Saturday, November 16, 2024
Homeविचारराजनैतिक मुद्देराम, रामायण और BJP: कार्यकर्ताओं से पार्टी है, पार्टी से कार्यकर्ता नहीं

राम, रामायण और BJP: कार्यकर्ताओं से पार्टी है, पार्टी से कार्यकर्ता नहीं

भाजपा के लिए अगला क़दम होना चाहिए, उन्हें न्याय दिलाना। ऐसा एक मृत कार्यकर्ता की पत्नी ने कहा भी कि उन्हें न्याय चाहिए। जो अपराधी हैं, जो दोषी हैं, उन्हें सज़ा दिलाने के लिए परिवारों की मदद की जानी चाहिए, कानूनी रूप से। अगर ऐसा होगा तब इस तरह की राजनीतिक हत्याएँ भी थमेंगी।

भारतीय जनता पार्टी के लिए राम मंदिर एक कोर मुद्दा रहा है और राम मंदिर के नाम पर ही पार्टी को एक पैन इंडिया पहचान मिली या यूँ कहिए कि इसके उद्भव की शुरुआत हुई। लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा और बाबरी विध्वंस के बाद भाजपा की एक अलग पहचान बनी। ये दोनों ही घटनाएँ भगवान श्रीराम से जुड़ी थीं। जब किसी महान व्यक्तित्व को कोई दल, संस्था या शख्स अपने जीवन का आधार बना लेता है तो उससे यह उम्मीद की जाती है कि वह उस महानता के पीछे निहित संदेशों का अनुसरण करेंगे। भाजपा ने भगवान श्रीराम का कितना अनुसरण किया और कितना नहीं, इस पर विश्लेषण होता रहेगा। लेकिन, हाल के दिनों में दो ऐसी ख़बर आई, जिससे पता चलता है कि भाजपा ने अपनी रणनीति में कुछ सुखद बदलाव किए हैं।

भाजपा की पहचान है उन करोड़ों कार्यकर्ताओं से, जिनमें से बहुतों ने केरल, बंगाल और त्रिपुरा में पार्टी के लिए जान तक न्यौछावर कर दिया। इन तीनों राज्यों में लम्बे समय तक वामपंथी शासन रहने के कारण राजनीति और हिंसा एक-दूसरे के पर्याय बन गए, जिससे भाजपा को यहाँ पाँव जमाने में ख़ासी मशक्कत करनी पड़ी। बूथ स्तर पर कार्यकर्ता ही काम आते हैं, अमित शाह और नरेन्द्र मोदी हर जगह नहीं हो सकते। स्थानीय राजनीतिक रंजिश में कार्यकर्ताओं की ही जानें जाती हैं, किसी विधायक, सांसद या मंत्री की नहीं। यहाँ हमनें भगवान राम से बात इसीलिए शुरू की क्योंकि अपने लिए लड़ने वालों का ध्यान कैसे रखा जाता है, उनके साथ कैसा व्यवहार किया जाता है, इसका उदाहरण शायद उनसे बेहतर किसी ने भी पेश न किया हो।

अगर राम के साथ वानर और भालू सेना न होती तो इस युद्ध का परिणाम कुछ और भी हो सकता था। वानरों व भालूओं ने राम के लिए अपनी पूरी ताक़त झोंक दी और लंकापति की हार का एक बड़ा कारण बनें। नल-नील ने पुल बनाया, हनुमान ने लक्ष्मण की जान बचाई, अंगद ने रावण को अंतिम बार समझाने के लिए अकेले उनके दरबार में जाने की हिमाकत की, जामवंत ने रावण से मल्लयुद्ध किया और अन्य वानरों ने रावण की पूजा भंग की। ये सब कौन लोग थे? इन सबका परिवार था, मातृभूमि थी, इनके पास खाने-पीने को प्रचुर मात्रा में चीजें थीं लेकिन इन्होने राम के लिए युद्ध लड़ा क्योंकि वे राम को अपना मानते थे, उनके दुःख से दुखी थे, उनके साथ हुए अन्याय को इन्होने अपना माना। कोई मित्रता के बंधन से बंधा रहा, कोई राम को इष्ट मान कर पीछे चलता रहा, किसी ने धर्म के लिए उनका साथ दिया तो किसी ने वचन निभाने के लिए उनके लिए कार्य किया।

