Monday, November 25, 2024
Homeविचारराजनैतिक मुद्देहिन्दुओ, लट्ठ की पूजा के जमाने में किसी को ठेकेदारी सौंप चैन की बंसी...

हिन्दुओ, लट्ठ की पूजा के जमाने में किसी को ठेकेदारी सौंप चैन की बंसी मत बजाओ: मुस्लिम खुद तय करते हैं खेल के मैदान और नियम… आप भी कीजिए

हिन्दू समाज इसके विपरीत अपनी आस्था के सवालों को व्यवस्था और तंत्र के हाथों में सौंपकर चैन की नींद सोना चाहता है। उसे लगता है कि संसार भलमनसाहत, व्यवस्था और कायदे कानूनों के हिसाब से चलता है।

ये बात सौ फीसदी सही है कि किसी को भी किसी मजहब के आस्था प्रतीकों को लेकर हल्की टिप्पणी करने की इजाजत नहीं होनी चाहिए। संस्कृत वांङ्गमय में तो कहा भी गया हैं कि अगर सत्य अप्रिय है तो उसे बोलने से बचना चाहिए। ‘सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्, न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम्।’ सन्दर्भ नूपुर शर्मा और नवीन जिंदल प्रकरण का है। मगर क्या ऐसा एकतरफा होना चाहिए? जो नूपुर शर्मा ने कहा वह सत्य था अथवा नहीं यह तो इस विवाद से उठे शोर में कहीं दब ही गया है।

मूल बात है कि पैगम्बर मोहम्मद को लेकर जो बात एक टीवी बहस के दौरान नूपुर शर्मा ने कही, उस पर मुस्लिम समाज ने आपत्ति जताई। उसके बाद कई देशों के मुस्लिम इकट्ठे हो गए और दबाव में अपनी प्रवक्ता नूपुर को भाजपा ने बाहर का रास्ता दिखा दिया। दिल्ली भाजपा के प्रवक्ता और पत्रकार नवीन जिंदल का भी यही हश्र हुआ क्योंकि कुछ ऐसी ही बातें उन्होंने अपनी ट्ववीट में कहीं थी। लेकिन, इससे भी कहीं अपमानजनक बातें हिन्दू आस्था प्रतीकों को लेकर कई लोगों ने की हैं।

ज्ञानवापी मस्जिद में शिवलिंग निकलने के बाद ऐसे कई बयान और सोशल मीडिया पोस्ट आपको मिल जाएँगी जो सिरे से भद्दी, निर्लज्ज, अश्लील, लम्पटतापूर्ण और अनर्गल है। ये सभी हिन्दुओं, विशेषकर महादेव के भक्तों को बेहद उद्वेलित करने वालीं हैं। ऐसी बयानबाजी करने वालों में कई नेता, अल्पसंख्यक समुदाय के लोग, पत्रकार और अन्य लोग भी शामिल हैं। इन टीका-टिप्पणियों को न तो सोशल मीडिया से हटाया गया, न ही इन लोगों पर कोई कानूनी कार्रवाई हुई और न ही कोई बड़ा बवाल मचा है।

इस्लाम और हिन्दू प्रतीकों को लेकर मचे इस घमासान में सत्य-असत्य, तर्क-वितर्क, साक्ष्य-असाक्ष्य, तार्किक-अतार्किक, ऐतिहासिक-अनैतिहासिक आदि मूल बातों में जाने का कोई मतलब नहीं है। क्योंकि, मौजूदा बहस इनमें से किसी धरातल पर तो ही नहीं रही। इसके प्रभाव और असर को सिर्फ और सिर्फ ताकत की तराज़ू पर तोला जा सकता है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने तो कहा ही था – ‘समरथ को नहिं दोष गुसाईं।’ आज की दुनिया में ये ताकत सिर्फ भुजबल से नहीं नापी जाती बल्कि इसके अनेक प्रकार हैं जो इस मुद्दे में सामने दिखाई पड़ रहे हैं।

भीड़ की ताकत, मीडिया विमर्श को अपने हित में इस्तेमाल करने का सामर्थ्य, व्यापार संतुलन का बल, तेल से कमाए धनबल की ताकत और कूटनीतिक ताकत। इस घटनाक्रम की क्रमबद्धता देखिए। टीवी बहस में जैसे ही बयान आता है, कुछ लोग इसे सोशल मीडिया पर आगे बढ़ाते है, एक शहर में भीड़ जुट कर दंगा करती है, देश के मीडिया का एक वर्ग इसे ‘इस्लाम पर हमले’ के रूप में प्रचारित करता है, क़तर में भारत के उपराष्ट्रपति का एक रात्रिभोज मेजबान इस खबर के आधार पर रद्द करते हैं और आखिरकार भाजपा अपनी राष्ट्रीय प्रवक्ता नूपुर शर्मा को हटाने को विवश होती है।

