‘प्रेस स्वतंत्रता’ टुटपुँजिया वामपंथी पत्रकारों या बड़े संस्थानों के बाप की जागीर नहीं है, कि जब चाहे पुलिस लगा दो! वो मेरी और ऑपइंडिया की भी है, टाइम्स ऑफ इंडिया पत्रकार की भी है, और अगर ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ जोड़ दें तो, सड़क किनारे भुट्टा बेचते छोटे व्यापारी की भी है।
किसी भी राज्य की पुलिस, हमारे पीछे अपनी राजनैतिक मजबूरियों के कारण भले ही लग जाए, लेकिन वो हमसे खबरें डिलीट नहीं करवा सकते। कानूनी रूप से लड़ोगे, हम पहले से ज्यादा तैयार हैं। हम यहाँ टिकने आए हैं, खबरें डिलीट करने नहीं।
न ही हम ‘अभी ‘फलाँ पत्रकार’, ‘स्कोडा गिल्ड’ का गुप्ता चुप क्यों है’ वाली बातें कहेंगे क्योंकि वो बेकार की बातें हैं। ये नंगे लोग नहाएँगे क्या, और निचोड़ेंगे क्या! हमें इनसे न तो उम्मीद है, न ही उन्हें इस लायक समझते हैं कि वो हमारा प्रतिनिधित्व करें। हम अपने प्रतिनिधि स्वयं हैं।
और हमारे ‘टिकने’ से मतलब है कि हम यहाँ ठहरेंगे, अपना आकार बदलेंगे और पत्रकरिता की दिशा और दशा तय करेंगे। हमने ‘समुदाय विशेष’ की नौटंकी बंद करवा दी है, और बाकियों ने अपराधियों का नाम लेना शुरु कर दिया है। अभी और भी बहुत कुछ बदलेगा।
बात यह नहीं है कि हम पर सुप्रीम कोर्ट के वकीलों से ले कर राजनैतिक पार्टियों के नेताओं, इस्लामी कट्टरपंथियों और नक्सलियों ने खुजली वाले, केसविहीन कुत्तों के झुंड की तरह हम पर हमला बोला है, वो तो करेंगे ही क्योंकि उनकी नग्न चमड़ी हमने ही झुलसाई है। बात यह है कि भौंकना उनकी प्रकृति है और हमारी प्रकृति है सप्तबाण संधान से उनका मुख बंद करना।
यह समझना कठिन नहीं है एक ट्वीट पर पुलिस संज्ञान क्यों लेती है, और बिना कोर्ट में केस ले जाए, सीधे एक खबर को डिलीट करने का निर्देश (आदेश के लहजे में कि हम पुलिस बोल रहे हैं) दे देती है। मीडिया और सोशल मीडिया के बीच की क्षीण होती भित्ति के कारण, निजी भी सार्वजनिक हो चुका है। अतः कोई हिन्दूघृणा बेचेगा/बेचेगी, तो हम उस पर मुखर हो कर लिखेंगे।
सैकड़ों सालों से दबाई जाती आवाजें एक पूरी जनसंख्या के रूप में गूँगी रह कर सहने को विवश होती रही है। पत्रकारिता के मानदंड वो तय नहीं करेंगे जिन्होंने इतिहास और संस्कृति का शीलहरण किया है। ऐसे हर मानदंड हम तोड़ेंगे क्योंकि वो जनभावना के विरोध में है। एक को प्राथमिकता, दूसरे को नीची निगाह… ये बंद होना चाहिए।
सलमान को ‘रमेश (बदला हुआ नाम)’ कह कर उसके बलात्कार को हिन्दुओं के ऊपर फेंकना, दूसरे मजहब के आलिम के लिए हिन्दू ‘तांत्रिक’ जैसे शब्द और भगवा वस्त्रों वाला कार्टून लगा कर किस तरह की प्रस्तुति हो रही है पत्रकारिता की? क्या हम यह दिखाना चाहते हैं कि एक मजहब अपराध नहीं करता?
या वो यह जताना चाहते हैं कि उनके द्वारा किए गए अपराधों पर लिखना निषिद्ध है? नहीं, उन सबके नाम लिखे जाएँगे, उनके द्वारा किए गए अपराधों का वर्णन ऐसे होगा कि आपके सामने वो चलचित्र बन कर उभरे, उसके ‘लव जिहाद’, ‘रेप जिहाद’ और बाकी अपराधों को आप देख-समझ पाएँगे। सामाजिक अपराध को सामाजिक अपराध कहेंगे और मजहबी को मजहबी।
डरने से तो हम रहे, तुम लार टपकाते लकड़बग्घों का झुंड बन कर आते रहो… हम शिकार के लिए बैठे हैं क्योंकि तुम्हारे लिए हमने जो लैंडमाइन लगाए हैं, वो विस्फोटक नहीं, सामान्य लोगों की खुली आँखें हैं। वो तुम्हारी नग्नता को देखेंगे, और बचे-खुचे वस्त्र भी हर लेंगे। बाकी काम हम अपने पत्रकारिता का हैलोजैन जला कर कर देंगे।
सड़क पर चलते पत्रकार को सत्तारूढ़ नेताओं ने भी गोली मरवाई है, कट्टरपंथियों ने भी हमले किए हैं, इनबॉक्स में धमकियाँ भी आती हैं… लेकिन पत्रकारिता रुक जाएगी क्या? उँगलियों की अंतिम हलचल तक लेख लिखे जाते रहेंगे, होंठों की आख़िरी ज़ुम्बिश तक हम बोलते रहेंगे।
पत्रकारिता ‘ब्लू टिक’ वाली संस्थाओं या व्यक्तियों के सत्यापन का मोहताज नहीं। जिसके पास लिखने की क्षमता है, जो बोल सकता है, वो पत्रकार है। जो विसंगतियों पर बोलता/लिखता है, वृहद् समाज तक ले जाता है, वो पत्रकार है। ट्विटर-फेसबुक माध्यम हैं, और गूँगे बना दिए गए लोगों की स्वरतंत्री है।
ले आओ… कानूनी शब्दावली से भरे दस्तावेज ले कर आओ… हमें डराओ, धमकाओ, पुलिस स्टेशन में बारह घंटे बिठाओ, हमारे परिवार को परेशान करो… फर्क नहीं पड़ता क्योंकि हमें जो पढ़ते हैं, सुनते हैं, वो जानते हैं कि क्या हो रहा है। तुम न्याय व्यवस्था का प्रयोग कर हमें डराने में व्यस्त रहो, हम उसी व्यवस्था के सहारे जीतेंगे।