राजनीतिक दलों के साथ भी कुछ ऐसा ही होता है। पार्टी सत्ता में आ जाती है तो कार्यकर्ताओं को सीधे मंत्री नहीं बनाया जाता, हाँ क्षेत्र के चुने गए नेता उनके प्रतिनिधि होते हैं, सरकार में, पार्टी में। लेकिन, ये कार्यकर्ता क्यों रहते हैं किसी पार्टी के साथ? कुछ की विचारधाराएँ उस ख़ास पार्टी से मिलती है, कुछ के रिश्तेदार उसमें होते हैं, कुछ को देशहित में ये पार्टी अच्छी लगती है तो कुछ लोगों को उस पार्टी में आगे बढ़ने का मौक़ा दिखता है। भाजपा के कार्यकर्ता भी भाजपा के साथ हैं, इसके कई कारण हो सकते हैं। ये कार्यकर्ता संघी हो सकते हैं, मोदी के बड़े फैन हो सकते हैं, हिंदुत्व की विचारधारा के समर्थक हो सकते हैं या भाजपा सरकारों के कामकाज के रवैये व उनके द्वारा किए जाने वाले विकास कार्यों से ख़ुश लोग हो सकते है। इसके बाद एक बंधन सा जुड़ जाता है कार्यकर्ता और पार्टी में।

एक अदना सा कार्यकर्ता, जो बूथ या गाँव लेवल पर काम कर रहा है, वो हमेशा कहीं न कहीं त्याग की भावना से काम कर रहा होता है। केरल में उसे पता होता है कि उस पर कभी भी हमला हो सकता है, बंगाल में उसे पता होता है कि कभी भी उसकी बहन-बीवी-बेटी के साथ दुर्व्यवहार किया जा सकता है। राहुल गाँधी की कॉन्ग्रेस की आज वह दुर्दशा है, क्योंकि पार्टी ने कभी उसी वामपंथियों के साथ हाथ मिलाया, जो कई कॉन्ग्रेसी कार्यकर्ताओं की मौत का कारण थे। आज सपा-बसपा महागठबंधन ज़मीन पर बुरी तरह इसीलिए फ्लॉप हो गई क्योंकि उन्होंने गठबंधन करने से पहले कार्यकर्ताओं से नहीं पूछा। अक्सर ऐसा होता है कि शीर्ष नेतृव निर्णय लेता है और कार्यकर्ता न मन रहते हुए भी मानते हैं।

लेकिन, इसका अर्थ यह नहीं की नेतृत्व कार्यकर्ताओं से राय-विचार करना ही छोड़ दे। वामपंथी दलों ने डॉक्टर मनमोहन सिंह की परमाणु संधि का विरोध किया। जहाँ निचले स्तर पर लोगों की राय थी कि अमेरिका से यह संधि हो, उस समय संसद में प्रभावी ताक़त रखने वाले वामपंथी दलों ने इस करार में बाधा पहुँचाई। वे अपने कार्यकर्ताओं को ही इसका उचित और संतुष्ट करने वाला कारण बताने में नाकाम रहे और कैडर पर आधारित वामपंथी पार्टियाँ आज अपने अस्तित्व बचाने के लिए तड़प रही है। कार्यकर्ताओं से पार्टी है, पार्टी से कार्यकर्ता नहीं। भाजपा ने देर से ही सही, इस बात को समझा और हाल के दिनों की दो ख़बरें इसकी पुष्टि करती हैं।

इनमें पहली ख़बर है केंद्रीय मंत्री और स्मृति इरानी द्वारा अमेठी जाकर अपने उस कार्यकर्ता के पार्थिव शरीर को कंधा देना, जिसकी राजनीतिक रंजिश के कारण हत्या कर दी गई। दूसरी ख़बर है बंगाल में हुए पंचायत और लोकसभा चुनावों के दौरान मारे गए कार्यकर्ताओं को नरेन्द्र मोदी के शपथग्रहण समारोह में आमंत्रित करना। हमने भगवान राम से बात इसीलिए शुरू की क्योंकि जब कई वानर और भालू मारे जा चुके थे, राम ने रावण का वध कर दिया, तब रावण से पीड़ित रहे देवराज इंद्र ने राम से पूछा कि वो उनके लिए क्या कर सकते हैं? चूँकि राम ने देवताओं को एक बड़ी समस्या से मुक्ति दिलाई थी, इंद्र उनके लिए कुछ भी करने को तैयार थे। क्या आपको पता है तब भगवान राम ने इंद्र से क्या माँगा?