अब नूपुर और नवीन निहत्थे अभिमन्यु जैसे कौरवों की सेना के बीच में खड़े नज़र आते हैं। ये सिलसिला यहीं थमता नहीं है। पड़ोसी देश पाकिस्तान इसे इस्लामोफोबिया का रंग देकर प्रचारित करता है। अन्य इस्लामी संगठन और देश भी इसमें कूद पड़ते हैं। सोशल मीडिया पर भारत और हिंदू विरोधी ट्रेंड चलते हैं। अंतर्राष्ट्रीय मीडिया को तो मानो भारत पर टूट पड़ने का मौका मिल जाता है। कट्टर इस्लामी संगठन नूपुर शर्मा के सर पर इनाम घोषित कर देते हैं।

वैसे ये स्क्रिप्ट कोई नई नहीं हैं। चार्ली हेब्डो कार्टून के मामले में और एक फ्रांसीसी शिक्षक के मामले में लगभग इसी तरह के कथानक को चित्रित होते हम हाल ही में देख चुके हैं। मूल बात है कि मुस्लिम अपने मजहब के सवाल को किसी व्यवस्था के हाथ में छोड़ कर चुप नहीं रह जाते। वे किसी कोतवाल पर भरोसा करके सो नहीं जाते बल्कि खुद ही मुद्दई, वकील और मुंसिफ बन जाते हैं। अपनी बात मनवाने के लिए जब जैसा बन पड़े वे भीड़तंत्र, राजदंड, राजतंत्र, धनतंत्र, बलतंत्र और मीडियातंत्र का उपयोग करते हैं।

वे गलत-सही के पचड़े में पड़ते ही नहीं। देश कोई भी हो, वे किसी व्यवस्था के अंतर्गत नहीं रहते और न ही उस तंत्र को अपने बारे में किसी मुद्दे को कानूनी/गैरकानूनी तय करने का अधिकार देते है । इस मजहबी खेल में खेल का मैदान, खिलाड़ी, नियम, रेफरी वे खुद ही तय करते हैं। किसी भी कारण से, जब किसी भी मुस्लिमों को लगे तो किसी भी मसले को ईशनिंदा का मुद्दा बनाकर उसे खुद सजा भी दे देते हैं। याद कीजिए, गत दिसंबर में किस तरह पाकिस्तान के सियालकोट में एक श्रीलंकाई नागरिक को ईशनिंदा के नाम पर कुचलकर मार डाला गया था।

अथवा, कैसे पिछली दुर्गा पूजा में बांग्लादेश में सैकड़ों पूजा पंडालों, मंदिरों और प्रतिमाओं को ध्वस्त कर दिया था। या फिर कैसे कमलेश तिवारी को लखनऊ में उनके ही घर में ढाई साल पहले नृशंसता पूर्वक क़त्ल कर दिया गया था। ये अलग बात है कि फिर भी मीडिया का एक बड़ा वर्ग अल्पसंख्यक अधिकारों के नाम पर इन्हें सताए हुए/पीड़ित वर्ग के रूप में प्रचारित कर इस्लामोफोबिया का विमर्श दुनिया पर थोपता जाता है।

हिन्दू समाज इसके विपरीत अपनी आस्था के सवालों को व्यवस्था और तंत्र के हाथों में सौंपकर चैन की नींद सोना चाहता है। उसे लगता है कि संसार भलमनसाहत, व्यवस्था और कायदे कानूनों के हिसाब से चलता है। भाई लोगो, जब इस दुनिया में जब लट्ठ की ही पूजा होती हो तो आप अपनी आस्था के मुद्दों की ठेकेदारी दूसरे हाथों में सौंप कर कैसे चैन की बंसी बजा सकते हैं? कुछ हो जाता है तो फिर आप प्रलाप करते फिरते हैं।

हिन्दू आस्था के प्रतीकों पर निंदापूर्ण टिप्पणियों को लेकर सोशल मीडिया पर इन दिनों खूब रुदन हो रहा है। एक के बाद एक व्हाट्सएप ग्रुप में नूपुर शर्मा प्रकरण की तुलना करते हुए कई पोस्ट साझा की जा रही हैं जो हिन्दू देवी देवताओं के प्रति अशिष्ट, गाली गलौच से भरी और अपमानजनक हैं। इनके बहाने कहीं सरकार को, कहीं हिन्दू संगठनों को, कहीं बीजेपी को तो कहीं मीडिया को उलाहने दिए जा रहे हैं। भारत सरकार की खाड़ी देशों की नीति को लेकर खूब टीका-टिप्पणियाँ भी हो रहीं है।

