता है, मगर बंगाल से छपने वाला अखबार होने के बावजूद ममता के शासन में यह पेपर भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्या, हर जिले में हो रहे मजहबी दंगों और तमाम अपराधों से जलते बंगाल पर चुप्पी साध लेता है। ऐसे तमाम मौकों पर इनकी बुद्धि घास चरने चली जाती है और बेहूदे हेडलाइन सुझाने वाले एडिटरों की रीढ़ की हड्डी गायब हो जाती है। पश्चिम बंगाल सरकार के तलवे चाटने वाले इस अखबार की विशेषता ही ‘शब्दों से खेलने’ भर की रही है। इनका सारा ज्ञान हेडलाइन में अपनी जातिवादी घृणा, हिन्दुओं से धार्मिक घृणा आदि में ही बहता रहता है।
मुँह फाड़ने वाले इन लिबरलों और तथाकथित मीडिया संस्थानों को यहाँ पर यह बताना जरूरी है कि रंजन गोगोई को भाजपा या फिर किसी अन्य पार्टी ने राज्यसभा के लिए नामित नहीं किया बल्कि राष्ट्रपति की तरफ से नामित किया गया है। राज्यसभा में 12 सदस्य राष्ट्रपति की ओर से मनोनीत किए जाते हैं। ये सदस्य अलग-अलग क्षेत्रों की जानी मानी हस्तियाँ होती हैं और कई अभूतपूर्व फैसला देने वाले रंजन गोगोई पूर्वोत्तर से सर्वोच्च न्यायिक पद पर पहुँचने वाले इकलौते शख्स हैं।
वैसे सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस रंजन गोगोई को राज्य सभा के लिए चुने जाने से जिन-जिन तथाकथित निष्पक्ष कॉन्ग्रेसी लोगों की जली है, वो अगर एक बार इतिहास में दर्ज कॉन्ग्रेस के अजीब और अद्वितीय कारनामों को देख लें तो शायद उन्हें भी पता चल जाएगा कि रंजन गोगोई से पहले भी भारत के एक और मुख्य न्यायाधीश और सुप्रीम कोर्ट के एक अन्य न्यायाधीश राज्य सभा की शोभा बढा चुके हैं। अंतर सिर्फ इतना है कि गोगोई जहाँ नामित सदस्य के तौर पर राज्यसभा के सदस्य बने हैं, वहीं पहले वाले दोनों जज कॉन्ग्रेस पार्टी के टिकट पर राज्यसभा पहुँचे थे।
हम यहाँ बात कर रहे हैं हाई कोर्ट के पूर्व मुख्य जज और सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश बहरुल इस्लाम एवं पूर्व सीजेआई रंगनाथ मिश्रा की। रंजन गोगोई को मनोनीत किए जाने पर विपक्ष ने हाय-तौबा मचाया और हिंदू विरोधी द टेलीग्राफ ने भी अपनी रिपोर्ट में लिखा कि भारतीय इतिहास में इससे पहले कभी भी रिटायर होने के कुछ महीने बाद पूर्व CJI को उच्च सदन में नामांकित नहीं किया गया था। अगर इन्होंने इतिहास को पलटने की जहमत उठाई होती तो इन्हें पाता होता कि ये पहली बार नहीं है। साल 1988 में कॉन्ग्रेस शासनकाल में एक अन्य पूर्व सीजेआई रंगनाथ मिश्रा को राज्यसभा सांसद बनाया जा चुका है।
मगर द टेलीग्राफ इसके बारे में नहीं बताएगा, क्योंकि ये कॉन्ग्रेस के शासनकाल में हुआ था न और अभी बीजेपी शासनकाल में हो रहा है और वो भी अयोध्या मामले पर फैसला सुनाने वाले पूर्व सीजेआई के साथ, तो मुँह तो फाड़ेंगे ही न। इंदिरा गाँधी ने बहरुल इस्लाम को हाई कोर्ट के मुख्य जज के रूप में रिटायर होने के 9 महीने बाद फिर से उन्हें सुप्रीम कोर्ट का जज बनाया। बहरुल इस्लाम को कॉन्ग्रेस ने तीन बार राज्यसभा भेजा। उन्हें कॉन्ग्रेसियों के खिलाफ मुकदमों में कानून और न्याय की ऐसी की तैसी करके बचाने में महारत हासिल थी। सुप्रीम कोर्ट के जज के रूप में उन्होंने बिहार के उस समय के कॉन्ग्रेस सीएम जगन्नाथ मिश्रा के खिलाफ जालसाजी और आपराधिक कदाचार के मामले में क्लीन चिट देते हुए उनके खिलाफ मुकदमा चलाने से मना कर दिया था।
वैसे देखा जाए तो कॉन्ग्रेस की सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को उनके हितों की रक्षा करने पर पुरष्कृत करने की परंपरा रही है और इसका अनुपालन राजीव गाँधी ने भी किया। पूर्व चीफ जस्टिस रंगनाथ मिश्रा को 1984 में हुए सिखों के नरसंहार की जाँच का काम सौंपा गया था, जिसमें उन्होंने दंगों के लिए किसी को भी जिम्मेदार नहीं ठहराया था। उन्हें अपनी जाँच में सिवाय पुलिस की लापरवाही के किसी भी कॉन्ग्रेसी का हाथ नहीं दिखा था। इसका परिणाम यह हुआ कि उन्हें बाद में पुरस्कृत कर 1988 में राज्यसभा का सदस्य बनाया। आज जो कॉन्ग्रेस आक्रोशित और हताश होकर हाय-तौबा मचा रही है, वो इसलिए कि आज के सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश कॉन्ग्रेस के 10 जनपथ से सोनिया गाँधी के इशारों को समझना बंद कर दिया है। साथ ही इनके अंदर यह डर भी बैठ गया है कि उनके पुराने पापों पर सुप्रीम कोर्ट के आगामी निर्णय कहीं उनको भारत की राजनीति से विलुप्त न कर दें।
द टेलीग्राफ के घटिया हेडलाइन ट्विटर पर शेयर होने के साथ ही लोगों ने इस पर कड़ी प्रतिक्रिया देना शुरू कर दिया। लोगों ने लिखा कि लिबरलों को दलित से इतनी घृणा है कि राष्ट्रपति की तुलना वायरस से कर सकते हैं तो फिर दलितों के लिए इनकी सोच क्या होगी। एक ने लिखा कि सिर्फ लिबरल ही राष्ट्रपति की तुलना घातक वायरस से कर सकते हैं। प्रभात यादव नाम के एक अन्य यूजर ने लिखा, “वैसे नाम की मारने में हमलोग भी सिद्धहस्त हैं, लेकिन वामी छुछुन्दरों को छुछुन्दर ही रहने देना प्रकृति के साथ न्याय होगा।”