राम का काम तो हो चुका था। उन्हें उनकी सीता मिल गई थी, लंका में विभीषण का राज था, उनके मित्र सुग्रीव और भक्त हनुमान अभी भी स्वस्थ थे और उनके वापस जाने के लिए पुष्पक विमान भी तैयार था। लेकिन, उन्हें पता था कि यह जीत सिर्फ़ उनकी या सेनापतियों की जीत नहीं है। उन्हें पता था कि इस जीत में किसका किरदार सबसे अहम है। उन्हें इस बात का ज्ञान था कि किनकी वजह से यह सब कुछ संभव हो पाया है। राम को इस समय किसी की भी फ़िक्र नहीं थी, उनके मन में उनके लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर राक्षसों के हाथों मारे जाने वाले वानरों एवं भालुओं के लिए कुछ चल रहा था। तब राम ने इंद्र से कहा:

“सुन सुरपति कपि भालु हमारे। परे भूमि निसिचरन्हि जे मारे।।
मम हित लागि तजे इन्ह प्राना। सकल जिआउ सुरेस सुजाना।।”

भावार्थ: हे देवराज! सुनो, हमारे वानर-भालू, जिन्हें निशाचरों ने मार डाला है, पृथ्वी पर पड़े हैं। इन्होंने मेरे हित के लिए अपने प्राण त्याग दिए। हे सुजान देवराज! इन सबको जीवित कर दो।
(लंकाकाण्ड, रामचरितमानस)

राम ने मारे गए वानर-भालुओं को जीवित करने को कहा। आज की युग में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है लेकिन अधिकतम जितना हो सके, मारे गए कार्यकर्ताओं या जो पार्टी के लिए काम कर रहे हैं, उनके लिए किया जा सकता है। जो आज इस दुनिया में नहीं हैं, जिन्होंने पार्टी के लिए जान दे दी, उनके परिवारों की उचित देखभाल की जा सकती है। उन्हें उचित सम्मान दिया जा सकता है। उनके बच्चों की उचित शिक्षा के लिए वह राजनीतिक दल व्यवस्था कर सकती है, जिनके लिए उनकी जान चली गई। स्मृति इरानी का अमेठी जाकर मृत सुरेन्द्र के शव को कंधा देना कई तरह के सन्देश छोड़ गया। इससे उन कार्यकर्ताओं में उम्मीद जगी कि ऊपर लेवल पर काम कर रहे लोग उनके बारे में सोचते हैं।

स्मृति इरानी ने सुरेन्द्र के बच्चों की पढाई-लिखाई और सुरक्षा की ज़िम्मेदारी लेने की भी बात कही। इससे यह सन्देश गया कि अगर परिस्थितिवश किसी कार्यकर्ता के साथ कुछ ग़लत हो जाता है तो पीछे उनके परिवार को देखने के लिए वो खड़ा है, जिनके लिए उन्होंने बलिदान दिया। इसी तरह बंगाल में मारे गए कार्यकर्ताओं के परिजनों को उस समारोह का गवाह बनने के लिए बुलाया गया है, जिसमें राष्ट्राध्यक्षों से लेकर अधिकतर वीवीआइपी ही उपस्थित रहेंगे। कैसा दृश्य होगा जब उसी समारोह में, उसी परिसर में दुनिया के सबसे अमीर व्यक्तियों में से एक मुकेश अम्बानी भी उपस्थित होंगे और बंगाल का एक लड़का भी होगा जिसके पिता को सिर्फ़ इसीलिए मार डाला गया, क्योंकि वो लोकतान्त्रिक तरीके से अपना काम कर रहे थे, वो महिला भी होंगी, जिनके पति को केवल इसीलिए मार दिया गया क्योंकि वह किसी ख़ास पार्टी का समर्थन करते थे।