इस बात से भी तुलना की जा रही है कि कैसे फ़्रांस के राष्ट्रपति इस्लामी कट्टरपंथियों की धमकियों के आगे झुके नहीं थे। भाई, कल तक जिस विदेश नीति की आप तारीफ करते नहीं अघाते थे वो रातोंरात कैसे गलत हो गई? सरकारें, संगठन और तंत्र कुछ मर्यादाओं से बंधे होते है। वे तो आज की जमीनी हकीकत के आधार पर फैसले लेंगे ही। उनके तकाजों को लेकर रोना क्यों? वे धरातल की वास्तविकता से बंधे हो सकते हैं पर बृहत् समाज तो इनसे बंधा हुआ नहीं है। समाज की साझा ताकत ही इन वास्तविकताओं को बदल सकती है।

अपनी आँखे खोलिए। सरकार और तंत्र से इसे बदलने की अपेक्षा करना सिर्फ एक खामख्याली और अपनी जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ना है। सोशल मीडिया पर हल्ला मचाने वाले वाचालवीरों से पूछना बनता है कि क्या आप अपनी धार्मिक संवेदनाओं की रक्षा की ‘आउटसोर्सिंग’ किसी संगठन, सरकार और तंत्र को कर चुके हैं? क्या ये आउटसोर्सिंग का मॉडल कहीं भी चलता है? आज तक दुनिया में क्या खुद बिना मरे कोई स्वर्ग गया है क्या?

अपने धर्म को लेकर हिन्दू समाज में भड़क रहे इस रोष, क्रोध और गुस्से को समझा जा सकता है। पर रुदाली बनने और उलाहने देने से काम नहीं चलने वाला। रहीमदास जी ने संभवतः इन्हीं परिस्थितियों के लिए लिखा था :

रहिमन निज मन की बिथामन ही राखो गोय।
सुनि अठिलैहैं लोग सब, बाँटि न लैहैं कोय॥


देवी देवताओं के नित हो रहे अपमान से पैदा हुए इस क्रोध की अग्नि का संचय कीजिए। इस दर्द को झेलिये और आत्मसात कीजिये। इस ज्वाला में स्वयं को भस्म करने की ज़रूरत नहीं है। देश और अपने दूरगामी हितों का ध्यान करिये। इस समय भावनाओं में रहकर प्रतिक्रिया से किसी का भला नहीं होगा बल्कि ये देश के लिए रणनीतिक सोच विकसित करने का समय है। समझ लीजिए, इस विश्व में सिर्फ शक्ति की पूजा होती है। सिर्फ नवरात्रि में शक्ति की उपासना करके बाकी समय इसकी ठेकेदारी किसी और को सौपने का समय अब लद गया।

हर तरह की शक्ति का संधान, संचय, संवर्धन और उसका बुद्धिमत्तापूर्ण उपयोग ही एक लोकतांत्रिक और सर्व समावेशी भारत के सुरक्षित भविष्य की गारंटी दे सकता है। दुनिया का ये नक्कारखाना किसी नियम, विधान और कानून के साजों से सजाया हुआ नहीं है बल्कि इसकी शोभा है शक्तिबल। इसलिए रोते रहकर किसी और की तरफ ताकने से बेहतर है शक्ति का संधान, अन्यथा इस नक्कारखाने में आप अपनी तूती को खुद ही बजायेंगे और खुद ही सुनेंगे। इसे सुनने कोई नहीं आने वाला, ये पक्का है।

Join OpIndia's official WhatsApp channel

  सहयोग करें  

एनडीटीवी हो या 'द वायर', इन्हें कभी पैसों की कमी नहीं होती। देश-विदेश से क्रांति के नाम पर ख़ूब फ़ंडिग मिलती है इन्हें। इनसे लड़ने के लिए हमारे हाथ मज़बूत करें। जितना बन सके, सहयोग करें

संबंधित ख़बरें

ख़ास ख़बरें

संभल में घरों से निकले हथियार, छतों से पत्थरबाजी करने वाली औरतें भी गिरफ्तार: 2 मृतकों के शरीर में मिली वो गोलियाँ जो पुलिस...

संभल में मुस्लिम भीड़ की हिंसा में कुल 28 पुलिसकर्मी घायल हुए हैं जिसमें DSP और SP के PRO भी शामिल हैं। एक कांस्टेबल के सिर में गंभीर चोट है।

60% मुस्लिम, कॉन्ग्रेस के हुसैन परिवार का दबदबा… कुंदरकी जैसी ही है सामागुरी में BJP की जीत भी: असम-मेघालय में NDA का क्लीन स्वीप

असम की सामागुरी सीट पर बीजेपी को मिली जीत खास चर्चा का विषय रही। यह सीट मुस्लिम बहुल क्षेत्र में आती है और इसे कॉन्ग्रेस का गढ़ माना जाता था।
- विज्ञापन -