स्वतंत्रता दिवस की शाम मैंने देखा कि कुछ स्वघोषित लिबरल पत्रकार ट्वीट कर हुए बता रहे थे कि उन्होंने अपना फेसबुक अकाउंट डिलीट कर दिया है। मैंने यह सोचकर नजरअंदाज कर दिया कि वे लोग अपनी प्रासंगिकता को बरकरार रखने के लिए इस तरह की फालतू हरकत करते रहते हैं।
मगर आज मैंने फिर से कॉन्ग्रेस पार्टी के ट्रोल को फेसबुक पर हमला करते हुए देखा। वे लोग विशेष रूप से अंखी दास नामक एक वरिष्ठ कर्मचारी को गाली दे रहे थे, जो भारत में कंपनी की शीर्ष सार्वजनिक नीति कार्यकारी हैं। कॉन्ग्रेस ने उन पर ‘भाजपा एजेंट’ होने का आरोप लगाया। वहीं अन्य विपक्षी दलों ने भी उनके लिए गंदी भाषा का प्रयोग किया। उन्हें ‘दलाल’ तक करार दे दिया।
अंखी दास के नाम पर मैं अलर्ट हुआ, इसलिए नहीं कि मैं बड़े कॉरपोरेट घरानों के सभी शीर्ष अधिकारियों पर नज़र रखता हूँ, बल्कि इसलिए क्योंकि मैं फेसबुक की पक्षपाती नीतियों की शिकायतों को लेकर कई बार उन्हें ईमेल कर चुका हूँ। जिसकी वजह से ऑपइंडिया की पहुँच और कमाई पर असर पड़ने की संभावना होती थी।
अच्छा तो क्या अंखी भाजपा का एजेंट थी, इसलिए उन्होंने हमें अपनी नीतियों के कार्यान्वयन से निराश किया। इसका मतलब है कि ऑपइंडिया कॉन्ग्रेस समर्थक है?
खैर, क्या इससे आपको कोई फर्क पड़ता है? मुझे तो नहीं पड़ता।
एक प्रकाशक के तौर पर फेसबुक की अनुचित व्यवहार की वजह से हो रही दिक्कतों को लेकर मैंने 2019 में अंखी दास और फेसबुक के एक अन्य अधिकारी शिवनाथ ठुकराल को ईमेल किया था। मैंने उनके सामने समाधान भी प्रस्तुत किए थे, जैसे नीतिगत मुद्दों के बारे में अधिक पारदर्शिता लाना, प्रकाशकों और प्लेटफॉर्म के बीच बेहतर समन्वय के लिए एक टीम बनाना और ऐसे ही कई और उपाय। हालाँकि उसे लगभग नजरअंदाज ही किया गया।
2019 में उनको भेजे अपने आखिरी ईमेल में मैंने कहा, “व्यक्तिगत रूप से, यह व्यवहार मेरे लिए बिल्कुल भी आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि मुझे कुछ बेहतर होने की उम्मीद नहीं है। मैं ईमानदारी के अभाव से सबसे अधिक नफरत करता हूँ। आप मुझे केवल यह बताएँ कि आपकी तरफ से कुछ मुद्दों पर जवाब इसलिए नहीं दिया जाता, क्योंकि आपकी नजर में महत्वपूर्ण या वैलिड नहीं होते। आपका इतना बता देना ही मेरे लिए काफी होगा। यह राजनेताओं की तरह लगातार नजरअंदाज करते हुए मुद्दे को खत्म करना प्रोफेशनल्स को शोभा नहीं देता।” इसके बाद मैंने कोई और ईमेल नहीं भेजा।
इन ईमेलों को भेजने से पहले, मैंने कुछ अन्य प्रकाशकों के साथ अंखी दास और शिवनाथ ठुकराल से उनकी नीतियों को समझने के लिए थोड़ी देर की मुलाकात की थी। 15 मिनट के भीतर, मुझे जगह छोड़ने का मन हुआ, क्योंकि वहाँ पर भी लिबरलों के ‘हेट स्पीच’ जैसे बकवास किए गए थे।
इस दौरान अंखी दास ने विशेष रूप से एक व्यक्ति के तर्क का विरोध किया था, जिसने कहा था कि अभद्र भाषा व्यक्तिपरक थी। उन्होंने आपत्ति जताई और कहा कि यह केस नहीं है। हेट स्पीच की पहचान करने के लिए उचित दिशा-निर्देश दिए गए हैं।
एक सेकेंड के लिए, मैं बस यही तर्क देना चाहता था कि ‘यदि जाति-व्यवस्था के कारण हिंदू धर्म आंतरिक रूप से शोषक हैं’, यह हेट स्पीच नहीं है, तो फिर ‘जिहाद की हिंसक अवधारणा के कारण इस्लाम’ को हेट स्पीच क्यों होना चाहिए?
