अफगानिस्तान में लगभग दो दशक तक सभ्यता बरसा कर अमेरिका बोर हो गया तो निकल लिया। शायद सभ्यता और डेमोक्रेसी बरसाने के लिए किसी और देश की खोज में। इधर पाकिस्तान ताने मारे जा रहा है; हमारे जनरैल कियानी ने तो पहले ही खबरदार किया था कि अमरीका बहादर अफगानिस्तान में कुछ नहीं कर सकेंगे। तालिबान बान की तरह काबुल की ओर बढ़ रहे हैं। चीन उन्हें मॉरल और इम्मॉरल, हर तरह का समर्थन देने के लिए तैयार है। रूस कुछ बोलने की स्थिति में नहीं है इसलिए लेफ्ट आउट फील कर रहा है।
भारत के लिबरल पहले से ही कहने लगे हैं कि फ़ालतू में भारत सरकार ने वहाँ इतने संसाधन खर्च कर दिए। सोशल मीडिया पर सुरक्षा एक्सपर्ट आने वाले भविष्य में भारत की भूमिका पर ट्वीट कर कयास लगा रहे हैं। न्यूयॉर्क टाइम्स अपने पत्रकारों को अफगानिस्तान से निकालने के लिए उसी भारतीय सरकार से अनुरोध कर रहा है जिसके ऊपर वो लगातार लोकतंत्र को कमज़ोर करने का आरोप लगाता है। हमेशा की तरह यूरोप किसी के मानवाधिकार को लेकर चिंतित है।
कुल मिलाकर दोहरी नैतिकता और मुँहबोले लानतों वाला विकट अंतरराष्ट्रीय माहौल बन गया है।
दोहा में तालिबान के साथ अमेरिका की बातचीत से ही लगने लगा था कि अमेरिका समय से पहले ही “तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा” गाकर अफगानिस्तान से निकलने का मन बना चुका था। लोग अफगानिस्तान में अमेरिका की हालत की तुलना वियतनाम से भले कर रहे हैं पर सच यह है कि पाकिस्तान की वजह से अफगानिस्तान अमेरिका के लिए वियतनाम से भी जटिल बन चुका था। उधर चीन और पाकिस्तान ने इसके लिए कोई कसर बाकी नहीं रखी।
चीन ने तो यह घोषणा कर दी कि वह अफगानिस्तान की प्रभुसत्ता का पक्षधर है और कभी उसके आंतरिक मामलों में किसी तरह के हस्तक्षेप के पक्ष में नहीं रहा। इस समय चीन के तालिबान प्रेम का यह हाल है कि पंद्रह दिन पहले चीनी विदेश मंत्री ने तालिबानी प्रतिनिधि मंडल से बीजिंग में मुलाक़ात की। अफगान तालिबान वैश्विक मंच पर वैधता के जिस शिखर पर पहुँचना चाहता है उसका बेस कैंप चीन बनाकर दे रहा है। पाकिस्तान अपने कंधे पर ऑक्सीजन और ड्राई फ्रूट्स वगैरह लाद कर उसके साथ चलने के लिए तैयार खड़ा है; चलिए हम साथ चलेंगे और जौन से शिखर पर जाना चाहते हैं, हम वहाँ ले चलेंगे।
चीन के विदेश मंत्री ने तो यहाँ तक कहा कि तालिबान अफगानिस्तान में बड़ी फौजी और राजनीतिक ताकत है और उनसे यह आशा है कि वे अफगानिस्तान में शांति, समन्वय और पुनर्निर्माण के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाएँगे। तालिबान से शांति की आशा करने वाले लोग इसी दुनियाँ में रहते हैं। वैसे देखा जाए तो यह कहना चीन के लिए आवश्यक है। आखिर उसने अफगानिस्तान में तेल, नून, लकड़ी (आयल, गैस और माइनिंग पढ़ें) के लिए जो दीर्घकालीन संधि की है उसके ऊपर तालिबान ए के 47 तान देंगे तब क्या होगा? फिर चीन अफगानिस्तान के साथ थोड़ा बॉर्डर भी शेयर करता है।
ये अलग बात है कि अभी तक उसने अफगानिस्तान के साथ किसी तरह का सीमा विवाद परोक्ष रूप से नहीं शुरू किया है। ऐसे में यह दोनों के लिए महत्वपूर्ण हैं कि दोनों मिल बाँटकर खाएँ। डाइनिंग हॉल के फर्श की सफाई का काम पाकिस्तान के जिम्मे है। सफाई करते हुए कुछ जूठन उसे भी मिल जाएगा। पर पाकिस्तान तो पाकिस्तान है। वह चीन की सेवा में तो है ही लेकिन उसे इस बात की चिंता भी है कि अगर अमेरिका ने किसी काम के लिए रास्ता माँगा और उसे देना पड़ा तो फिर तालिबान उसका क्या करेंगे?
