जब-जब चीन के साथ लद्दाख सीमा क्षेत्र में सीमा विवाद का मुद्दा गरमाएगा, तब-तब इस क्षेत्र को ‘बंजर’ बताकर अपनी वैश्विक छवि के लिए चीन की नीतियों को हल्के में लेने की महान भूल करने के लिए जिम्मेदार भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का ‘योगदान’ भी याद किया जाता रहेगा।
चीन के साथ लद्दाख क्षेत्र में लम्बे समय से चल रहे सीमा विवाद के बाद भारतीय नेतृत्व और चीन के प्रति इसके नजरिए को लेकर कई प्रकार की बातें सामने आई हैं। लेकिन कश्मीर के साथ ही अक्साई चीन क्षेत्र को हमेशा के लिए विवादित विषय बना देने वाले जवाहरलाल नेहरू के नजरिए और उनकी नीतियों के बारे में भारतीय सेना और भारतीय वायुसेना के वो अधिकारी, जो इस युद्ध का हिस्सा थे, अक्सर नेहरू की कमजोरियों को उजागर करते आए हैं।
वर्ष 2012 में चीन के साथ युद्ध के पचास साल पूरे हो चुके थे। इस अवसर पूर्व वायुसेना प्रमुख एयर चीफ मार्शल एवाई टिपणीस ने चीन के हाथों पराजय के लिए जवाहरलाल नेहरू को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा था कि नेहरू ने अंतरराष्ट्रीय नेता बनने की अपनी महात्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए राष्ट्र के सुरक्षा हितों को त्याग दिया। टिपणीस 1960 में बतौर फाइटर पायलट नियुक्त हुए थे और वर्ष 1998 में वह वायुसेना प्रमुख बने।
इसके कुछ समय पहले ही भारतीय वायुसेना प्रमुख एनएके ब्राउन ने भी कहा था कि चीन के साथ उस समय युद्ध में वायुसेना की आक्रामक भूमिका होती तो शायद नतीजा ही कुछ और होता।
‘भारत और चीन: 1962 के युद्ध के पाँच दशक बाद’ सेमिनार में बोलते हुए पूर्व वायुसेना प्रमुख एयर चीफ मार्शल टिपणिस ने कहा था कि उस युद्ध में भारत की अपमानजनक पराजय के लिए जवाहरलाल नेहरू की ग्लोबल लीडर बनने की महत्वाकांक्षा जिम्मेदार थी।
इस सम्मेलन में टिपणिस ने कहा था कि युद्ध के दौरान उनके समय में सेना प्रमुखों को नेहरू स्कूल के बच्चों की तरह बुरी तरह डाँट देते थे। उन्होंने खुलासा किया कि चीन के साथ लड़ाई में वायुसेना की भूमिका सिर्फ सेना की ट्रांसपोर्ट हेल्प तक सीमित थी। उसकी कोई आक्रामक भूमिका नहीं थी।
चीन को लेकर नेहरू का अंधसमर्पण
चीन को लेकर जवाहरलाल नेहरू के भीतर विचारधारा के स्तर पर अंधसमर्पण की स्थिति थी। नेहरू को तो वास्तव में अक्साई चीन में कभी दिलचस्पी भी नहीं थी। उन्होंने भरी संसद में इस क्षेत्र का वर्णन कुछ इस तरह किया था – “एक बंजर निर्जन क्षेत्र, जो 17,000 फ़ीट की ऊँचाई पर है और जहाँ घास का नामो-निशाँ तक नहीं है, ऐसा क्षेत्र जहाँ एक तिनका भी नहीं उगता..।”
यही नहीं, जवाहरलाल नेहरू ने यहाँ तक कह दिया था कि हमें तो यह भी पता नहीं कि इस क्षेत्र का कौनसा हिस्सा हमारा है और कौन सा उनका। जवाहरलाल नेहरू के इस कायराना बयानों की छाप संयुक्त राष्ट्र तक भी नजर आई। इसी बीच तिब्बत में चीन की सेना के प्रवेश को लेकर भी नेहरू के विचार उस सैनिक की तरह थे, जो बिना लड़ाई के ही कई युद्ध हार चुका। और उनके इसी कायराना रवैए की झलक चीन के साथ लड़े गए युद्ध में भी थी।
स्वतंत्र भारत की दूसरी लोकसभा में भारतीय जन संघ के सिर्फ़ चार सांसद थे, अटल बिहारी वाजपेयी उन चार सांसदों में से एक थे।
नेहरू का तिब्बत के पक्ष पर मौन और तिब्बत में चीनी आक्रमणकारियों की सेना के प्रवेश को लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ में चीन के समर्थन की नीति का विरोध तब युवा सांसद अटल बिहारी वाजपेयी ने किया था। वाजपेयी ने अगस्त, 1959 में भारतीय संसद में तिब्बत की मदद के बजाए आक्रमणकारियों के साथ खड़े होने वाली तत्कालीन नेहरू सरकार को कोसते हुए कहा था कि संयुक्त राष्ट्र संघ में तिब्बतियों को उनके ही देश में अल्पसंख्यक बना देने वाले चीन को मान्यता दिलाने के लिए भारत एक हद से आगे जाकर उनके साथ खड़ा है।
कोको द्वीप – नेहरू की भूल का एक और नतीजा