ऐसा कौन सा सिद्धांत है, जो इस्लाम की सभी आलोचनाओं को हेट स्पीच के रूप में प्रदर्शित करता है और हिंदू धर्म को दी जाने वाली गालियों को भी विद्वानों की टिप्पणी के रूप में स्वीकार करता है।
बता दें कि, लेखक और जेएनयू के प्रोफेसर आनंद रंगनाथन को ट्विटर ने कुरान की एक कविता पोस्ट करने पर उसे “घृणित आचरण” करार देते हुए ब्लॉक कर दिया। इस तरह के कई मुद्दों को मैं सामने ला सकता हूँ, मगर मैंने 2016 में ही लिबरलों के साथ बहस करना छोड़ दिया है।
इसलिए मुझे बहुत हँसी आई, जब मुझे पता चला कि वॉल स्ट्रीट जर्नल (WSJ) ने अंखी दास के बारे में एक लेख प्रकाशित किया। इसके बाद इन्हें भारतीय जनता पार्टी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का समर्थक करार दिया गया। उन्हें ‘इस्लामोफोबिया’ का प्रशंसक भी बताया गया।
जब मुझे पता चला था कि अंखी दास जेएनयू से हैं, और संभवत: शीर्ष फेसबुक की नौकरी के पोस्ट पर रहने के दौरान वो एक करोड़ रुपए से अधिक कमा रहे हैं, मैं अलर्ट हो गया। एक सीरियस नोट पर, डब्ल्यूएसजे लेख से केवल यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उदारवादियों ने व्यापक उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए और अपना नैरेटिव बनाए रखने के लिए अपने एक हितैषी को कुर्बान करना बेहतर समझा।
हो सकता है कि अंखी दास उनके लिए ‘पर्याप्त लिबरल’ नहीं थे। इन दिनों भी नोम चोम्स्की और जेके राउलिंग को मजाक उड़ाकर ‘निरस्त’ किया जा रहा है। वह निश्चित रूप से उनके लिए उतना महत्वपूर्ण नहीं था।
लेकिन यह एक व्यक्ति के बारे में नहीं है। यह लगभग 3 वर्षों से हो रहा है। पुराना लिबरल प्रतिष्ठान हताश है। वे अच्छे के लिए वर्ल्ड ऑर्डर इनवर्ट्स पर नियंत्रण हासिल करने की जल्दी में हैं।
वास्तविक प्रतिष्ठान होने के बारे में एकमात्र तरीका सेंसरशिप और सूचना एवं विचार के गेट-कीपिंग के माध्यम से हो सकता है। जिस तरह से माफिया ने मीडिया और शिक्षाविदों पर नियंत्रण किया है, वो भी उसी तरह जनता के सोचने और बोलने पर नियंत्रण रखना चाहते हैं। और यह भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लिए सच है।
हालाँकि शिक्षाविदों पर उनका नियंत्रण थोड़ा सा भी कमजोर नहीं हुआ है। पारंपरिक मीडिया पर उनका नियंत्रण इंटरनेट प्रौद्योगिकी के आगमन के साथ फिसलने लगा है। प्रारंभ में उन्होंने इसकी परवाह नहीं की। अमेरिका में, इंटरनेट अपनाने का चलन काफी पहले से था और उनका डॉट-कॉम बूम पिछली सदी के आखिरी दशक में ही हुआ था। पारंपरिक मीडिया इसके साथ सहज था।