अफगानिस्तान की वर्तमान हालात ने सुपर पावर, सुपर डुपर पावर, भूतपूर्व पावर, अभूतपूर्व पावर, लगभग हर पावर को विश्व समुदाय के सामने निर्वस्त्र कर दिया है। ऐसा नहीं कि यह पहली बार हुआ है। ISIS ने जब यजीदियों पर अत्याचार की सुनामी ठेली थी तब भी तरह-तरह के ये पावर ऐसे ही निर्वस्त्र खड़े थे। दुनियाँ भर पर लोकतंत्र थोपने वाला अमेरिका बगलें झाँक रहा था। मानवाधिकार के लिए सदा रोने वाले यूरोप ने मुँह में गुटखा भर लिया था।
यजीदियों के समर्थन के नाम पर पश्चिमी देशों की मीडिया बीच-बीच में ऐसी किसी यजीदी लड़की पर ISIS के जुल्म की कहानी छापते थे जो उनकी कैद से भाग कर यूरोप या अमेरिका में कहीं पहुँच गई थी और फिर इस छपी कहानी को लोग चटखारे लेकर पढ़ते और सुनते थे और साथ ही अपने सोशल मीडिया अकाउंट से ISIS पर हज़ार लानतें भेजते थे। आश्चर्य न होगा यदि यही कहानी इसबार भी दोहराई जाए।
दुनियाँ भर में लोकतंत्र के झंडाबरदार अबतक तो तालिबानों की गोलियों को ही हज़ार लानतें भेजते हुए बरामद हुए हैं। ऐसे में जब तालिबानियों ने पंद्रह से पैंतालीस वर्ष की आयु की औरतों की लिस्ट बनाने का आदेश दिया तो उसकी चर्चा दो दिन तक होकर शांति हो गई। अफगानिस्तान के सबसे बड़े क्रिकेटर की दुनियाँ भर से अपील वाली ट्वीट आर टी में सिमट गई और मानवता की त्रासदी मीडिया की हैडलाइन में।
अफगानिस्तान में जो हो रहा है वह लोकतंत्र की लड़ाई नहीं है। वह अरब स्प्रिंग भी नहीं है। वह क्लैश ऑफ़ सिविलाइजेशन भी नहीं है। यह शुद्ध रूप से मज़हबी और सियासती सत्ता की लड़ाई है जिसके मूल में इस्लाम है। ऐसे में इन्हें देखते हुए मन में आता है कि जो बदलाव संयुक्त अरब अमीरात या सऊदी अरब में पिछले कुछ वर्षों में दिखाई दिया है वह उन देशों के लोगों के लिए आवश्यक क्यों है?
आखिर ये देश क्यों चाहते हैं कि उन्हें बदलने का समय आ गया है और वे बदलाव के अपने प्रयास में इतनी दूर तक जा सकते हैं जहाँ वे दशकों से इजराइल को मान्यता न देने के अपने निर्णय पर न केवल पुनर्विचार करते हैं बल्कि उसे मान्यता भी देते हैं। जब सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात जैसे देश सुधारों का जोखिम उठा सकते हैं तो पूरी दुनियाँ को सभ्यता सिखाने वाले पश्चिमी देश अफगानिस्तान से आँखें मूँदकर कैसे भाग सकते हैं? अफगानिस्तान में पाकिस्तान और चीन की भूमिका पर चुप कैसे रह सकते हैं और किसके मानवाधिकार के लिए मुँहबोली लड़ाई लड़ सकते हैं?