जवाहरलाल नेहरू की रणनीतिक समझ की कमी और अंग्रेजों के साथ सख्ती से पेश आने की असमर्थता के कारण भारत ने अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के बाद दक्षिण एशिया के सबसे प्रमुख रणनीतिक द्वीपों में से एक – कोको द्वीप समूह को खो दिया।
कोको द्वीप समूह, जो कोलकाता के 1255 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व में स्थित है, दक्षिण एशिया के सबसे महत्वपूर्ण द्वीपों में से एक है। कोको द्वीप, जो भूगर्भीय रूप से अराकान पर्वत या राखीन पर्वत का एक विस्तारित विभाजन है, बंगाल की खाड़ी में द्वीपों की एक श्रृंखला के रूप में लंबे भूभाग तक फैला हुआ है।
ये रणनीतिक द्वीप, अंडमान द्वीप के उत्तर में स्थित हैं। हालाँकि, कोको द्वीप अब म्यांमार का हिस्सा हैं, और इसका कारण इन द्वीपों के दावे को लेकर भारतीय नेतृत्व की असमर्थता और उदासीनता है।
1950 में भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भारत का यह कोको द्वीप समूह बर्मा (म्यांमार) को गिफ्ट दे दिया। सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण यह द्वीप बाद में बर्मा द्वारा चीन को दे दिया गया, जहाँ से आज चीन भारत पर नजर रखता है।
काबू वैली
नेहरू की दूरदर्शिता का एक और उदाहरण काबू वैली भी है। मणिपुर में स्थित काबूवैली कभी भारत का हुआ करता था। 1954 में नेहरु ने इसे भी ‘मित्रता के तौर पर’ म्यांमार को दे दिया। काबूवैली के बारे में कहा जाता है कि अगर दुनिया में कश्मीर के बाद कोई जगह इतनी खूबसूरत है तो वह काबूवैली है। म्यांमार ने आज काबूवैली का कुछ हिस्सा चीन को दे रखा है जिसे कि चीन अपने सामरिक हितों के लिए इस्तेमाल कर रहा है।
संप्रभुता एकता और अखंडता : नेहरू बनाम 56 इंच
आज के समय में देश का वामपंथी मीडिया और सत्ता-विरोधी वर्ग प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर 56 इंच जैसे तंज कसने का असफल प्रयास करता है। जबकि स्वतंत्र भारत के इतिहास में कई ऐसे अपमानजनक पन्ने मौजूद हैं जो नेहरू की हिमालयी भूलों से भरे पड़े हैं फिर भी मीडिया ने उन्हें कभी भी महामानव से कम साबित करने का प्रयास नहीं किया। जिन गोदी इतिहासकारों ने लौह महिला का अर्थ ‘इंदिरा’ बता दिया था, उनकी कलम ‘हिमालयी भूल’ का अर्थ ‘जवाहरलाल नेहरू’ लिखते वक्त लड़खड़ा गई थी।
भारत के जनमानस के मन में हिमालय को लेकर भावनात्मक लगाव का सम्मान रख पाने में तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू ने असमर्थता व्यक्त की थी, ना ही अपनी व्यक्तिगत छवि के सामने कभी उन्होंने इन विषयों को जरुरी माना। वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत को शान्ति का उपासक तो बताया ही, साथ ही यह स्पष्ट संदेश भी दिया है कि भारत अपनी संप्रभुत्ता के साथ किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप होने पर मुँहतोड़ जवाब दे पाने में सक्षम है। यही नहीं, भारत ने अब अपने सामरिक समाधान के विकल्प बाहरी देशों में तलाशने की नीतियाँ भी त्याग दी हैं।
निःसंदेह चीन के साथ यह सीमा विवाद अभी भी अंतहीन है, लेकिन भारत के पास कम से कम एक ऐसा नेतृत्व तो मौजूद है, जो अपनी भौगोलिक सीमाओं को बंजर नहीं कहता, जो विचारधारा के प्रभुत्व के लिए आक्रमणकारी और वर्चस्ववादियों के सामने घुटने टेक दे और महज विचारधारा के लिए तिब्बत के बजाए चीन के साथ खड़ा हो जाए।
नेहरू ने तो मानो अपने आदर्श पश्चिमी देशों से भी कुछ नहीं सीखा। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय जब सोवियत संघ मित्र राष्ट्रों के साथ खड़ा हुआ, तब उसने विचारधारा की परवाह नहीं की थी और वह पूँजीवादियों के साथ नजर आया। बदले में पूँजीवादियों ने भी नरसंहारक कम्युनिस्ट स्टालिन से निःसंकोच मित्रता कर ली थी।
लेकिन नेहरू की मित्रता शायद ही अपनी निजी छवि और गौरव के अलावा किसी अन्य चीज से रह सकी हो। यदि ऐसा न होता तो भारत आज भी अपने पहले प्रधानमंत्री की भूलों के लिए अपने सैनिकों का बलिदान नहीं दे रहा होता और कॉन्ग्रेस इन सैनिकों के बलिदान में अपने सत्ता में लौटने का मार्ग नहीं तलाश रही होती।