प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा मिशन शक्ति की सफलता पर समस्त देशवासियों को बधाई दी। मोदी सरकार के दौरान मिली इस बड़ी सफलता पर खुश होने के बजाए कुछ गिरोहों में दहशत का माहौल देखने को मिला। ‘खानदान विशेष’ के अनुयायियों ने येन केन प्रकारेण ISRO और DRDO की सफलता पर पूर्व प्रधानमंत्री जवाहलाल नेहरू को बधाई दे डाली और इस घटना को प्रधानमंत्री मोदी के चुनाव प्रचार का हिस्सा बताने की पुरजोर कोशिश की।
कॉन्ग्रेस के कुछ परिवार-परस्त पदाधिकारियों ने चमचागिरी की अपनी पिछली हरकतों में नया इतिहास जोड़ते हुए बताया कि NASA में ‘N’ का मतलब नेहरू है। खैर, प्रियंका गाँधी की नजरों में आने के लिए उनकी रैली में आसमान से भीड़ उतार कर ले आने वाली प्रियंका चतुर्वेदी से इस से ज्यादा कोई उम्मीद करनी भी बेकार है।
ऐसे समय में, जब नरेंद्र मोदी के साँस लेने से, साँस छोड़ने तक को उनका चुनावी स्टंट घोषित कर लिया जा रहा है, ये बताना जरुरी हो जाता है कि राजनीति के ‘खानदान विशेष’ की फर्स्ट लेडी सोनिया गाँधी ने किस तरह से 2014 के लोकसभा चुनावों के बीच में ही (अप्रैल 14, 2014) देश की जनता और वोटर्स को प्रभावित करने के लिए टूटी-फूटी हिंदी में ही प्रसारण करवाया था।
खानदान विशेष के एहसानों और पुरस्कारों के बोझ तले दबा यह मीडिया गिरोह 2014 में सवाल नहीं पूछ पाया था, शायद तब तक कभी गाँधी परिवार ने इसे एहसास भी नहीं होने दिया था कि मीडिया का काम सवाल पूछना भी हो सकता है। सवाल पूछ सकने की यह वैचारिक क्रांति इस मीडिया गिरोह में 2014 के बाद ही देखने को मिली है, जिसमें कोई मनचला पत्रकार सुबह से शाम तक प्रधानमंत्री का इंटरव्यू लेने का सपना देखता रहता है ताकि उसके न्यूज़ चैनल को TRP मिल सके। इसके लिए उसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का शुक्रगुजार होना चाहिए, कि पत्रकारिता की हर जिम्मेदारी का स्मरण मीडिया गिरोह को इन्हीं कुछ सालों में हो पाया है। हमने देखा कि बजाए धन्यवाद देने के, यह परिवार परस्त गिरोह लोकतंत्र की हत्या चिल्लाता रहा।
कुछ लोगों के लिए ये स्वीकार करना मुश्किल होगा, लेकिन ये भी जानना आवश्यक है कि रिमोट कण्ट्रोल के अँधेरे UPA-1 और UPA-2 शासन के दौरान कॉन्ग्रेस पार्टी अध्यक्ष की हैसियत से ज्यादा सोनिया गाँधी अन्य किसी भी आधिकारिक और सरकारी पद पर कभी नहीं रही। लेकिन खुद को सत्ता में और सबसे ऊपर देखने का स्वप्न गाँधी परिवार को विरासत में मिला है और ये भ्रम उनका आज तक भी नहीं टूटा है।
यही वजह है कि गाँधी परिवार के सिपहसालार वैज्ञानिकों की उपलब्धि पर भी बताते हैं कि ये एंटी सैटेलाइट मिसाइल भी वो तभी बना पाए जब नेहरू ने इसरो की स्थापना की थी। ये बात अलग है कि इसरो की स्थापना और पंडित नेहरू के परधाम गमन के बीच 5 साल का अंतर है।
कॉन्ग्रेसाधीन नेहरू-भक्तों को शायद ये बात स्वीकार करने में अभी बहुत वर्ष लगेंगे किये देश किसी खानदान विशेष की बपौती नहीं है और ना ही इसे आजाद कराने में किसी समाजवादी छवि वाले नेता का अकेला हाथ था। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी अगर आज जीवित होते तो शायद ये जरूर कहते कि जब तक इस देश में कॉन्ग्रेस रहेगी तब तक…