कुछ लोग ज़रूर कहेंगे कि इससे क्या हो जाएगा? इससे क्या फायदा है? ऐसे ही एक कार्यकर्ता के बेटे ने ये ख़बर सुन कर अपनी प्रतिक्रया में कहा कि उन्हें ये सुन कर अच्छा लगा कि शपथग्रहण समारोह में जाने के लिए उन्हें बुलाया गया है। जैसा कि मीडिया में ख़बरें आई हैं, इनके खाने-पीने से लेकर दिल्ली की यात्रा और यहाँ ठहरने तक की व्यवस्था भाजपा के पदाधिकारीगण देखेंगे। ये काफ़ी नहीं है। भाजपा के लिए अगला क़दम होना चाहिए, उन्हें न्याय दिलाना। ऐसा एक मृत कार्यकर्ता की पत्नी ने कहा भी कि उन्हें न्याय चाहिए। जो अपराधी हैं, जो दोषी हैं, उन्हें सज़ा दिलाने के लिए परिवारों की मदद की जानी चाहिए, कानूनी रूप से। अगर ऐसा होगा तब इस तरह की राजनीतिक हत्याएँ भी थमेंगी।

किसी एक कार्यकर्ता की नहीं, देश के किसी भी कोने में अगर किसी कार्यकर्ता की राजनीतिक रंजिश की वजह से मौत होती है तो उसकी पार्टी को उसके बच्चों की पढाई-लिखाई से लेकर अन्य ज़रूरतों का ध्यान रखना चाहिए। ऐसा नहीं है कि राजनीतिक दलों के पास रुपए की कमी होती है। उन्हें काफ़ी कुछ का हिसाब नहीं देना पड़ता। उनके पा सत्रह-तरह के आय के स्रोत होते हैं। ये दल सत्ता में हों या विपक्ष में, इनके पास अगर बड़े नेताओं के लिए लगातार भारत भ्रमण का पैसा है तो मारे गए कार्यकर्ताओं के परिवारों की देखभाल करना कोई बड़ी बात नहीं है। भाजपा ने एक अच्छी शुरुआत की है। अमेठी से निकली हवा बंगाल पहुँची है और वो अब दिल्ली आ रही है। देखना है, यह कितनी आगे तक जा पाती है?

Join OpIndia's official WhatsApp channel

  सहयोग करें  

एनडीटीवी हो या 'द वायर', इन्हें कभी पैसों की कमी नहीं होती। देश-विदेश से क्रांति के नाम पर ख़ूब फ़ंडिग मिलती है इन्हें। इनसे लड़ने के लिए हमारे हाथ मज़बूत करें। जितना बन सके, सहयोग करें

अनुपम कुमार सिंह
अनुपम कुमार सिंहhttp://anupamkrsin.wordpress.com
भारत की सनातन परंपरा के पुनर्जागरण के अभियान में 'गिलहरी योगदान' दे रहा एक छोटा सा सिपाही, जिसे भारतीय इतिहास, संस्कृति, राजनीति और सिनेमा की समझ है। पढ़ाई कम्प्यूटर साइंस से हुई, लेकिन यात्रा मीडिया की चल रही है। अपने लेखों के जरिए समसामयिक विषयों के विश्लेषण के साथ-साथ वो चीजें आपके समक्ष लाने का प्रयास करता हूँ, जिन पर मुख्यधारा की मीडिया का एक बड़ा वर्ग पर्दा डालने की कोशिश में लगा रहता है।

संबंधित ख़बरें

ख़ास ख़बरें

जिनके पति का हुआ निधन, उनको कहा – मुस्लिम से निकाह करो, धर्मांतरण के लिए प्रोफेसर ने ही दी रेप की धमकी: जामिया में...

'कॉल फॉर जस्टिस' की रिपोर्ट में भेदभाव से जुड़े इन 27 मामलों में कई घटनाएँ गैर मुस्लिमों के धर्मांतरण या धर्मांतरण के लिए डाले गए दबाव से ही जुड़े हैं।

‘गालीबाज’ देवदत्त पटनायक का संस्कृति मंत्रालय वाला सेमिनार कैंसिल: पहले बनाया गया था मेहमान, विरोध के बाद पलटा फैसला

साहित्य अकादमी ने देवदत्त पटनायक को भारतीय पुराणों पर सेमिनार के उद्घाटन भाषण के लिए आमंत्रित किया था, जिसका महिलाओं को गालियाँ देने का लंबा अतीत रहा है।

प्रचलित ख़बरें

- विज्ञापन -