तब इंटरनेट सिर्फ एक तकनीक थी। एक ऐसी तकनीक, जिसने सूचना तक पहुँचना आसान बना दी, और वेबसाइटों और अन्य कंटेंट मैनेजमेंट सिस्टम के माध्यम से प्रकाशन को आसान बना दिया। डिजिटल प्रकाशन प्रिंट या प्रसारण जैसे अन्य प्लेटफार्मों पर प्रकाशन की तुलना में कहीं अधिक किफायती और आसान था। हालाँकि, पारंपरिक मीडिया ने शॉट्स को जारी रखा, क्योंकि प्रकाशित सामग्री का वितरण नए या व्यक्तिगत प्रकाशकों के लिए एक चुनौती बना रहा। “ब्लॉगर्स” इतने बड़े खतरे नहीं थे।
उसके बाद फेसबुक, यूट्यूब, ट्विटर और व्हाट्सएप आया। फिर सस्ता स्मार्टफोन और तेज मोबाइल डेटा भी आया। इसने लोगों की कंटेंट के इस्तेमाल करने के तरीके को बदल दिया। भारत में, 2009 और 2013 के बीच इंटरनेट को अपनाना विशेष रूप से बहुत तेजी से बढ़ा है, और यह Jio के बाजार में तेजी के साथ तेजी से बढ़ रहा है।
कम से कम भारत में यह वह युग था, जब नैरेटिव वास्तव में लोकतांत्रिक थी। मुख्यधारा की मीडिया की सेंसरशिप और गेट-कीपिंग चली गई थी। वैकल्पिक आवाज और राय को एक दर्शक मिला। उन्हें न केवल दर्शक मिला, बल्कि अपने कंटेट के प्रसार के लिए एक बहुत ही शानदार साधन मिला।
पारंपरिक मीडिया ने पहले इन घटनाओं को अनदेखा करने की कोशिश की, फिर वे “ट्रोल्स” पर हँसे, और अब वो लड़ रहे हैं। पारंपरिक मीडिया पर हावी लेफ्ट-लिबरल (an oxymoron) भीड़ ने चीजों को फिर से वापस अपनी तरफ खींच लिया है। उन्होंने इंटरनेट का उपयोग करना सीख लिया है, और उन्होंने पिछले कुछ वर्षों में इसका प्रभावी उपयोग किया है। लेकिन उनकी प्रकृति यह है कि वे सेंसरशिप और गेट-कीपिंग के बिना नहीं रह सकते। वे वास्तव में इन प्रक्रियाओं में विश्वास करते हैं और वे उन्हें वापस पाने के लिए कुछ भी करेंगे।
यह पिछले 3 वर्षों से हो रहा है। ‘हेट स्पीच’ के खिलाफ लड़ने और ‘सुरक्षित स्थान बनाने’ के नाम पर पारंपरिक मीडिया पर शासन करने वाली विचारधारा, बड़ी टेक कंपनियों के प्लेटफ़र्म पर सेंसरशिप और गेट-कीपिंग का पावर पाने के लिए काफी हाथ-पाँव मार रही है।
इस विचारधारा का समर्थन करने वाला प्रत्येक व्यक्ति- चाहे वह पत्रकार हो, या फेसबुक कर्मचारी, या राजनीतिक कार्यकर्ता- इस सामान्य उद्देश्य में एकजुट है- नैरेटिव पर नियंत्रण वापस पाने के लिए।
और इसके लिए, अगर उन्हें किसी को निशाने पर लेने की आवश्यकता होगी, तो यह जायज है। दरअसल, यह दूसरों के लिए भी एक चेतावनी की तरह है कि यदि आप आत्मसमर्पण नहीं करते हैं और हमसे जुड़ते हैं, तो हम आपकी प्रतिष्ठा और करियर को नष्ट कर देंगे।
(अंग्रेजी में मूल रूप से प्रकाशित इस लेख को यहाँ क्लिक कर पढ़ सकते हैं)